Sunday, June 8, 2025

शिक्षा और ज्ञान 372 (तेलंगाना)

 सही कह रहे हैं,तेलंगाना में आत्म समर्पण के लिए राजी माओवादियों को बेरहमी से मार डाला जाना असंवैधानिक है। उन पर भारतीय दंडसंहिता के प्रावधानो के तहत मुकदमा चलाना चाहिए। आदिवासियों और कॉरपोरेट के मामले में भाजपा और कांग्रेस के नजरिए में कोई फर्क नहीं है। जहां माओवादियों के खात्में की खबर छपती है, वहीं बगल में उससे बड़ी खबर आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन का टेंडर किसी बड़े धनपशु (कॉरपोरेट) के नाम खुलने की खबर होती है। धर्मांध सांप्रदायिकता इनका छिपा एजेंडा नहीं है, वह तो खुला एजेंडा है, उसके पीछे का छिपा एजेंडा देश के संसाधन देशी-विदेशी धनपशुओं के हवाले करके आम जनता को भाग्य के हवाले करने का है।

Tuesday, June 3, 2025

बेतरतीब 171 (इमा)

 इमा के नाम की कहानी ज्यादा दिलचस्प है। यह जब पैदा हुई तो नाम सोचने लगा। किसी पत्रिका में यदि दो लेख छपते तो दो बाईलाइन अच्छी नहीं लगती और लिखे का मोह भी नहीं छूटता था, तो छोटे लेख के नीचे, ईश मिश्र का संक्षिप्त रूप ईमि, लिख देता। ईमि की ई को इ कर दिया और मि को मा। इमा हो गया। बाद में पता चला कि कई भाषाओं में इसके अर्थ भी हैं। जब माटी अपनी मां के पेट में थी तो इमा ने कहा कि "दीदी" के बेटी का उन्ही लोगों सा कोई अच्छा सा नाम सोचकर बताऊं। मैंने कहा तुम लोगों का नाम तो बिना सोचे रख दिया था, इसका नाम माटी रख देते हैं। उसने कहा लड़का हुआ तो ढेला? मैंने कहा था तब सोचूंगा। सोचना नहीं पड़ा, माटी ही आ गयी।

Friday, May 30, 2025

शिक्षा और ज्ञान 371 (स्वतंत्रता)

 एक पोस्ट पर कमेंटः


अपने समाज में व्याप्त सामाजिक, सास्कृतिक, आर्थिक , लैंगिक असमानताओं; सांप्रदायिक, जातिवादी पूर्वाग्रह-दुराग्रहों; धर्म, राजनीति तथा कृपापात्र (क्रोनी) पूंजीवाद के गठजोड़ से उत्पन्न विद्रूपताओं के चलते किसी दूसरे देश में रहने की संभावना तलाशना पलायनवाद है। "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?" की बात करना व्यर्थ है, सच यह है कि यह दुनिया हमें मिली हुई है, किसी दूसरी दुनिया मे आशियाना खोजने की दिमागी तसरत की बजाय, जो दुनिया मिली हुई है, उसी में रहते हुए, उसे बेहतर, अधिक वैज्ञानिक, अधिक मानवीय बनाने की कोशिशों में अपना यथासंभव योगदान देते रहना चाहिए? आर्थिक बुनियाद पर खड़ी धार्मिक-सामाजिक विद्वेष को खत्म कर उसकी जगह सौहार्द स्थापित करने की दिशा में हम अपना यथा संभव योगदान दें। मार्क्स ने लिखा है कि मनुष्य अपना इतिहास खुद बनाता है, लेकिन अपनी चुनी हुई नहीं, अतीत से विरासत में मिली परिस्थितियों में। वैसे भी देश के चंद लोग ही दूसरे देशों में पहनाह तलाश कर सकते हैं।

रूसो ने कहा है कि "मनुष्य पैदा स्वतंत्र होता है हर तरफ जंजीरों में जकड़ा होता है"। ("Man is born free and everywhere he is in chains".) वह मनुष्यों का एक ऐसा संघ बनाना चाहता है, जिसमें सब पहले जैसे स्वतंत्र हों । कहने का मतलब स्वतंत्रता प्रकृति प्रदत्त जन्मसिद्ध अधिकार है। परतंत्रताएं सामाजिक हैं। जन्म के संयोग के नाम पर थोपी गयी परतंत्रताएं अप्राकृतिक हैं और अवांछनीय। वास्तविक स्वतंत्रता के लिए धर्म, जाति, लिंह के नाम पर चस्पा की गयी परतंत्रताओं सो मुक्ति पूर्व शर्त है, मुक्ति का प्रयास हमारे हर कृत्य, हर शब्द में दिखना चाहिए।

Thursday, May 15, 2025

बेतरतीब 170 (बचपन)

 Rakesh Mishra Kumar सर की एक पोस्ट पर कमेंट:


हम जब प्राइमरी में पढ़ने गए तो स्कूल में 3 कमरे थे और 3 शिक्षक, रामबरन 'मुंशीजी' हेडमास्टर थे और एक कमरे में वे कक्षा 4-5 को पढ़ाते थे और उनसे जूनियर 'बाबू साहब' थे, वासुदेव सिंह, जो कक्षा 3-4 को दूसरे कमरे में पढ़ाते थे। 'पंडित जी' सीतीाराम मिश्र सबसे जूनियर थे वे कक्षा 1 और गदहिया गोल (अलिफ या प्रीप्रािमरी) को तीसरे कमरे में पढ़ते थे। मुंशीजी पतुरिया जाति के थे। ब्राह्मण शिक्षक को पंडित जी, ठाकुर को बाबू साहब, भूमिहार को राय साहब, मुसलमान को मौलवी साहब तथा कायस्थ समेतअन्य जातियों को मुंशी जी कहा जाता था। पंडित जी ने संख्या (गणित) में मेरी रुचि देखकर गदहिया गोल से एक में कुदा दिया। कक्षा 2 और 3 में बाबू साहब ने पढ़ाया। हम जब कक्षा 3 मे थे तभी मुंशी जी रिटायर हो गए और बाबू साहब हेड मास्टर होकर कक्षा 4-5 को पढ़ाने लगे। नए शिक्षक रमझूराम मुंशी जी दलित जाति के थे। वरीयता क्रम में वे गदहिया गोल और कक्षा 1 को पढ़ाते थे। मुझे न तो रामबरन मुंशी जी ने पढ़ाया न ही रमझूराम मुंशी जी। कक्षा 4 में डिप्टी साहब (एसडीआई) मुाइना करने आए, उन्होंने कक्षा 5 वालों से गणित (अंक गणित) का कोई सवाल पूछा, सब खड़े होते गए। सवाल सरल सा था, कक्षा 5 की टाट खत्म होते ही कक्षा 4 की टाट पर सबसे आगे मैं बैठता था और फटाक से जवाब दे दिया। डिप्टी साहब साबाशी देने लगे तो बाबू साहब ने उन्हें बताया कि मैं अभी कक्षा 4 में था। डिप्टी साहब बोले, इसे 5 में कीजिए। अगले दिन, मैं बड़े भाई की पढ़ी कक्षा 5 की किताबें (भाषा और गणित) तथा एक नई गोपाल छाप क़पी लेकर आया और कक्षा 5 की टाट पर आगे वैठ गया। बाबू साहब ने मुझे वहा से उठकर अपनी पुरानी जगह पर जाने को कहा। मैंने कहा कि डिप्टी साहब ने मुझे 5 में पढ़ने को कहा है। बाबू साहब ने तंज के लहजे में कहा कि "भेंटी पर क बाटा लग्गूपुर पढ़ै जाबा तो सलार पुर के बहवा में बहि जाबा" (छोटे से हो लग्गूपुर पढ़ने जाओगे तो सलारपुर के बाहे में बह जाओगे)। मैंने कहा, "चाहे बहि जाई चाहे बुड़ि जाई, डिप्टी साहब कहि देहेन त हम अब पांचै में पढ़ब" (चाहे बह जाऊं या डूब जाऊंं, डिप्टी साहब ने कह दिया तो मैं अब 5 में ही पढ़ूंगा।) । हमारे गांव से सबसे नजदीक मिडिल स्कूल 7-8 किमी दूर लग्गूपुर था। बहल का गांव सलारपुर है, बरसात में खेत से तालाब में पानी निकासी के नाले को बाहा कहा जाता था। अब न तोसतालाब बचे हैं न ही बाहा। इस तरह मैं एक मौखिक सवाल की परीक्षा से मैं कक्षा 4 से कक्षा 5 में चला गया। मिडिल स्कूल में 2 मौलवी साहब थे, ताहिर अली (हेड मास्टर) और आले हसन; एक बाबू साहब, श्याम नारायण सिंह; एक मुंशी जी (चंद्रबली यादव) तथा एक राय साहब (राम बदन राय)। राय साहब का गांव दूर था, इसलिए स्कूल पर ही रुकते थे। राय ससाहब का पोता दिल्ली विश्वविद्यालय के केएम कॉलेज में पढ़ता था, गांव पता चलने पर पूछा था कि उसके गांव (आजमगढ़ जिले में दुर्बासा के पास) के आसपास के मेरे एक शिक्षक थे तो उसने बताया कि वे जीवित थे और उसके दादा जी थे (2लाल पहले उनका देहांत हुआ)। 2012 में मैं अपनी सपुराल (मेरे गांव से लगभग 35 किमी) से मोटर साइकिल से घर जा रहा था, मुख्य सड़क से अपने गांव मुड़ते समय दिमाग में राय साहब से मिलने की बात आई और मुड़ा नहीं आगे बढ़ गया और वहां सगभग 40 किमी दूर दुर्बासा पहुंचकर घाट पर चाय के साथ पुरानी यादें ताजा करके नए बने पुल से नदी पार कर राय साहब के गांव (पश्चिम पट्टी) पहुंच गया। मैने 1967 में मिडिल पास किया था और ताज्जुब हुआ कि 45 साल बाद भी राय साहब ने बताने पर पहचान लिया और मेरे बारे में उस समय की कई बातें याद दिलाया।

