इतिहास का गतिविज्ञज्ञान अपनी रफ्तार और दिशा अपनी गति की प्रक्रिया में खुद तय करता है, उसके लिए पहले से कोई टाइमटेबल नहीं बनाया जा सकता। हमारे छात्रजीवन से अब तक के परिवर्तनों की 60 साल पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, लड़कियों को पढ़ने के लिए लड़ना पड़ता था, आज लड़ने के लिए पढ़ रही हैं।
Monday, February 3, 2025
कुछ नहीं कुछ नहीं होता
न सोचने से किसी विचार का जन्म नहीं होता,
न लिखने से भी कुछ नहीं होता,
इसलिए लिखता हूं
न बोलने से भी कुछ नहीं होता,
इसलिए बोलता हूं
न पढ़ने से भी कुछ नहीे होता,
इसलिए पढ़ लेता हूं
न करने से भी कुछ नहीं होता
इसलिए कुछ-न-कुछ करता रहता हूं
वैसे तो कुछ भी कुछ नहीं होता
उसी तरह जैसे नामुमकिन जिंदा आदमी का कुछ न करना
न सोचने, न लिखने, न बोलने, न पढ़ने, न करने से भी कुछ नहीं होता
इसलिए सोचता, लिखता, पढ़ता, बोलता और करता रहता हूं
ये सब इस उम्मीद में करता रहता हूं कि हो सकता है कुछ हो ही जाए।
(ईमि: 03.02.2025)
Sunday, January 26, 2025
शिक्षा और ज्ञान 364(धर्म और राजनीति)
नवनिर्वाचित अमेरिकी राषटरपति को चर्च के बिशप द्वारा नसीहत की Premkumar Mani जी की पोस्ट पर कमेंट:
धर्म के चंगुल से राजनीति की मुक्ति यूरोपीय नवजागरण क्रांति की एक उपलब्धि थी। आधुनिक राजनैतिक दर्शन की बुनियाद रखते हुए इस युग के राजनैतिक दार्शनिक मैक्यावली ने धार्मिक आचार संहिता से स्वतंत्र रजनैतिक आचार संहिता की हिमायत की। आचार संहिताओं के मूल्यों में टकराव की स्थिति में उसने समझदार प्रिंस को धार्मिक आचार संहिता पर राजनैतिक आचार संहिता को तरजीह देने की हिमायत की। प्रबोधन (एनलाइटेनमेंट) क्रांति ने ईश्वर को इहलौकिक क्रियाकलापों के निर्धारण से मुक्त कर दिया। आधुनिक राज्य के आधुनिक, उदारवादी राजनैतिक दर्शन ने सत्ता के श्रोत के रूप में ईश्वर की अमूर्त अवधारणा की जगह 'हम लोग' की अमूर्त अवधारणा ने ले ली और सत्ता की विचारधारा के कूप में धर्म की जगह राष्ट्रवाद ने ले ली। ऐसे में संविधान की जगह ईश्वर के नाम पर राजनैतिक शपथ लेना या चर्च या मंदिर जाकर राजनैतिक दायित्व निभाने के लिए ईश्वर की अभ्यर्थना प्रतिगामी राजनैतिक कृत्य है। वैसे आप की बिशप के साहस की बात से सहमत हूं। जहां ज्यादातर धार्मिक गुरू और साधू-संत सत्ता की कृपा-पात्रता और सरकारी नीतियों के महिमामंडन के कुकृत्यों में संलग्न हों ऐसे में चर्च के बिशप द्वारा महाबली अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को प्रवासियों और थर्ड जेंडर जैसे मुद्दों पर उनकी नीतियों के विरुद्ध नशीहत देना वाकई साहस का काम है। साहस को सलाम, देखिए ट्रंप ईश्वरके प्रतिनिधि की सलाह मानता है कि नहीं?
Saturday, January 25, 2025
मार्क्सवाद 348 (गणतंत्र दिवस)
गणतंत्रदिवस की एक पोस्ट पर कमेंट:
76वें गणतंत्र दिवस की बधाई। भारत की आजादी की लड़ाई कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ी गयी, इस बात को नकारना इतिहास को नकारना है। इस लड़ाई में, एचआरए--एचएसआरए के परचम तले क्रांतिकारियों की बलिदानी भूमिका प्रकारांतर से लड़ाई को बल प्रदान करने वाली रही है। हिंदू महासभा और आरएसएस ही नहीं, मुस्लिम लीग और जमाते इस्लामी भी उपनिवेशविरोधी आंदोलन के विरुद्ध औपनिवेशिक शासन के साथ थे । दरअसल भारत में सांप्रदायिकता औपनिवेशिक रचना है। बहादुर शाह जफर के प्रतीकात्मक नेतृत्व में, विद्रोही सैनिकों के सहयोग से 1857 की किसानों की सशस्त्र क्रांति ने औपनिवेशिक शासन की चूलें हिला दी थीं और औपनिवेशिक शासक और भारतीयों की ऐसी एकताबद्ध सशस्त्र क्रांति की पुनरावत्ति की आशंका से आतंकित थे और सुरक्षा कवच के रूप में औपनिवेशिक प्रशासक एओ ह्यूम की अगुवाई में अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों के संगठन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन करवाया जो कालांतर में उपनिवेश विरोधी आंदोलन का प्रभावी मंच बन गई। कई बार अनचाहे उपपरिणाम लक्षित परिणाम को धता बताते हुए स्वतंत्र लक्ष्य बन जाते हैं। औपनिवेशिक शासकों की मनसा से स्वतंत्र कांग्रेस उपनिवेशविरोधी स्वतंभत्रता आंदोलन का प्रमुख मंच बन