बाल्मीकि ने कितना भावपूर्ण इतिहास लिखा था : देखिये कहीं यह अंश प्रक्षिप्त तो नहीं ?
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम सीता से कहते हैं :
"रावण तुमको अपनी गोद में उठा कर ले गया. वह तुम पर अपनी दूषित दृष्टि डाल चुका है ऐसी अवस्था में अपने कुल को महान मानने वाला मैं तुम्हें कैसे ग्रहण कर सकता हूँ ? भद्रे, मेरा यह निश्चित विचार है. तदनुसार ही मैंने तुम्हें सब कुछ कहा है. तुम चाहो तो लक्ष्मण के साथ रह सकती और, चाहो तो भरत के साथ रह सकती हो.
सीता, तुम्हारी इच्छा हो तो तुम शत्रुघ्न, बंदरों के राजा सुग्रीव अथवा राक्षसराज विभीषण के पास भी रह सकती हो, तुम्हें जहां रहना अच्छा लगे वहीँ रह सकती हो.
हे सीता, मुझे लगता है कि तुम्हारे जैसी रूपवती नारी को अपने घर में देख कर रावण चिरकाल तक तुम से दूर ही नहीं रह सका होगा.
भद्रे, समरांगन में शत्रु को पराजित करके मैंने तुझे उसके चंगुल से छुड़ा लिया है. पुरुषार्थ के द्वारा जो कुछ संभव था, वह सब मैंने किया है. अपने तिरस्कार का बदला चुकाने के लिए मनुष्य का जो कर्तव्य है, वह सब मैंने अपनी मानरक्षा की अभिलाषा से रावण का वध करके पूरा किया. किन्तु, तुम्हें मालूम होना चाहिए की मैंने जो यह सारा परिश्रम किया है, मित्रों की सहायता से युद्ध में विजय पाई है, वह तुम्हें प्राप्त करने के लिए नहीं था. तुम पर संदेह किया जा सकता है, फिर भी तुम मेरे सामने खड़े हो जैसे आँख के रोगी को दीपक की ज्योति नहीं सुहाती, उसी प्रकार आज तुम भी मुझे अत्यंत अप्रिय लग रही हो. जनक कुमारी, तुम स्वतन्त्र हो, तुम्हारी जहाँ इच्छा हो चली जाओ. दसों दिशाएं तुम्हारे लिए खुली हैं. अब से मुझे तुम से कोई प्रयोजन नहीं."
-वाल्मीकि रामायण
युद्धकांड
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम सीता से कहते हैं :
"रावण तुमको अपनी गोद में उठा कर ले गया. वह तुम पर अपनी दूषित दृष्टि डाल चुका है ऐसी अवस्था में अपने कुल को महान मानने वाला मैं तुम्हें कैसे ग्रहण कर सकता हूँ ? भद्रे, मेरा यह निश्चित विचार है. तदनुसार ही मैंने तुम्हें सब कुछ कहा है. तुम चाहो तो लक्ष्मण के साथ रह सकती और, चाहो तो भरत के साथ रह सकती हो.
सीता, तुम्हारी इच्छा हो तो तुम शत्रुघ्न, बंदरों के राजा सुग्रीव अथवा राक्षसराज विभीषण के पास भी रह सकती हो, तुम्हें जहां रहना अच्छा लगे वहीँ रह सकती हो.
हे सीता, मुझे लगता है कि तुम्हारे जैसी रूपवती नारी को अपने घर में देख कर रावण चिरकाल तक तुम से दूर ही नहीं रह सका होगा.
भद्रे, समरांगन में शत्रु को पराजित करके मैंने तुझे उसके चंगुल से छुड़ा लिया है. पुरुषार्थ के द्वारा जो कुछ संभव था, वह सब मैंने किया है. अपने तिरस्कार का बदला चुकाने के लिए मनुष्य का जो कर्तव्य है, वह सब मैंने अपनी मानरक्षा की अभिलाषा से रावण का वध करके पूरा किया. किन्तु, तुम्हें मालूम होना चाहिए की मैंने जो यह सारा परिश्रम किया है, मित्रों की सहायता से युद्ध में विजय पाई है, वह तुम्हें प्राप्त करने के लिए नहीं था. तुम पर संदेह किया जा सकता है, फिर भी तुम मेरे सामने खड़े हो जैसे आँख के रोगी को दीपक की ज्योति नहीं सुहाती, उसी प्रकार आज तुम भी मुझे अत्यंत अप्रिय लग रही हो. जनक कुमारी, तुम स्वतन्त्र हो, तुम्हारी जहाँ इच्छा हो चली जाओ. दसों दिशाएं तुम्हारे लिए खुली हैं. अब से मुझे तुम से कोई प्रयोजन नहीं."
-वाल्मीकि रामायण
युद्धकांड
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