(शिक्षकों के जाति सूचक संबोधन की आप की बातों से नास्टेल्जिया गया)

Wednesday, May 7, 2025

बेतरतीब 169(श्रीगंगानगर)

 एक पोस्ट पर कमेंट


जी सही कह रहे हैं, गठबंधन सरकार सहयोगियों की सहमति के बिना व्यवहारतः नीतिगत फैसला लेने का आत्मघाती फैसला नहीं ले सकती। वीपी सिंह की सरकार ने मंडल कमीसन की सिफारिश लागू करने का आत्मघाती फैसला लिया था और बाहर से समर्थन दे रही भाजपा ने समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा दिया था। इतना ही नहीं मंडल के समानांतर कमंडल राजनीति से देश के भविष्य का राजनैतिक माहौल ही बदल दिया। कांग्रेस भी भाजपा की ही तरह मंडल कमीसन की सिफारिशों के विरुद्ध थी, लेकिन भाजपा की ही तरह सिद्धाततः विरोध नहीं कर सकती थी क्योंकि चुनावी जनतंत्र मूलतः संख्यातंत्र है। अब तो किसी भी पार्टी की सरकार नीतिगत रूप से आरक्षण समाप्त करने का फैसला नहीं कर सकती, निजीकरण और ठेकेदारीकरण, लेटरल एंट्री जैसी नीतियों से उसे निष्प्रभावी जरूर बना सकती है।

सिक्षा और ज्ञान 370 (गठबंधन धर्म)

 एक पोस्ट पर कमेंट


जी सही कह रहे हैं, गठबंधन सरकार सहयोगियों की सहमति के बिना व्यवहारतः नीतिगत फैसला लेने का आत्मघाती फैसला नहीं ले सकती। वीपी सिंह की सरकार ने मंडल कमीसन की सिफारिश लागू करने का आत्मघाती फैसला लिया था और बाहर से समर्थन दे रही भाजपा ने समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा दिया था। इतना ही नहीं मंडल के समानांतर कमंडल राजनीति से देश के भविष्य का राजनैतिक माहौल ही बदल दिया। कांग्रेस भी भाजपा की ही तरह मंडल कमीसन की सिफारिशों के विरुद्ध थी, लेकिन भाजपा की ही तरह सिद्धाततः विरोध नहीं कर सकती थी क्योंकि चुनावी जनतंत्र मूलतः संख्यातंत्र है। अब तो किसी भी पार्टी की सरकार नीतिगत रूप से आरक्षण समाप्त करने का फैसला नहीं कर सकती, निजीकरण और ठेकेदारीकरण, लेटरल एंट्री जैसी नीतियों से उसे निष्प्रभावी जरूर बना सकती है।

शिक्षा और ज्ञान368 (सांप्रदायिकता)

 एक पोस्ट पर कमेंट:


बिल्कुल सही कह रहे हैं, औपनिवेशिक काल के पहले ही शिल्प उद्योग, व्यापार और मुद्रा लगान तथा कस्बाई एवं ग्रामीण बाजार के विस्तार और सूफी एवं निर्गुण भक्ति आंदोलन से उपज रही सांस्कृतिक सामासिकता की प्रतिक्रिया में तुलसी आदि के वर्णाश्रमी पुनरुत्थानवाद और अहमद सरहिंदी के दारुलइस्लामी आंदोलन द्वारा धार्मिक विभाजन रेखा खिंचने लगी थी। 1857 के सशस्त्र क्रांते से बौखलाए औपनिवेशिक शासकों ने उपनिवेश-विरोधी आंदोलन की विचारधारा के रूप में उभरते भारतीय राष्ट्रवाद को खंडित करने के लिए इस विभाजन रेखा को बांटो-राज करो की नीति की धुरी बनाकर सांप्रदायिकता को आकार देना शुरू किया और हिंदू-मुस्लिम, दोनों प्रमुख समुदायों में उसे इसके एजेंट मिल गए। सांप्रदायिक उन्माद के रक्तपात से देश का बंटवारा हुआ जिसके घाव नासूर बन न जाने कब तक रिसते रहेंगे तथा सरहद के दोनों पार सांप्रदायिक फासीवादी राजनीति को ईंधन-पानी देते रहेंगे।

Thursday, April 17, 2025

मार्क्सवाद 351 (समाजवाद)

 लोहिया-जेपी मार्का सोसलिस्टों के बारे में तुम्हारे मंतव्य से पूरी तरह सहमत होते हुए, एक तथ्यात्मक सुधार इंगित करना चाहता हूं, दूसरे विंदु में तुमने लोहिया के बारे में लिखा है, 'उन्होंने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सम्मेलन में यह कहा कि यदि संघ फासिस्ट है, तो मैं भी फासिस्ट हूं।' यह बात लोहिया ने नहीं, 1975 में, आरएसएस के स्वयंसेवकों को अपरिभाषित, अमूर्त, तथाकथित संपूर्ण क्रांति के सिपाही के रूप में चिन्हित करते हुए, तथाकथित लोकनायक(जय प्रकाश नारायण) ने जनसंघ के सम्मेलन में यह कहा था कि यदि संघ फासिस्ट है, तो मैं भी फासिस्ट हूं।' 1960 के दशक में लोहिया ने अपने गैरकांग्रेसवाद की सनक और नेहरू से बराबरी करने की हीन भावना के चलते आरएसएस के विचारक दीनदयाल उपाध्याय से राजनैतिक समझौता कर आरएसएस को सामाजिक सम्मानीयता प्रदान करने का काम किया तथा 1970 के दशक में जेपी ने आरएसएस कोअपनी संपूर्ण क्रांति का प्रमुख सहयोगी बनाकर वही काम किया। 1934-42 जेपी के राजनैतिक जीवन का सर्वाधिक सकारात्मक काल था, उसके बाद वे सर्वोदयी दलविहीनता से संपूर्ण क्रांति की नारेबाजी तक आजीवन राजनैतिक दुविधा के शिकार रहे। लोहिया तो पूंजीवाद और साम्यवाद को समान स्तर पर रखकर इसलिए विरोध करते थे कि दोनों यूरोप से आए हैं, जब मजदूर, किसान, संस्कृतिकर्म तथा छात्र मोर्चों पर संयुक्त मोर्चे बन रहे थे तो अशोक मेहता और मीनू मसानी के साथ लोहिया टॉर्च-खुरपी लेकर कम्युनिस्ट कॉन्सिपिरेसी तलाश रहे थे।

मार्क्सवाद 350 (अस्मिता की राजनीति)

