341
लगता है वर्षों
बीत गया हुए दुआ-सलाम
किसी बड़े काम
को शायद दे रहे हो अंजाम
[ईमि/11.01.2014]
342
बलिदान नहीं है
मक्सद सैलाब-ए-इंकिलाब का
पर होना
चरितार्थ एक सुंदर दुनिया के ख़ाब का
निकलो मगर बांध
सर पर कफन
देनी हो ग़र
कुर्बानी
आए न
मक्सद-ए-इंकिलाब में बिचलन
[ईमि12.01.2014]
343
कविता का
पूर्व-कथ्य
लिखना है एक
कविता इस मनुहारी तस्वीर पर
बनना पड़ेगा
लेकिन इसके लिए मूर्तिकार
और शब्दों
से पड़ेगा गढ़ना नये आकार-प्रकार
नयनों में
इसके भरने हैं अभिव्यक्ति अंतरदृष्टि की
दे जो आभास
एक नई दुनिया की दूरदृष्टि की
मुस्कान में
विजयी आत्मविश्वास की खुशी
एवं चेहरे
पर नारी प्रज्ञा और दावेदारी का संकल्प
तनना है इस
मुट्ठी को लहराते हुए हाथ
चल रहा हो
साथ एक उमड़ता जन सैलाब
लिखना तो है ही इस तस्वीर पर एक
सुंदर कविता
लिखना है
पहले लेकिन एक लंबा पूर्वकथ्य
उजागर हों
जिससे इसके विप्लवी अंतःतथ्य
[ईमि/12.01.2014]
344
अंततः आम आदमी
बनेगा ही खुद का
खास अंततः आम आदमी
रचेगा ही नया
इतिहास अंततः आम आदमी
मुक्त हुआ जब
गुलामी के दौर से आम आदमी
फंस गया सामंती
खोह में आम आदमी
सामंती शिकंजों
को तोड़ने वाला था आम आदमी
हुआ इंकिलाबी
आसियाने बेदखल आम आदमी
आया पूंजी का
निज़ाम मजदूर बना आम आदमी
लायेगा अगला
इंकिललाब जब आम आदमी
फंसेगा न किसी
जाल में तब आम आदमी
करेगा ही मानवता
को मुक्त अंततः आम आदमी
[ईमि/14.01.2014]
345
अकेला
एकांत
जंगल तो हमें
वैसे भी जाना है, वह हमें चुने , इससे अच्छा, उसका हमसे चुना जाना है
खोज लेते हैं
प्रतिकूल में, अभिशाप के भेष
में बरदान
चुनते हैं राह संघर्षों की देते दुश्मन को अभयदान
दें ग़र वो हर
इंसान को बस इंसानी सम्मान
आते हैं
राह-ए-जंग में, कई उतार-चढ़ाव, ये तो हैं
रास्ते के छोटे-मोटे पड़ाव
मिलती है
संघर्षों से गजब की ताकत, खत्म कर देती है बिघ्न-बाधा की विसात
कर देती है
मुश्किलों को आसान, और प्रतिकूल को
अनुकूल के समान
हम होते नहीं
अकेले, चुनते हैं एकांत, मनते-रचते हैं भावी संघर्षों का वृत्तांत
ऐसा नहीं है, नहीं है संघषर्षों का आदि-अंत
चलेगा लेकिन तब
तक,
होता
नहीं शोषण-दमन का अंत जब तक
[ईमि/16.01.2014]
346
हमारी ज़ुबां
मुला कि हिंदुस्तानी है
जो
हिंदी-ओ-उर्दू की साझी कहानी है
करता हूं इस्तेमाल
दोनों अलफ़ाज़ एक साथ
रखता ध्यान में
महज भाषा के सौंदर्य की बात
शब्दों की कड़की
से दुखते हैं शायराना ज़ज़्बात
आती है तब उस
मरहूम शायर दोस्त की बहुत याद
भाषा की समृद्धि
के बावजूद होता शब्दों का अभाव
खलता है तब ख़ुद
के भाषाविद न होने का स्वभाव
[ईमि/17.01.2014]
347
है ये गुजरे
जमाने की बात, हुई थी जब वो पहली मुलाकात
अरावली के दिलकश
नजारों में, ज़ज्बातों के फस्ल-ए-बहारों में
करने लगी थी वो
अकीदत और इबादत, रश्मों से बगावत की थी न तब तक आदत
ज़ुनून-ए-उल्स
को उसने जुनून-ए-इश्क समझा, समझाने पर यह बात मुझे ही दुश्मन समझा
किया अर्ज़ जब
करने को मर्दवाद से बगावत, संस्कारवश कर बैठी वो उल्टे मुझसे ही अदावत
संस्कारों का
असर होता बेइम्तहां, टूटने पर मगर दिखता एक नया जहां
जुनून-ए-इश्क
में मानने लगी वो मेरी बात, दिमाग से जोड़ने लगी दिल के ज़ज़्बात
मिला दिया
ग़म-ए-जहां में गम-ए-दिल हमने, हुए शामिल जंग-ए-आज़ादी के कारवानेजुनून में
[ईमि/17.01.2014]
348
जिसका भी
अस्तित्व है,निशचित है अंत
उसका
होगा अंत गुलामी
का, सोचा न था अरस्तू ने,
करते हुए गुणगान
उसका
लिख रहे थे
धर्मशास्त्र जब मनु महराज,
धूल में मिल
जायेगा वर्णश्रमी राज आज
नहीं रहा होगा
उनको इल्म इसका
रौंदकर यूनानी
नगर राज्य और दर्शन-ज्ञान की परंपराएं
कभी नहीं सोचा
था सिकंदर ने करते हुए असीम रक्तपात
खाक़ में मिल
जाएगा इतनी जल्दी खानदान उसका
कहां हैं
उत्तराधिकारी अकबर और नेपोलियन के
और हिटलर-हलाकू-
चंगेज के वंशज
खत्म हो गये जब
इतिहास के बड़े बड़े सम्राट
इतिहास के गर्त
में समा जायेंगे सारे जनतांत्रिक युवराज
खत्म हो गयीं जब
तुगलक-लोदी-मुगल सल्तनतें
अंत निश्चित है
नेहरू-गांधी जनतांत्रिक वंशवाद का
[ईमि/17.01.2014]
349
इस तस्वीर पर
पहले भी लिख चुका हूं , एक उड़ती हुई
कविता
जब भी देखता हूं
यह तस्वीर, होता मन कुछ और कहने को अधीर
मिल जुल्फों से
काली पोशाक , देती सावन की
घटाटोप सविता का आभास
चेहरे पर संचित
पीड़ा के भाव, दर्शाते हैं सदियों पुराने घाव
बेताब हैं
उंगलियां गिटार के तार पर ,
करने
को आघात सभ्यता के भार पर
रचने को एक नया
संगीत , बन जाये जो
जंग-ए-आज़ादी का गीत
[ईमिः18.01.2014]
350
खत्म हुआ अब
मोदी का खेल, हत्यारे की जगह है जेल
बंद करो बजरंगी
उन्माद. देगी जनता सही जवाब
उधड़ गया विकास
का जाल, मोदी है टाटा का लाल
अंबानी का
ज़रखरीद दलाल, मज़लूमों का यमराजी काल
हुआ बुरा
बजरंगियों का हाल, अवतरित हुआ जब केजरीवाल
नहीं चाहिए ऐसा
राज,
मुखिया
जिसमें नरसंहारी सरताज
आओ मिल-जुल दें
आवाज, हिंद में आए जनवादी राज
(ईमिः18.01.2014)