Tuesday, October 1, 2013

लल्ला पुराण ११४

हमारे ऋग्वैदिक पूर्वज शुरुआती दौर अर्ध-खानाबदोश चरवाहे थे जिसके प्रौढ़ काल तक जब खेती और शिल्प ने पशुपालन और शिकार की अर्थ-व्यवस्था को समृद्ध लिया और प्राथमिकता अख्तियार किया, उत्पादों और उत्पादन पर पुजारियों और कुनबे के सरदारों का नियंत्रण स्थापित करने के लिए सामाजिक विभाजन का सूत्रपात हुआ और गैर-उत्पादक परजीवी वर्गों (ब्राह्मण-क्षत्रिय) का उदय हुआ  जिसने शस्त्र-शास्त्र के जरिये जो उत्पादक वर्ग (वैश्य) और उत्पादों के प्रबंधन पर नियंत्रण स्थापित किया. जब ऋग्वैदिक आर्य सरस्वती सूखने बाद पूर्व दिशा में प्रयाण किया तब पराजित अनार्यों को वर्णव्यवस्था में शूद्र के रूप में शामिल कर लिया और छठी शताब्दी ईशा-पूर्व तक यह सामाजिक व्यवस्था लगभग स्थापित   हो गयीए और बुद्ध का विद्रोह इसी व्यवस्था के खिलाफ था. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कृष्ण और कंस को दानवों की श्रेणी में वर्णित किया गया है. कौटिल्य के ही समकालीन यूनानी यात्री मेगास्थनीज ने कृष्ण को सूरसेन क्षेत्र(मथुरा) के स्थानीय किम्वदंती नायक के रूप में किया है जिसे बुद्ध के प्रभाव से ट्रस्ट ब्राह्मणों ने महाभारत में गीता के प्रक्षेपण से अवतार साबित कर दिया.


खट्टा अंगूर किस काम का? जिस शिक्षक की बात बच्चों केसिर के ऊपर से गुजर जाए वह कितना भी विद्वान क्यों न हो, एक बुरा शिक्षक होता है. पंडित जी के कथावाचन किसी को समझ नहीं आते पर सभी श्रद्धाभाव से सुनते हैं और सर नवाकर उससे एक अज्ञात सुख की अनुभूति करते है. मेरे जैसे किसी भी चिंतनशील व्यक्ति के लिए यह अन्धविश्वासी अनुष्ठान व्यर्थ है. वैसे ही यदि कोइ पुस्तक पाठक के लिए अबोधगम्य रह जाए वह पुस्तक पूजा की वस्तु हो सकती है ज्ञान और विश्वदृष्टि का स्रोत नहीं. गीता ज्ञान के भक्त कभी यह सोअष्ट नहीं करते कि वह ज्ञान या रहस्य है क्या? मेरे जैसे अज्ञानी के लिए पुस्तक किस काम की  जो इतनी  गूढ़ हो कि समझ ही न आये.

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