 Dayaa Shanker Mani Tripathi मार्क्सवाद वस्तुनिष्ठ यथार्थ का संज्ञान लेकर ही उसका जनपक्षीय विश्लेषण करके ही स्टैंड तय करता है। कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में मजदूरों की एकता का मार्क्स-एंगेल्स का नारा मूल रूप से, 'सभी देशों के मजदूरों एक हो' है। मजदूरों की एकता राष्ट्रीय स्तर पर ही शुरू होकर अंतरराष्ट्रीयता की तरफ अग्रसर होगी। विकास के क्रम में मध्यकालीनता से आधुनिक राष्ट्रराज्य में संक्रमण के दौरान राष्ट्रवाद सत्ता की वैधता की विचारधारा के रूप में उभरा। पूंजी का चरित्र इस अर्थ में भूमंडलीय है कि वह न तो स्रोत के मामले में भू(राष्ट्र)केंद्रिक (Geocentric) है न निवेश के मामले में। अमेरिकी पूंजीपति को अमेरिका में उत्पादन मंहगा पड़ता है इसलिए वह उत्पादन इंडोनिशिया या इंडिया में स्थांतरित करता है। अंबानी को सरकारी कृपा से मिले स्टेटबैंक के लोन का निवेश ऑस्ट्रेलिया के कोयला खदानों में ज्यादा फायदेमंद है तो भारत से लेकर वह पैसा वहां लगाएगा। वास्तविक अर्थों में चूंकि पूंजी का कोई देश नहीं होता तो मजदूर का भी कोई देश नहीं होता। अमेरिकी शोध संस्थानों में भारतीय शोधार्थी की उपयोगिता ज्यादा होगी, तो अमेरिकी शोधार्थी की बजाय उसे ही तरजीह देगा और उसकेलिए भी भारत की तुलना में वहां ज्यादा सुविधाएं मिलेंगी तो वह उसे ही तरजीह देगा। अस्मिता के कई स्तर हैं, जिसका केंद्रविंदु इंसानी अस्मिता है औॅर वाह्य परिधि भूमंडलीय। दरअसल गांधी की सामुद्रिक वृत्त की राजनैतिक प्रणाली की ही तरह वैयक्तिक अस्मिता की भी सामुद्रिक वृत्तीय प्रणाली है, कब किस अस्मिता को तरजीह देनी चाहिए वह संदर्भ और परिस्थितियों पर निर्भर करता है, लेकि हर व्यक्ति की मौलिक अस्मिता इंसानी अस्मिता है। स्त्री या पुरुष के रूप में जन्मना जीववैज्ञानिक संयोग की अस्मिता है, इसलिए हम पहले इंसान हैं, तब स्त्री या पुरुष। लेकिन सामाजिक चलन में होता उल्टा ही है। उसी तरह हम पहले इंसान हैं तब हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी, अफगानी और अमेरिकी। सैन्यकर्म को प्रायः राष्ट्रीय अस्मिता के मानक के रूप में गौरवान्वित किया जाता है लेकिन सैनिक की राष्ट्रीय से पहले नौकरी की अस्मिता होती है। चौथी शताब्दी ईशापूर्व सिकंदर मक्दूनी सेना के बल पर अन्य यूनानी नगर राज्यों को रौंदता हुआ आगे बढ़ा तो उसकी सेना में विजित नगर राज्यों के सैनिक भी शामिल करके यूनानी सेना के साथ इरान को परास्त किया और पराजित फारस (इरान) के सैनिक भी यूनानी सैनिक हो गए और सिंध पर विजय के बाद सिंधी सैनिक भी यूनानी सैनिक हो गए। जलियांवाला बाग हत्याकांड में सैनिकों को आदेश देने वाला ब्रिगेडियर डायर ही अंग्रेज था लेकिन निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने वाले सैनिक तो हिंदुस्तानी ही थे। 15 अगस्त 1947 की आधी रात के पहले भारतीय सेना के सैनिक अंग्रेज अधिकारियों के आदेश से हिंदुस्तानी आवाम पर हमला करते थे, रात के 12 बजते ही उनकी निष्ठा बदल गयी। अस्मिताओं के स्तर का मामला जटिल है, लेकिन जाति-धर्म की अस्मिता थोपी हुई मिथ्या चेतना है, जिससे मुक्ति का निरंतर प्रयास करना चाहिए।

Sunday, April 6, 2025

लल्लापुराण 334 (पुनर्परिचय)

 पुनर्परिचय

भाग 1 वैसे तो इस ग्रुप में बहुत सालों से आता-जाता रहा हूं या यों कहें कि बुलाया-निकाला-बुलाया जाता रहा हूं, इसलिए एकाधिक बार व्यक्तित्व के अलग-अलग कुछ पहलुओं का परिचय दे चुका हूं। इस बार बिनबुलाए खुद आया हूं, तो दुबारा परिच देना तो बनता ही है। इस ग्रुप के बहुत से लोग मेरा नाम देखते ही वामपंथ को गालियां देने लगते हैं। तो यहीं से नया परिचय शुरू करता हूं। जी हां, वामपंथ के संकीर्णतावादी यथास्थितिवाद (दक्षिणपंथ) के विरुद्ध जनपक्षीय, विवेकसम्मत परिवर्तनकामी विचारधारा के व्यापक अर्थों में मेैं वामपंथी हूं, किसी स्थापित पार्टी के सदस्य के रूप में नहीं। अतीत में विश्वविद्यालय और नौकरियों की तरह पार्टियों से भी निकलता निकाला जाता रहा हूं। शुरुआत 18 साल की उम्र में एबीवीपी छोड़ने से हुई। इसलिए किसी पार्टी को जब वाजिब गाली दी जाती है तो मुझे नहीं खलता लेकिन पढ़े-लिखे लोगों के समूह में सड़कछाप भाषा में गाली-गलौच बुरी लगती है और वामपंथ की परिभाषा या भाषा की तमीज का स्रोत पूछ देता हूूं, जिससे लोग नाराज हो जाते हैं। अतीत में एकाध बार मैंने वामपंथ पर सार्थक विमर्श का प्रयास किया जिसमें Raj K Mishra ने ही ईमानदारी से भागीदारी की। उन्होंने पोस्ट-कमेंट्स संकलित कर अपने ब्लॉग में भी सेव किया था। इस बार ऐसा कोई विमर्श शुरू करने का इरादा नहीं है, जारी विमर्शों में हल्के-फुल्के कमेंट्स तक ही सीमित रहने की सोच कर आया हूं। असह्य अशिष्ट भाषा में निजी आक्षेप वालों का जवाब देने की बजाय उनसे पारस्परिक अदृष्यता की नीति अपनाऊंगा। मेरा धुर दक्षिणपंथ (एबीवीपी/RSS) से सैद्धांतिक वामपंथ (मार्क्सवाद) में संक्रमण प्रमुखतः किताबों के जरिए हुआ और कट्टर कर्मकांडी ब्राह्मण बालक से प्रमाणिक नास्तिक में हर बात पर सवाल करते हुए जीवन के अनुभवों से, जिसे मुहावरे की भाषा में बाभन से इंसान बनना कहता हूं। इस मुहावरे का मतलब जन्म की संयोगात मिली अस्मिता से ऊपर उठकर एक विवेकसम्मत अस्मिता अख्तियार करना। बाकी भाग 2 में जारी।

Wednesday, April 2, 2025

बेतरतीब 186 (गोर्की)

 मैंने प्रॉग्रेस प्रकाशन (मॉस्को) से प्रकाशित गोर्की का उपन्यास 'मदर' 1973-74 में इलाहाबाद में यूनिवर्सिटी रोड के पास पीपीएच (पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस) की दुकान से 8-10 आने (या ऐसा ही कुछ) में खरीदा था विज्ञान का विद्यार्थी था, साहित्यिक विज्ञान के बारे में जानकारी नहीं थी, 1975 दिसंबर तक पढ़ना टालता गया। जाड़े की छुट्टियों में घर जाते समय साथ ले गया और रास्ते में बस में ही पढ़ना शुरू किया, कथानक, जगहें और पात्र विदेशी होने के बावजूद अपरिचित नहीं लगे। 2016 में (40-41 साल बाद) पलटने के लिए फिर उठा लिए और आदि से अंत तक पढ़ गया तथा लगा पहली बार पढ़ रहा हूं। महान रचनाएं जितनी भी बार पढ़ी जाएं, हमेशा लगता है जैसे पहली बार पढ़ रहे हैं। सभी रचनाएं समकालिक होती हैं, महान रचनाएं सर्वकालिक (कालजयी) होती है। पढ़ना खत्म ही किया था कि रोहित बेमुला की शहादत के विरुद्ध आंदोलित जेएनयू पर सरकारी हमले के विरुद्ध आंदोलन छिड़ गया। 14 या 15 फरवरी की बात होगी घऱ के बगीचे में जेएनयू पर लेख लिखने बैठा ही था कि पता चला उस दिन जेएनयू में कैंपस पर हमले के विरुद्ध मानव श्रृंखला (ह्यूमन चेन) प्रतिरोध का आयोजन है तो एक बार लगा कि एक की संख्या का ही तो फर्क है, लेख ही पूरा कर लूं। फिर लेनिन की स्टेट एं रिवल्यूसन की पोस्ट स्क्रिप्ट याद आई, 'क्रांति में भागीदारी उसके बारे में लिखने से अधिक सुखद है तथा लैपटॉप बंद कर मोटर सािकिल में किक मारा और जेेनयूूू पहुंच गया और पाया बहुत से समकालीन जेेनयआइट्स दूर-दराज से आए हैं, लगा कि न आता तो जीवन भर पश्चाताप रहता। लेख की शुरुआत गोर्की की मां के ही संदर्भ से किया। कन्हैयाऔर उमर की मांओं में मुझे पॉवेल की मां दिखी। कालजयी मां के कालजयी लेखक गोर्की को सलाम।


https://ishmishra.blogspot.com/2016/04/blog-post_19.html

https://ishmishra.blogspot.com/2016/03/blog-post_7.html

Monday, March 31, 2025

शिक्षा और ज्ञान 367 ( हिंदुस्तानी)

