हमारे ऋग्वैदिक पूर्वज शुरुआती दौर अर्ध-खानाबदोश चरवाहे थे जिसके प्रौढ़ काल तक जब खेती और शिल्प ने पशुपालन और शिकार की अर्थ-व्यवस्था को समृद्ध किया और प्राथमिकता अख्तियार कर लिया, उत्पादों और उत्पादन पर पुजारियों और कुनबे के सरदारों का नियंत्रण स्थापित करने के लिए सामाजिक विभाजन का सूत्रपात हुआ और गैर-उत्पादक परजीवी वर्गों (ब्राह्मण-क्षत्रिय) का उदय हुआ जिसने शस्त्र-शास्त्र के जरिये उत्पादक वर्ग (वैश्य) और उत्पादों के प्रबंधन पर नियंत्रण स्थापित किया. जब ऋग्वैदिक आर्यों ने सरस्वती सूखने बाद पूर्व दिशा में प्रयाण किया तब पराजित अनार्यों को वर्णव्यवस्था में शूद्र के रूप में शामिल कर लिया और छठी शताब्दी ईशा-पूर्व तक यह सामाजिक व्यवस्था लगभग स्थापित हो गयी थी. बुद्ध का विद्रोह इसी व्यवस्था के खिलाफ था. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कृष्ण और कंस को दानवों की श्रेणी में वर्णित किया गया है. कौटिल्य के ही समकालीन यूनानी यात्री मेगास्थनीज ने कृष्ण को सूरसेन क्षेत्र(मथुरा) के स्थानीय किम्वदंती नायक के रूप में चित्रित किया है जिसे बुद्ध के प्रभाव से त्रस्त ब्राह्मणों ने महाभारत में गीता के प्रक्षेपण से अवतार साबित कर दिया.
"Shriniwas Rai Shankar गीता बहुतों के लिए खट्टा अंगूर है...इसिलए विवेकानन्द ने गीता ज्ञान
और कृष्ण को समझने के लिए जिद करने वाले बालक को पहले फ़ुटबाल खेलने की सलाह दी...थी."
खट्टा अंगूर किस काम का? जिस शिक्षक की बात बच्चों केसिर के ऊपर से गुजर जाए वह कितना भी
विद्वान क्यों न हो, एक बुरा शिक्षक होता है. पंडित जी के कथावाचन किसी को समझ नहीं आते पर सभी
श्रद्धाभाव से सुनते हैं और सर नवाकर उससे एक अज्ञात सुख की अनुभूति करते है. मेरे जैसे किसी भी
चिंतनशील व्यक्ति के लिए यह अन्धविश्वासी अनुष्ठान व्यर्थ है. वैसे ही यदि कोइ पुस्तक पाठक के लिए
अबोधगम्य रह जाए वह पुस्तक पूजा की वस्तु हो सकती है ज्ञान और विश्वदृष्टि का स्रोत नहीं. गीता ज्ञान
के भक्त कभी यह सोअष्ट नहीं करते कि वह ज्ञान या रहस्य है क्या? मेरे जैसे अज्ञानी के लिए पुस्तक किस
काम की जो इतनी गूढ़ हो कि समझ ही न आये.
तत्कालीन अन्य सभ्यताओं की ही तरह शस्त्र और शास्त्र पर वर्चस्व का उपयोग बहुमत पर आर्थिक-
सामाजिक वर्चस्व के लिए होता था. यहां परजीवी शब्द का इस्तेमाल, आर्थिक उत्पादन में भागीदार न होने
के उन्हीं अर्थों में किया गया है जिन अर्थों में इस शब्द का इस्तेमाल आज पूँजीपति वर्ग के लिए किया
जाता है. वैसे तो पूँजीपति अपने को ही सबसे अधिक परिश्रमी मानता है. जेयनयू-आईआईटी के जो लोग
अपनी श्रम-शक्ति(अनुभव-दक्षता से युक्त) से आजीविका कमाते हैं हैं वे उत्पादक वर्ग में हैं ऐर जो अतिरिक्त
मूल्य की उगाही करते हैं वे परजीवी शासक वर्ग का हिस्सा है.
कृष्ण कम-से-कम कौटिल्य काल तक भगवाल क्या आर्यनायक नहां थे इसीलिए कौटिल्य कंस के साथ
उन्हें दानव (अनार्कोय) कोटि में रखते है. मेगस्थनीज के उद्धरण से कही गई बात भी यही पुष्ट करती है.
