कोई भी रचना सोद्देश्य होती है. रामायण का रचनाकाल वह है जब वर्णाश्रम विरोधी बौद्ध दर्शन की लोकप्रियता ने पित्रिसत्तात्मक वर्णाश्रम आधारित पुरोहिती को हासिये पर ढकेल दिया था. गौरतलब है कि तमाम विरोधों के बावजूद बुद्ध ने संघों में महिलाओं को प्रवेश दिया था. किंवदंतियों पर आधातित राम का महाकाव्यीय चरित्र इसी संस्कृति के पुनरुद्धार के लिए रचा गया. ऋगवेद में राम का ज़िक्र नहीं मिलता किन्तु विश्मिवामित्र और वशिष्ठ का जिक्र "दसराज्ञ युद्धः " का वर्णन मिलता है. विश्वामित्र राजा सुदास(ऋगवैदिक राजा कुन्बे का निर्वाचित नेता होता था) के पुरोहित थे. सुदास को वशिष्ठ नामक ज्यादा काबिल पुरोहित मिल गये. विश्वामित्र ने नाराज होकर 10 राजाओं को लामबंद करके सुदास पर हमला कर दिया. युद्ध में सुदास विजयी हुए. युद्धोपरांत समझौते में दोनों ही सुदास के पुरोहित बने (राहुल सांकृत्यायन). राम ऐसे समाज का प्रतिनिधि है जिसमें नारियां बहुमूल्य वस्तु की तरह पुरुषार्थ से हासिल की जाती थीं. वहीं शूर्पनखा (वाल्मीकि द्वारा दिया गया नाम) एक ऐसी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है जिसमें नारियां भी एक स्वतंत्र इंसान की तरह प्रणय निवेदन कर सकती थीं, मर्दवादी राम को यह "धृष्टता" बर्दास्त नहीं हुई और उसके नाक-कान कटवा कर पुरुषार्थ का परिचय दिया.
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