 उर्दू (और हिंदी) का विकास फारसी से नहीं, हिंदी की पूर्ववर्ती उत्तर भारतीय भाषाओं, विशेष रूप से ब्रज से बाजारू कामकाज की भाषा के रूप में हुआ, जिसकी लिपि फारसी थी। गौरतलब है कि काफी समय तक पंजाबी की लिपि भी फारसी थी। ब्रज (खड़ी बोली) के व्याकरण और वाक्य-संरचना (Grammer and syntax) के आधार पर दकनी (दक्षिणी) हिंदी के रूप में इसकी शुरुआत हुई जिसमें अरबी, फारसी, अवधी भोजपुरी, पंजाबी आदि भाषाओं के बातचीत में इस्तेमाल होने वाले प्रचलित शब्द जुड़ते गए, जैसा कि हर विकासशील भाषा के साथ होता है। दक्षिणी हिंदी कालांतर में हिंदुस्तानी बन गयी , जो फारसी लिपि में लिखने पर उर्दू और नागरी लिपि में लिखने पर हिंदी कहलाने लगी। 1919 के कांग्रेस अधिवेसन में गांधी जी ने उत्तर भारत में बोली जाने वाली तथा क्रमशः फारसी एवं नागरी में लिखी जानी वाली हिंदुस्तानी को अखिल भारतीय संपर्क भाषा के रूप अपनाने का प्रस्ताव पेश किया था। कांग्रेस में संस्कृतनिष्ठ भाषा के पैरोकारों ने हिंदुस्तानी को हिंदी-उर्दू में विभाजित कर हिंदी का समर्थन किया। इस तरह भाषा के सांप्रदायिककरण की प्रक्रिया शुरू हुई। 1948 में गांधी की हत्या हो गयी।1949 में संविधान सभा जब राष्ट्रीय संपर्क भाषा के मुद्दे पर मतदान हुआ तो हिंदुस्तानी और हिंदी के पक्ष में बराबर मत पड़े और अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद के कास्टिंग वोट से हिंदी के पक्ष में फैसला हुआ।लेकिन जो हिंदी या उर्दू हम या पाकिस्तानी बोलते हैं, वह दरअसल हिंदुस्तानी ही है जो नागरी लिपि में हिंदी हो जाती है और फारसी लिपि में उर्दू।

Saturday, March 29, 2025

न्याय की मूर्ति

 न्याय मूर्ति वर्मा को बदनाम करने की सजिश की गयी है, वैसे ये नोटों की गड्डियों से न्याय देवी की मूर्ति बनाने का उपक्रम कर रहे थे, लेकिन आग ने साजिश कर दी और नोटों पर अग्निशमन विभाग की नजर पड़ गयी। प्राण प्रतिष्ठा के लिए स्थापित होने के पहले ही मूर्ति की सामग्री में आग लगा दी गयी। साजिश करता न्यायमूर्ति के आवास में घुसपैठ कर गया। यदि भ्रष्टाचार के आरोप में कुछ सच्चाई होती तो सर्वोच्च न्यायालय एपआईआर दर्ज करने की अपील क्यों खारिज करता? अदालत की अवमानना का डर न होता तो साजिशकर्ता भारत के मुख्य न्यायाधीश की मलीभगत का भी इशारा कर देता। न्यायमूर्तियों के खिलाफ इस तरह की साजिशों को रोका न गया तो आमजन का न्यायलयों से विश्वास ही उठ जाएगा। वैसे लगता है इलाहाबाद के जजों को साजिशकर्ताओं ने चिन्हित कर लिया है। इसके पहले एक न्यायमूर्ति मिश्र जी कोबदनाम करने के लिए उनके फैसले को तोड़-मरोड़ कर बलात्कार समर्थक बना दिया।

Tuesday, March 25, 2025

मार्क्सवाद 349 (लोहिया)

 लोहिया हमेशा दुविधा तथा नेहरू को लेकर सापेक्ष हीनग्रंथि के शिकार रहे। आज आरएसएस की गोद में खेलने वाले समाजवादी लोहिया की ही विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। जब सीएसपी के परचम के तले कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट संयुक्तमोर्चा के तहत मजदूर-किसान-छात्रों की लामबंदी कर रहे थे तब लोहिया, मीनू मसानी और अशोक मेहता के साथ टॉर्च-खुरपी लेकर कम्युनिस्ट कॉन्सपिरेसी खोद रहे थे। सांप्रदायिकता की समझ इतनी खोखली थी कि कांग्रेस के विरुद्ध आरएसएस के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए दीनदयाल उपाध्याय से समझौता किया और सांप्रदायिकता को सामाजिक स्वीकृति हासिल कराने में सहायक बने। 1960 के दशक में सांप्रदायिकता को सम्मान दिलाने में जो काम लोहिया ने किया था, 1970 के दशक में राजनैतिक अप्रासंगिकता का संकट झेल रहे जेपी ने आरएसएस को तथाकथित संपूर्ण क्रांति का सिरमौर बनाकर, उसे आगे बढ़ाया। इन दोनों लोगों की नीयत और ईमानदारी पर संदेह किए बिना कहा जा सकता है कि इनके सहयोग के बिना सांप्रदायिक फासीवाद इस मुकाम तक नहीं पहुंच सकता था।

Friday, March 21, 2025

लल्ला पुराण 333 (औरंजेब)

 किसी ने एक पोस्ट में लिखा कि भारत में औरंगजेब के बहुत 'मनई' हैं, मैंने कहा कि उसके पास 'मनई' की कमी कभी नहीं रही, सारे राजपूत और मराठे उसके दरबारी थे, उन्होने पूछा, तब औरंगजेब को महान मान लिया जाए? उस पर:


मैंने तो ऐसा नहीं कहा कि औरंगजेब महान था। . पूर्व आधुनिक (pre modern) इतिहास में जब राज्य की स्थापना और विस्तार में तलवार की भूमिका अहम होती थी तब अधिक रक्तपात करने वाले राजा को महान मान लिया गया है चाहे वह सिकंदर हो या अशोक; समुद्रगुप्त या नैपोलियन। मैं सिर्फ यही कहना चाहता हूं कि इतिहास की किताब से एक पन्ना फाड़कर न पढ़ें। औरंगजेब जैसा भी था महान या कमीना उसके दरबारी कारिंदे भी वैसे ही थे। और ऐतिहासिक तथ्य है कि उसके ज्यादातर मनसबदार, जागीरदार तथा सैनय अधिकारी राजपूत और मराठे थे। शिवाजी के विरुद्ध युद्ध में औरंगजेब के सेनापति राजा जय सिंह थे। अकबर के समय राजपुताने के एक राजा, मेवाड़ के राणाप्रताप मुगल सल्तन की अधीनता न स्वीकार कर विरोध में लड़ते रहे. औरंगजेब के समय तो राजपुताने का एक भी रजवड़ा मुगल सल्तनत की अधीनता से बाहर नहीं था। राणाप्रताप के वंशज भी मुगल दरबारी बन गए थे। ऐसा तो नहीं हो सकता कि राजा कमीना था और उसके प्रशासन के सभी स्तंभ महान!! मैं केवल यही कह रहा हूं कि राजा के कारिंदों का राजनैतिक चरित्र वैसा ही होता है, जैसा उनके आका का। ऐसा कहना दोगलापन है कि उसका सेनापति राजा जय सिंह महान था लेकिन औरंगजे कमीना था। मैं केवल यही कहना चाहता हूं कि राजनीति में मामला सत्ता और मलाई का होता है , हिंद-मुसलमान का नहीं। औरंगजेब की सेना में ज्यादातर बड़े सेना अधिकारी राजपत और मराठे थे और शिवाजी की सेना में की अहम पदों पर मुसलमान थे। सांप्रदायिकता आधुनिक विचारधारा है ऐतिहासिक नहीं। धार्मिक राष्ट्र्र्रवाद की विद्रूप अवधारणा पर आधारित सांप्रदायिक विचारधाराएं, औपनिवेशिक पूंजी की कोख से जन्मी जु़ड़वा औलादें हैं।