महाकावयों के पात्रों की ऐतिहासिकता की बात अप्रासंगिक है. मैं तो इस पुस्तक से उभरने वाले
अधिनायकवादी कृष्ण के चरित्र की चर्चा कर रहा हूँ. अपने को सर्वशक्तिमान घोषित करने वाले कृष्ण और
चिंतन से मुक्त अर्जुनों के जीवंत उदाहरण आर के राजनैतिक दल हैं. विभिन्न दलों -- कान्ग्रेस, भजपा,
राजद, सपा, तृणमूल, बसपा, अद्रमुक, द्रमुक, .... -- के अर्जुन -- सांसद, विधायक-- सोचने का अपना
अधिकार अपने-अपने कृष्णों -- सोनिया /संघालय के सरसंघ चालक(भागवत)/लालू/मुलायम /ममता/
माया/जयललिता/करिणानिधि...... को सौंपकर चिंतनमुक्त होकर देश लूटने कर्म ही करते हैं. इन सभी
कृष्णों का सुपर कृष्ण बराक ओबामा है.
"Shriniwas Rai Shankar गीता बहुतों के लिए खट्टा अंगूर है...इसिलए विवेकानन्द ने गीता ज्ञान
और कृष्ण को समझने के लिए जिद करने वाले बालक को पहले फ़ुटबाल खेलने की सलाह दी...थी."
खट्टा अंगूर किस काम का? जिस शिक्षक की बात बच्चों केसिर के ऊपर से गुजर जाए वह कितना भी
विद्वान क्यों न हो, एक बुरा शिक्षक होता है. पंडित जी के कथावाचन किसी को समझ नहीं आते पर सभी
श्रद्धाभाव से सुनते हैं और सर नवाकर उससे एक अज्ञात सुख की अनुभूति करते है. मेरे जैसे किसी भी
चिंतनशील व्यक्ति के लिए यह अन्धविश्वासी अनुष्ठान व्यर्थ है. वैसे ही यदि कोइ पुस्तक पाठक के लिए
अबोधगम्य रह जाए वह पुस्तक पूजा की वस्तु हो सकती है ज्ञान और विश्वदृष्टि का स्रोत नहीं. गीता ज्ञान
के भक्त कभी यह सोअष्ट नहीं करते कि वह ज्ञान या रहस्य है क्या? मेरे जैसे अज्ञानी के लिए पुस्तक किस
काम की जो इतनी गूढ़ हो कि समझ ही न आये.
तत्कालीन अन्य सभ्यताओं की ही तरह शस्त्र और शास्त्र पर वर्चस्व का उपयोग बहुमत पर आर्थिक-
सामाजिक वर्चस्व के लिए होता था. यहां परजीवी शब्द का इस्तेमाल, आर्थिक उत्पादन में भागीदार न होने
के उन्हीं अर्थों में किया गया है जिन अर्थों में इस शब्द का इस्तेमाल आज पूँजीपति वर्ग के लिए किया
जाता है. वैसे तो पूँजीपति अपने को ही सबसे अधिक परिश्रमी मानता है. जेयनयू-आईआईटी के जो लोग
अपनी श्रम-शक्ति(अनुभव-दक्षता से युक्त) से आजीविका कमाते हैं हैं वे उत्पादक वर्ग में हैं ऐर जो अतिरिक्त
मूल्य की उगाही करते हैं वे परजीवी शासक वर्ग का हिस्सा है.
कृष्ण कम-से-कम कौटिल्य काल तक भगवाल क्या आर्यनायक नहां थे इसीलिए कौटिल्य कंस के साथ
उन्हें दानव (अनार्कोय) कोटि में रखते है. मेगस्थनीज के उद्धरण से कही गई बात भी यही पुष्ट करती है.
महाकावयों के पात्रों की ऐतिहासिकता की बात अप्रासंगिक है. मैं तो इस पुस्तक से उभरने वाले
अधिनायकवादी कृष्ण के चरित्र की चर्चा कर रहा हूँ. अपने को सर्वशक्तिमान घोषित करने वाले कृष्ण और
चिंतन से मुक्त अर्जुनों के जीवंत उदाहरण आर के राजनैतिक दल हैं. विभिन्न दलों -- कान्ग्रेस, भजपा,
राजद, सपा, तृणमूल, बसपा, अद्रमुक, द्रमुक, .... -- के अर्जुन -- सांसद, विधायक-- सोचने का अपना
अधिकार अपने-अपने कृष्णों -- सोनिया /संघालय के सरसंघ चालक(भागवत)/लालू/मुलायम /ममता/
माया/जयललिता/करिणानिधि...... को सौंपकर चिंतनमुक्त होकर देश लूटने कर्म ही करते हैं. इन सभी
कृष्णों का सुपर कृष्ण बराक ओबामा है.
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