Thursday, January 16, 2014

हिंदी-उर्दू

समर अनार्य की डेढ़ इश्किया फिल्म की चर्चा के बहाने हिंदी-उर्दू विमर्श पर मेरा कमेंटः

हमारी ज़ुबां मुला कि हिंदुस्तानी है
जो हिंदी-ओ-उर्दू की साझी कहानी है
करता हूं इस्तेमाल दोनों अलफ़ाज़ एक साथ
रखता ध्यान में महज भाषा के सौंदर्य की बात
शब्दों की कड़की से दुखते हैं शायराना ज़ज़्बात
आती है तब उस मरहूम शायर दोस्त की बहुत याद
भाषा की समृद्धि के बावजूद होता शब्दों का अभाव
खलता है तब ख़ुद के भाषाविद न होने का स्वभाव
(हा हा... शब्दों की तफ़रीह में ये तो शायरी हो गयी, पवन जी के बताये शब्दों को जोड़ने की कोशिस करता हूं. अजीब सा लगता है, जब (अक्सर) सफेद दाढ़ी की अकीदत का ख्याल दरकिनार कर, बच्चों की तरह तफरीः करने लगता हूं. बचपन की यादों का उल्स है, शायद)
है ये गुजरे जमाने की बात
हुई थी जब वो पहली मुलाकात
अरावली के दिलकश नजारों में
ज़ज्बातों के फस्ल-ए-बहारों में
करने लगी थी वो अकीदत और इबादत
रश्मों से बगावत की थी न तब तक आदत
ज़ुनून-ए-उल्स को उसने जुनून-ए-इश्क समझा
समझाने पर यह बात मुझे ही दुश्मन समझा
किया अर्ज़ जब करने को मर्दवाद से बगावत
संस्कारवश कर बैठी वो उल्टे मुझसे ही अदावत
संस्कारों का असर होता बेइम्तहां
टूटने पर मगर दिखता एक नया जहां
जुनून-ए-इश्क में मानने लगी वो मेरी बात
दिमाग से जोड़ने लगी दिल के ज़ज़्बात
मिला दिया ग़म-ए-जहां में गम-ए-दिल हमने
हुए शामिल जंग-ए-आज़ादी के कारवानेजुनून में
(क्या समर, सुबह हिंदी-उर्दू के चक्कर में खर्च करा दिया, शुक्रिया)
[ईमि/17.01.2014]

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