Thursday, February 13, 2025

शिक्षा और ज्ञान 366 (जनतंत्र)

 राजनैतिक हताशा की किसी की पोस्ट पर एक कमेंट का जवाब:


कभी कभी आक्रोश में ऐसी ही प्रतिक्रिया दिमाग में आती है कि यह जनता इसी लायक है, उसे ऐसा ही शासन चाहिए लेकिन जनता ऐसे क्यों है? हम मार्क्सवादी इस जनतंत्र को पंजीवादी (बुर्जुआ) जनतंत्र कहते हैं, लेकिन मार्क्सवाद के नाम पर चुनावी राजनीति करने वाली पार्टियों ने जनता की सोच/चेतना बदलने के लिए क्या किया? सीपीआई/सीपीएम तथा बुर्जुआ चुनावी पार्टियों में कोई गुणात्मक फर्क ही नहीं बचा है.। मार्क्स ने कहा है कि शासक वर्ग के विचार सासक विचार भी होते हैं, पूंजीवाद माल के साथ विचारों का भी उत्पादव करता है तथा सामाजिक उत्पादन के हर चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्वरूप और चरित्र भी होता है , परिवर्तन के लिए जरूरी है सामाजिक चेतना का जनवादीकरण यानि क्रांतिकारी (वर्ग) चेतना का संचार। सामाजिक चेतना के जनवादीकरणि के लिए जरूरी है, जाति-धर्म आदि के नाम पर अस्मिता राजनीति की मित्या चेतना से मुक्ति। हिंदुत्व फासीवाद 3ाह्ममवाद की ही राजनैतिक अभिव्यक्ति है। सामाजिक चेतना के जनवादीकरण का काम कम्युनिस्ट पार्टियों का है, जिसमें वे पूरी तरह असफल रहीं। लेकिन इतिहास का यह अंधकार युग अस्थाई है। फासीवादी ताकतें शिक्षा के विकृतीकरण से सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की धार कुंद करने के हर संभव प्रयास कर रही हैं, ज्ञान के कुओं को धर्म की अफीम से पाट ररही हैं। लेकिन अदम गोंडवी के शब्दों में. "ताला लगा के आप हमारी ज़बान को , कैदी न रख सकेंगे जेहन की उड़ान को।" हर निशा एक भोर का ऐलान है, हर अंधे युग का अंत देर-सबेर होता ही है।

शिक्षा और ज्ञान 367 (गुलाम बौद्धिकता)

 कृष्णमोहन की पुस्तक 'गुलाम बौद्धिकता'के संदर्भ में Gyan Prakash Yadav की पोस्ट पर कमेंट:


क्या संयोग है कि मैंने भी यह पुस्तक, 'गुलाम बौद्धिकता' पिछले साल मेले में ही खरीदी थी। ज्यादातर शैक्षणिक नौकरियां शिक्षणेतर कारणो (extra academic consideraions) से मिलती हैं, साथ में शैक्षणिक सक्षमता भी होना, अतिरिक्त योग्यता है। ऐसे में तमाम लुच्चे-लफंगे प्रवृत्ति के लोगों का प्रोफेसर होना आश्चर्यजनक नहीं लगना चाहिए। नाम में मिश्र के पुछल्ले के बावजूद मैंने दिल्ली एवं अन्य विश्वविद्यालयों में 14 साल इंटरविव दिए। 1984 में इलाहाबाद विवि में मेरा इंटरविव एक घंटे से अधिक चला, 6 पद थे, मैं सोचने लगा था कि गंगापार नया नया धूसी बन रहा था वहां घर देखूं या गंगा इस पार तेलियर गंज में, हा हा। उसके कुछ साल बाद तत्कालीन कुलपति कहीं टकरा गए और बताए कि मेरे इंटरविव से वे इतने प्रभावित हुए थे कि तमाम तर के बावजूद वे मेरा नाम पैनल में सातवें लंर पर रखवा पाए थे। 6 पद थे तो 7वें पर रखें या सत्तरवें पर? जब कोई कहता था कि मुझे नौकरी देर से मिली तो मैं कहता था कि सवाल उल्टा है, मिल कैसे गयी?

Monday, February 3, 2025

शिक्षा और ज्ञान 365 (इतिहास का गतिविज्ञान)

 इतिहास का गतिविज्ञज्ञान अपनी रफ्तार और दिशा अपनी गति की प्रक्रिया में खुद तय करता है, उसके लिए पहले से कोई टाइमटेबल नहीं बनाया जा सकता। हमारे छात्रजीवन से अब तक के परिवर्तनों की 60 साल पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, लड़कियों को पढ़ने के लिए लड़ना पड़ता था, आज लड़ने के लिए पढ़ रही हैं।

कुछ नहीं कुछ नहीं होता

 न सोचने से किसी विचार का जन्म नहीं होता,

न सोचने से किसी विचार का जन्म नहीं होता,
इसलिए सोचताहूं

न लिखने से भी कुछ नहीं होता,
इसलिए लिखता हूं
न बोलने से भी कुछ नहीं होता,
इसलिए बोलता हूं
न पढ़ने से भी कुछ नहीे होता,
इसलिए पढ़ लेता हूं
न करने से भी कुछ नहीं होता
इसलिए कुछ-न-कुछ करता रहता हूं
वैसे तो कुछ भी कुछ नहीं होता
उसी तरह जैसे नामुमकिन जिंदा आदमी का कुछ न करना
न सोचने, न लिखने, न बोलने, न पढ़ने, न करने से भी कुछ नहीं होता
इसलिए सोचता, लिखता, पढ़ता, बोलता और करता रहता हूं
ये सब इस उम्मीद में करता रहता हूं कि हो सकता है कुछ हो ही जाए।
(ईमि: 03.02.2025)

Sunday, January 26, 2025

शिक्षा और ज्ञान 364(धर्म और राजनीति)

  नवनिर्वाचित अमेरिकी राषटरपति को चर्च के बिशप द्वारा नसीहत की Premkumar Mani जी की पोस्ट पर कमेंट:


धर्म के चंगुल से राजनीति की मुक्ति यूरोपीय नवजागरण क्रांति की एक उपलब्धि थी। आधुनिक राजनैतिक दर्शन की बुनियाद रखते हुए इस युग के राजनैतिक दार्शनिक मैक्यावली ने धार्मिक आचार संहिता से स्वतंत्र रजनैतिक आचार संहिता की हिमायत की। आचार संहिताओं के मूल्यों में टकराव की स्थिति में उसने समझदार प्रिंस को धार्मिक आचार संहिता पर राजनैतिक आचार संहिता को तरजीह देने की हिमायत की। प्रबोधन (एनलाइटेनमेंट) क्रांति ने ईश्वर को इहलौकिक क्रियाकलापों के निर्धारण से मुक्त कर दिया। आधुनिक राज्य के आधुनिक, उदारवादी राजनैतिक दर्शन ने सत्ता के श्रोत के रूप में ईश्वर की अमूर्त अवधारणा की जगह 'हम लोग' की अमूर्त अवधारणा ने ले ली और सत्ता की विचारधारा के कूप में धर्म की जगह राष्ट्रवाद ने ले ली। ऐसे में संविधान की जगह ईश्वर के नाम पर राजनैतिक शपथ लेना या चर्च या मंदिर जाकर राजनैतिक दायित्व निभाने के लिए ईश्वर की अभ्यर्थना प्रतिगामी राजनैतिक कृत्य है। वैसे आप की बिशप के साहस की बात से सहमत हूं। जहां ज्यादातर धार्मिक गुरू और साधू-संत सत्ता की कृपा-पात्रता और सरकारी नीतियों के महिमामंडन के कुकृत्यों में संलग्न हों ऐसे में चर्च के बिशप द्वारा महाबली अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को प्रवासियों और थर्ड जेंडर जैसे मुद्दों पर उनकी नीतियों के विरुद्ध नशीहत देना वाकई साहस का काम है। साहस को सलाम, देखिए ट्रंप ईश्वरके प्रतिनिधि की सलाह मानता है कि नहीं?

Saturday, January 25, 2025

मार्क्सवाद 348 (गणतंत्र दिवस)

 गणतंत्रदिवस की एक पोस्ट पर कमेंट:


76वें गणतंत्र दिवस की बधाई। भारत की आजादी की लड़ाई कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ी गयी, इस बात को नकारना इतिहास को नकारना है। इस लड़ाई में, एचआरए--एचएसआरए के परचम तले क्रांतिकारियों की बलिदानी भूमिका प्रकारांतर से लड़ाई को बल प्रदान करने वाली रही है। हिंदू महासभा और आरएसएस ही नहीं, मुस्लिम लीग और जमाते इस्लामी भी उपनिवेशविरोधी आंदोलन के विरुद्ध औपनिवेशिक शासन के साथ थे । दरअसल भारत में सांप्रदायिकता औपनिवेशिक रचना है। बहादुर शाह जफर के प्रतीकात्मक नेतृत्व में, विद्रोही सैनिकों के सहयोग से 1857 की किसानों की सशस्त्र क्रांति ने औपनिवेशिक शासन की चूलें हिला दी थीं और औपनिवेशिक शासक और भारतीयों की ऐसी एकताबद्ध सशस्त्र क्रांति की पुनरावत्ति की आशंका से आतंकित थे और सुरक्षा कवच के रूप में औपनिवेशिक प्रशासक एओ ह्यूम की अगुवाई में अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों के संगठन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन करवाया जो कालांतर में उपनिवेश विरोधी आंदोलन का प्रभावी मंच बन गई। कई बार अनचाहे उपपरिणाम लक्षित परिणाम को धता बताते हुए स्वतंत्र लक्ष्य बन जाते हैं। औपनिवेशिक शासकों की मनसा से स्वतंत्र कांग्रेस उपनिवेशविरोधी स्वतंभत्रता आंदोलन का प्रमुख मंच बन गयी। कांग्रेस के नेतृत्व में उपनिवेश विरोधी आंदोलन की विचारधारा के रूप में भारतीय राष्टवाद का विकास शुरू हुआ। इस ऐतिहासिक परिघटना ने औपनिवेशिक शासकों की नींद हराम कर दी। इसे तोड़ने के लिए उन्होंने बांटो-राज करो की नीति को तहत धार्मिक भिन्नता को हवा देते हुए धार्मिक राष्ट्रवाद की परिकल्पना की। भारत के दोनों प्रमुख समुदायों से उसे सहयोगी मिल गए जिन्होंने औपनिवेशिक प्रश्रय में भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध क्रमशः हिंदू राष्ट्र्रवाद और मुस्लिम राष्ट्रवाद के परचम फहराया और अंततः भारतीय राष्ट्र और भारतीय राष्ट्रवाद को खंडित करने में सफल रहे। 1947 में खंडित स्वतंता मिली और विखंडन के घाव नासूर बन अभी तक टपकसरहे हैं। भारत का मौजूदा सांप्रदायिक फासीवाद उसी नासूर की रिसन है। कम्युनिस्टों के स्वतंत्रता आंदोलन के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ देने की बात मिथ और दुष्प्रचार है। द्वितीय. विश्वयुद्ध में फासीवादी मोर्चे के विरोधी मोर्चे का साथ देना कम्युनिस्ट पार्टी की रणनीतिक भूल थी जिसे बाद में पार्टी ने स्वीकार किया। वैसे भी फासीवादी साम्राज्यवाद और संवैधानिक (औपनिवेशिक) साम्राज्यवाद में चुनाव का फैसला मुश्किल फैसला था। कम्युनिस्ट पार्टी एकमात्र पार्टी थी जिस पर पूरी पार्टी पर दो मुकदमे हुए और सारे कम्युनिस्ट जेल में डाल दिए गए थे। आज संकट फिर से सांप्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध भारतीय राष्ट्रवाद की सुरक्षा है। आप सबको 76वां गणतंत्र दिवस मुबारक हो।

Tuesday, January 21, 2025

शिक्षा और ज्ञान 363 (उर्दू--देवनागरी)

 उर्दू को नागरी लिपि में लिखने की हिमायत की एक पोस्ट पर कमेंट:


हिंदी के जाने-माने साहित्यकार Asghar Wajahat हिंदी-उर्दू को रोमन लिपि में लिखने के पैरवीकार हैं, मैं इसे अनुचित मानता हूं, उसी तरह उर्दू को देवनागरी में लिखने को भी अनुचित मानता हूं। नव-उदारवाद विविधता को समाप्त कर एकरूपता का हिमायत करता है। विविधता के सौंदर्यशास्त्रीय पक्ष छोड़ भी दें तो ऐतिहासिक रूप से भाषा-लिपि की एकरीपता का प्रयास ऐतिहासिक विस्तारवाद और छोटी-बड़ी मछली की कहावत चरितार्थ करती है। यूरोपीय देशों में प्रमुख भाषाएं स्थानीय भाषाओं को निगल गयीं। गांधीजी ने 1919 में करांग्रेस अधिवेशन में हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय संपर्क की भाषा बनाने का प्रस्ताव पेश किया था। हिंदुस्तानी का मतलब उत्तर भारत में बोली जाने वाली भाषा, जिसेकुछ लोग नागरी लिपि में लिखते हैं और कुछ लोग फारसी में। दोनों ही पक्षों के शुद्धतावादी, संकीर्णतावादियों ने इसका विरोध किया था। हिंदी शुद्धतावादी खड़ी बोली के रूप में विकसित हो रही हिंदी को संस्कृतनिष्ठ बनाने के पक्षधर थे और बाजार की भाषा के रूप में विकसित उर्दू में फारसी और अरबी के शब्द घुसेड़ने के। दक्षिण भारत समेत गैर हिंदी भाषी प्रांतो के ज्यादातर प्रतिनिधि गांधीजी के प्रस्ताव के समर्थक थे। 1949 में हिंदी-हिंदुस्तानी के मुद्दे पर संविधान सभा के मतदान में दोनों पक्षों में बराबरी का मामला था।राजंद्र प्रसाद के अध्यक्षीय मत ने पलड़ा हिंदी के पक्ष में भारी कर दिया। हमें दूसरी भाषाओं के प्रचलित शब्दों को ग्रहण करके हिंदीहिंदुस्तानी को समद्ध करना चाहिए। पाजामा-चश्मा जैसे तमाम शब्दों के संल्कृतनिष्ठ समतुल्य ढूंढ़ने की बजाय उन्हें को जस-का-तस स्वीकार कर लेना चाहिए। भाषा का सांप्रदायिक विभाजन भी समाज के सांप्रदायिक विभाजन में मददगार रहा है। मैंने तो बांगला और उर्दू लिखना लिपि की कलात्मक (कैलीग्राफिक) संरचना के चलते सीखा था और उर्दू लिपि सीखने के बाद नई खरीदी किताबों पर उंग्रेजी के आई को उर्दू का अलिफ बनाकर दाएं-बाएं दोनों तरफ से ईश लिखता था। मेरी निजी राय में बचे-खुचे उर्दू वालों पर लिपि का दबाव नहीं डालना चाहिए, लिप्यांतर की सुविधा गूगल ने दे ही रखा है।

Sunday, January 19, 2025

मार्क्सवाद 347 (सर्वहारा की मुक्ति)

 एक पोस्ट पर एक कमेंट


स्वतंत्रता के ही नहीं किसी भी हक के एक एक इंच के लिए लड़ना पड़ता है, खैरात में केवल भीख ही मिलती है। जब मजदूर वर्ग वर्गचेतना लैस होकर संगठित होकर खुद को 'अपने आप नें वर्ग' से 'अपने लिए वर्ग' में तब्दील करेगा तो खुद की स्वतंता की लड़ाई खुद लड़ेगा और सर्वहारा की मुक्ति में ही मानव मुक्ति निहित है। सर्वहारा अपनी मुक्ति यानि मानव मुक्ति की लड़ाई लड़ेगा ही और जीतेगा भी। इसके लिए कोई टाइमटेबुल नहीं तय किया जा सकता। हजारों सालों की गुलामी तोड़ने में बहुत समय और ऊर्जा लगती है। सवाल पूछा जाता है कि मजदूर या सर्वहारा कौन है? जवाब है कि शारीरिक या बौद्धिक श्रमशक्ति बेचकर आजीविका कमाने वाला हर व्यक्ति मजदूर है। ज्यादा मजदूरी वाले सुविधासंपन्न मजदूर खुद के शासक वर्ग का होने का मुगालता पालते हैं और पूंजी/साम्राज्यवादी पूंजी के प्यादे का किरदार निभाते हैं। इस कोटि के मजदूरों को जाने-माने मार्क्सवादी चिंतक, ऐंड्रे गुंतर फ्रैंक लंपट बुर्जुआ कहा है। यह नामकरण मार्क्स द्वारा शासक वर्गों के दलाल मजदूरों के लंपट सर्वहारा नामकरण की तर्ज पर है।

Saturday, January 18, 2025

मार्क्सवाद 346 (क्रिस्टोफर कॉडवेल)

 मैंने क्रिस्टोफर कॉडवल की Illusion and Reality तथा Studies and further studies in a dying culture ही पढ़ी है, वह बी अंग्रेजी में। भगवान सिंह का अनुवाद, 'विभ्रम और यथार्थ' पढ़ने की कोशिस करूंगा, इस बहाने दुहराना हो जाएगा। छात्रों को स्वतंत्रता पढ़ाते समय Studies and further studies in a dying culture से स्वतंत्रता (लिबर्टी) से कई मिशालों का इस्तेमाल संदर्भांतरण के साथ करता था। उन्होंने तीन व्यक्तियों 'ए', 'बी' और 'सी' की मिशाल दी है, जो शब्दशः याद नहीं है। हिंदस्तानी संदर्भ रक कर कह सकते रहैं कि मानलीजिए 'ए' किसी विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर हैं। आरामदायक वेतन मिलता है, कुछ भक्तिभाव वाले छात्र हैं जो उन्हे विद्वान होने का एहसास (या विभ्रम) दिलाते रहते हैं। मन तो लुटियन दिल्ली में बाग-बगीचे के घर में रहने का है, वह तो नहीं, लेकिन इतना एचआपए मिलता है कि वसंतकुंज में एचआईजी फ्लैट में भी जीवन असुविधाजनक नहीं है। चाहते तो हैं कि छुटियां बिताने को मसूरी के आस-पास अपना कोई रिसॉर्ट हो लेकिन जब चाहें तब किराए पर किसी रिसॉर्ट में 10-15 दिन की छुट्टियों का आनंद ले ही सकते हैं। मन तो बीएमडब्लू का मालिक होने का है लेकिन इंस्टालमेंट में इन्नोवा पर चलने का सुख भी कम नहीं है। ए जी से पूछिये कि या वे स्वतंत्र हैं। उनका जवाब होगा "जाहिर है"। बी मान लीजिए किसी ढाबे पर काम करने वाला कोई छोटू या बहादुर है। उसकी सुबह दिन निकलने के पहले होती है और रात आखिरी ग्राहक के जाने के बाद। बचाखुचा भोजन और ढाबा बंद होने के बाद ढाबे की छत सुनिश्चत है। गांव से संस्कार में मिला उसका ज्ञान इतना ही है कि पिछले जन्म में बुरे कर्मों से उसके जैसे लोग अमानवीय हालात में बचपन से ही 10-12 घंटे की मजदूरी को अभिशप्त हैं। बिना शादी के सेक्स पाप होता है आदि। उसके मनोरंजन का साधन मालिक द्वारा ढाबे में लगाया टीवी है।उसके पास स्वतंतापरतंता पर सोचने का समय ही नहीं है। हां उसे हमेशा यह डर सताता है कि मालिक किसी बात पर नाराज हो कर उसे निकाल न दे और ढाबे की छत से निल कर आसमान की छत के नीचे न रहना पड़े। 'सी' एक पढ़े-लिखे बेरोगार प्रौढ़ हैं। वे कुछ भी कर सकते हैं, जो चाहे बोल सकते हैं, जो चाहें लिख सकते हैं, जहां चाहें जा सकता हैं। लेकिन हम सब जानते वे ऐसा कुछ नहीं करते। बेहतर जीवन जी रहे मित्रों परकुढ़ते हैं, घर वालों पर चिढ़चिड़ाते हैं जो उन्हें नाकारा समझते हैं। जिंजगी की जद्दो-जहद से ऊबकर एक शाम घर में अकेले होने पर वे कमरे के पंखे से लटक जाते हैं, जिसके लिए वे पूरी तरह स्वतंत्र। हैं वे पूछते हैं कि अब बताइए यदि ए महोदय स्वतंत्र हैं तो क्या बी और सी भी स्वतंत्र हैं? एक का जवाब होगा बिल्कुल नहीं। तो क्या बी और सी की परतंत्रता का ए की स्वतंत्रता से कोई संबंद्ध है? परतंत्र समाज में निजी स्वतंत्रता एक विभ्रम है। निजी स्वतंत्रता के लिए समादको स्वतंत्र करना होगा।


जब कोई साम्यवाद और जनतांत्रिक स्वतंत्रता के विरोधाभास की बात करता है तो मैं कॉडवेल का उदाहरण देता हूं। वे पक्के कम्युनिस्ट थे और अपने देश इंगलैंड में जनतांत्रिक स्वतंत्रता की हिमायत में कलम चलाते रहे और जब दूसरे देश स्पेन में जनतांत्रिक स्वतंत्रता पर फासीवादी खतरा आया तो कलम जेब में रखर बंदूक उठा लिया और फासीवाद से लड़ते हुए शहीद हुए। महान क्रांतिकारी बुद्धिजीवी की शहादत को सलाम।

Monday, January 13, 2025

शिक्षा और ज्ञान 362 (किताब)

 इस विरले संयोग को रेखांकित करने की ही यह पोस्ट है कि 1980 में खोई किताब 1990 में लगभग मुफ्त में मिल जाए और उस समय की किताबों पर अंग्रेजी उर्दू में सम्मिलित नाम लिखने की आदत याद आ गयी। उर्दू और बांगला लिपियां उनकी कलात्मक (कैलीग्राफिक) संरचना के सौंदर्य की वजह से सीखा था। बाकी तो पढ़ने के लिए मांगकर किताब चोरों की नामजद्द और गुनाम फेहरिस्त लंबी है। यूजीसी की फेलोशिप के दौरान अच्छी कंटिंजेंसी मिलती थी और जी खोलतर किताबें खरीदता था ज्यादातर लौटाने के लिए मांगकर चुराने वालों की भेंट चढ़ गई। गीता बुक सेंटर के 'दादा' जानते थे की कंटेंजेंसी का पैसा मिलते ही उधार चुक जाएगा इसलिए दाम की परवाह किए बिना किताब उठा लेता था। एक दिन Nietzsche की Thus Spoke Zarathustra और Rousseau की आत्मकथा The Confessions लेकर आया। उसी दिन दो किताब चोर अलग अलग 2-3 दिन में पढ़कर लौटाने का वायदा करके मांगकर ले गए। Thus Spoke Zarathustra चुराने वाले का नाम अभी तक याद है, बताने का फायदा नहीं है, कई साल बाद कहीं मिला और पूछा कि मैं उसे पहचान रहा था कि नहीं, मैंने कहा कि अपनी किताबें चुराने वाले कमीनों को मैं भूलता नहीं, वैसे यह ऐसे ही बोल गया था, सही नहीं है। एक बार एक विश्वविद्यालय में एक सेमिनार में गया था और जेएनयू के मित्र रहे वहां के विभागाध्यक्ष (अब दिवंगत) ने एक रात्रत्रिभोज अपने आवास में रखा था, मैंने उसकी बुक सेल्फ देखकर कहा था, 'अबे मेरी इन किताबों में से कुछ तो लौटा दो' उसने बड़ी सहजता से यह कहकर लाजवाब कर दिया था कि वे उसकी बुक सेल्फ में कितनी सुंदर लग रहीं थी उनकी एवज में उसने एक बहुत अच्छी किताब The Story of Philosophy by Will Durrant का उपहार दिया। वह भी कालांतर में इसी विधा से मैंने खो दिया। खैर अब भी बहुत ऐसी किताबें पढ़े जाने के इंतजार में हैं, इसलिए किताबचोरों से कोई शिकायत नहीं है।

1980 में एक सज्जन (वैसे किताब चोरों को दुर्जन कहना चाहिए) मुझसे Frantz Fanon की Wretched of the Earth पढ़ने के लिए ले गए और लौटाए नहीं बोले खो गई, मैं दूसरी प्रति ले आया लेकिन उस संस्करण का कवर पेज उतना आकर्षक नहीं था। 1990 में विरले संयोग से दरियागंज संडे मार्केट में 5 रुपए में वही प्रति मिल गयी, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैंने विक्रेता ज्यादा पैसे ऑफर किया लेकिन उसने लिया नहीं। सही सही वही प्रति की पहचान यों हुई कि उन दिनों मैं किताब खरीदता तो उस पर अंग्रेजी और उर्दू में मिलाकर नाम लिखता था अंग्रेजी के आई को उर्दू के अलिफ के रूप में इस्तेमाल कर उसके दाहिने अंग्रेजी का एस एच और बाएं उर्दू का इए शीन लिख देता था। दांए पढ़ने पर अंग्रेजी में ईश और बांए पढ़ने पर उर्दू में।

Sunday, January 12, 2025

शिक्षा और ज्ञान 361 (असहमति)

 रोमिला थापर की पुस्तक असहमति की आवाजें के संदर्भ में असहमति की ऐतिहासिक आवाजों पर Tribhuvan जी की एक पोस्ट पर एक कमेंट का जवाबः


बाकी नृशंषताओं की आड़ में अपनी नृशंसताएं छिपाना आपराधिक सोच है। मानवतावादी पश्चिम के नस्ल, वर्ग और मर्दवाद की नृशंसताओं का वैसे ही विरोध करते रहे हैं जैसे जाति-धर्म-मर्दवाद की यहां की क्रूर अमानवीय नृशंसताओं का। यहां अमानवीय क्रूरताओं को धार्मिक जामा पहनाकर दैवीय बना दिया गया है, जिससे बाभन से इंसान बनना ज्यादा कठिन हो गया है। आपकी यह बात, 'विचार - संप्रदाय,नस्ल और स्त्रीसम्मान को लेकर कुछ दशकों पहले तक पश्चिम में जो नृंशस विधान थे उन पर सामान्यत: दृष्टि नहीं जाती जब कि इधर धर्मशास्त्रों के अप्रमाणित और विरोधाभासी बयानों को लेकर कई जातियों को पंचिंग बैग बना दिया गया।' उसी आपराधिक सोच की परिणति लगती है कि मैं ही नहीं वह भी चोर है। अरे भाई उसकी भी चोरी का विरोध करिए लेकिन वह विरोध तभी सार्थक होगा जब पहले हम अपनी चोरी का विरोध करें। जहां तक कई जातियों को पंचिंग बैग बनाने का सवाल है तो विरोध जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का निर्धारकरने वाली विचारधारा ब्राह्मणवाद का होता है, जन्मना ब्राह्मण व्यक्ति का नहीं। बाभन से इंसान बनना, जन्म की जीववैज्ञानिक संयोग की अस्मिता से ऊपर उठकर विवेकशील इंसान की अस्मिता अख्तियार करने का मुहावरा है।

Sunday, January 5, 2025

मार्क्सवाद 345(अडानी)

 अडानी-अंबानी का विरोध जाहिर है भारत विरोध है। कृपापात्रता (क्रोनी) पूंजीवाद में कृपापात्र कृपाकर्ता का चाकर नहीं होता, बल्कि समीकरण उल्टा होता है। वालस्ट्रीट व्हाइटहाउस की कृपा पर नहीं चलता बल्कि व्हाइट हाउस वालमार्ट की कृृपा से चलता है। अडानी यानि भारत के विरोधी सोरोस को अमेरिकी सरकार द्वारा देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से नवाजना अमेरिका का भारतविरोधी कदम है, लेकिन अमेरिका मालदीव तो है नहीं कि मोदी सरकार उसका कान खींच सके।

Saturday, January 4, 2025

शिक्षाऔर ज्ञान 360 (बुक बाजार)

 प्रो. Gopeshwar Singh की कलकत्ता की बुक बाजार के अनुभव की एक पोस्ट पर कमेंट:


मैं कलकत्ता जब भी जाता हूं या यों कहूं कि जाता था क्योंकि आखिरी बार 2007 में गया था, फिर कब जा पाऊंगा, पता नहीं तो कॉलेज स्ट्रीट के पास ही मेरे एक मित्र संजय मित्र का घर है, वहीं रुकता हूं/था और एक पूरा दिन बुक बाजार के लिए रखता था और हर शाम कॉफी हाउस के लिए। लखनऊ, इलाहाबाद की तरह वहां भी कॉफी हाउस संस्कृति से नई पीढ़ी अछूती है। बगल में ही राजाबाजार यानि मिनी बिहार है। मैं तो बहुत शहर घूमा नहीं हूं, लेकिन देखे हुए किसी शहर में कॉ़लेज स्ट्रीट जैसी किताबों की बाजार की संस्कति नहीं दिखी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हमारे छात्र जीवन (1970 के दशक का पूर्वार्ध) तक पीपीएच की दुकान में काउंटर पर कई स्टूल रखे रहते थे, जहां बैठकर किताबें पढञने/पलटने की सुविधा थी। हिंदुत्व दक्षिणपंथ से मार्क्सवादी वामपंथमें मेरे संक्रमण उस दुकान का काफी योगदान है। विश्वविद्यालय मार्ग पर विद्यार्थी परिषद के कार्यालय के सगभग नीचे ही पीपीएच की दुकान थी, मैं सिगरेट पीने नीचे उतरता तो पीपीएच में चला जाता था एक दादा काउंटर के पार किताब पढ़ते बैठे रहते। ग्राहक भी जाकर किताबें पलटता और खरीदना हो तो दादा को डिस्टर्ब करता। प्रॉग्रेस और रादुगा प्रकाशन की किताबों के 2-4 आने या रूपया -दो- रुपया दाम होता। मैं भी किताबें पलटता और अच्छी लगतीं तो खरीदता। साहित्य से दूरी पर विज्ञान का विद्यार्थी था और भारतीय दर्शन, ऐतिहासिक कालक्रम और विश्व साहित्य की कालजयी रचनाएं वहीं पढ़ता-खरीदता। शुरू में मैं सोचता था दादा बंगाली हैं लेकिन वे वहीं के स्थानीय मुसलमान थे। साहित्य और दर्शन की ही नहीं फीजिक्स और गणित की बहुत अच्छी किताबें भी वहां होती। वहां से खरीदी एब्सट्रैक्ट अल्जेब्रा की एक किताब रिटायरमेंट तक सहेजे रखा और फिर यह सोचकर कि इस जीवन में अब गणित पढ़ने का मौका नहीं मिलेगा, लाइब्रेरी को दे दिया। क्षमा कीजिए नॉस्टल्जियाकर कलकत्ता की कॉलेज स्ट्रीट से इलाहाबाद के यूनिवर्सिटी रोड पहुंच गया। युनिवर्सिटी रोड भी किताबों की बाजार है लेकिन कॉ़लेज स्ट्रीट की तुलना में लगभग नगण्य।

Wednesday, January 1, 2025

शिक्षा और ज्ञान 359 (धर्म और राजनीति)

धर्म और राजनैतिक अर्थशास्त्र के अंतःसंबंधों पर Mukesh Aseem की एक पोस्ट पर कमेंट:

राजनीति की धर्म से स्वतंत्रता के हिमायती, आधुनिक राजनैतिक दर्शन की बुनियाद रखने वाले, धार्मिक और राजनैतिक आचार--संहिताओं के किन्ही नियमों के अंतर्विोध की स्थिति में, धर्म पर राजनीति को तरजीह देने के हिमायती, यूरोपीय नवजागरण के दार्शनिक मैक्यावली धर्म, को सबसे प्रभावी राजनैतिक औजार और हथियार मानते हैं। नए समझदार राजा को वे सलाह देते हैं कि विजित प्रजा के धार्मिक रीति-रिवाज, प्रचलन और आस्थागत क्रियाकलाप कितनेे भी कुतार्किक और असामाजिक क्यों न हों,उसे न केवल उनसे छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए, बल्कि उनकी निरंतरता भी सुनिश्चित करना चाहिए, क्योोंकि कि धर्म लोगों को वफादार और एकजुट बनाए रखने का सबसे कारगर राजनैतिक हथियार है। सत्ताके लिए कुछ भी करे लेकिन उसे धर्मात्मा होने का पाखंड करना चाहिए, क्योंकि जनता भीड़ होती रहै, जो दिखता है उसे ही सच मानन लेती है। और यदि कुछ लोग सचमुच में सच जान भी लेंगे तो जब जनता साथ है तो इनकी क्या बिसात। जनता विद्रोह करने के पहले 10 बार सोचेगी कि भगवान ही उसके साथ है तो पराजय ही होगी। और धीरेधीरे भगवान का भय राजा के भय का रूप ले सकता है।