गयी। कांग्रेस के नेतृत्व में उपनिवेश विरोधी आंदोलन की विचारधारा के रूप में भारतीय राष्टवाद का विकास शुरू हुआ। इस ऐतिहासिक परिघटना ने औपनिवेशिक शासकों की नींद हराम कर दी। इसे तोड़ने के लिए उन्होंने बांटो-राज करो की नीति को तहत धार्मिक भिन्नता को हवा देते हुए धार्मिक राष्ट्रवाद की परिकल्पना की। भारत के दोनों प्रमुख समुदायों से उसे सहयोगी मिल गए जिन्होंने औपनिवेशिक प्रश्रय में भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध क्रमशः हिंदू राष्ट्र्रवाद और मुस्लिम राष्ट्रवाद के परचम फहराया और अंततः भारतीय राष्ट्र और भारतीय राष्ट्रवाद को खंडित करने में सफल रहे। 1947 में खंडित स्वतंता मिली और विखंडन के घाव नासूर बन अभी तक टपकसरहे हैं। भारत का मौजूदा सांप्रदायिक फासीवाद उसी नासूर की रिसन है। कम्युनिस्टों के स्वतंत्रता आंदोलन के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ देने की बात मिथ और दुष्प्रचार है। द्वितीय. विश्वयुद्ध में फासीवादी मोर्चे के विरोधी मोर्चे का साथ देना कम्युनिस्ट पार्टी की रणनीतिक भूल थी जिसे बाद में पार्टी ने स्वीकार किया। वैसे भी फासीवादी साम्राज्यवाद और संवैधानिक (औपनिवेशिक) साम्राज्यवाद में चुनाव का फैसला मुश्किल फैसला था। कम्युनिस्ट पार्टी एकमात्र पार्टी थी जिस पर पूरी पार्टी पर दो मुकदमे हुए और सारे कम्युनिस्ट जेल में डाल दिए गए थे। आज संकट फिर से सांप्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध भारतीय राष्ट्रवाद की सुरक्षा है। आप सबको 76वां गणतंत्र दिवस मुबारक हो।
Tuesday, January 21, 2025
शिक्षा और ज्ञान 363 (उर्दू--देवनागरी)
उर्दू को नागरी लिपि में लिखने की हिमायत की एक पोस्ट पर कमेंट:
हिंदी के जाने-माने साहित्यकार Asghar Wajahat हिंदी-उर्दू को रोमन लिपि में लिखने के पैरवीकार हैं, मैं इसे अनुचित मानता हूं, उसी तरह उर्दू को देवनागरी में लिखने को भी अनुचित मानता हूं। नव-उदारवाद विविधता को समाप्त कर एकरूपता का हिमायत करता है। विविधता के सौंदर्यशास्त्रीय पक्ष छोड़ भी दें तो ऐतिहासिक रूप से भाषा-लिपि की एकरीपता का प्रयास ऐतिहासिक विस्तारवाद और छोटी-बड़ी मछली की कहावत चरितार्थ करती है। यूरोपीय देशों में प्रमुख भाषाएं स्थानीय भाषाओं को निगल गयीं। गांधीजी ने 1919 में करांग्रेस अधिवेशन में हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय संपर्क की भाषा बनाने का प्रस्ताव पेश किया था। हिंदुस्तानी का मतलब उत्तर भारत में बोली जाने वाली भाषा, जिसेकुछ लोग नागरी लिपि में लिखते हैं और कुछ लोग फारसी में। दोनों ही पक्षों के शुद्धतावादी, संकीर्णतावादियों ने इसका विरोध किया था। हिंदी शुद्धतावादी खड़ी बोली के रूप में विकसित हो रही हिंदी को संस्कृतनिष्ठ बनाने के पक्षधर थे और बाजार की भाषा के रूप में विकसित उर्दू में फारसी और अरबी के शब्द घुसेड़ने के। दक्षिण भारत समेत गैर हिंदी भाषी प्रांतो के ज्यादातर प्रतिनिधि गांधीजी के प्रस्ताव के समर्थक थे। 1949 में हिंदी-हिंदुस्तानी के मुद्दे पर संविधान सभा के मतदान में दोनों पक्षों में बराबरी का मामला था।राजंद्र प्रसाद के अध्यक्षीय मत ने पलड़ा हिंदी के पक्ष में भारी कर दिया। हमें दूसरी भाषाओं के प्रचलित शब्दों को ग्रहण करके हिंदीहिंदुस्तानी को समद्ध करना चाहिए। पाजामा-चश्मा जैसे तमाम शब्दों के संल्कृतनिष्ठ समतुल्य ढूंढ़ने की बजाय उन्हें को जस-का-तस स्वीकार कर लेना चाहिए। भाषा का सांप्रदायिक विभाजन भी समाज के सांप्रदायिक विभाजन में मददगार रहा है। मैंने तो बांगला और उर्दू लिखना लिपि की कलात्मक (कैलीग्राफिक) संरचना के चलते सीखा था और उर्दू लिपि सीखने के बाद नई खरीदी किताबों पर उंग्रेजी के आई को उर्दू का अलिफ बनाकर दाएं-बाएं दोनों तरफ से ईश लिखता था। मेरी निजी राय में बचे-खुचे उर्दू वालों पर लिपि का दबाव नहीं डालना चाहिए, लिप्यांतर की सुविधा गूगल ने दे ही रखा है।
Sunday, January 19, 2025
मार्क्सवाद 347 (सर्वहारा की मुक्ति)
एक पोस्ट पर एक कमेंट
स्वतंत्रता के ही नहीं किसी भी हक के एक एक इंच के लिए लड़ना पड़ता है, खैरात में केवल भीख ही मिलती है। जब मजदूर वर्ग वर्गचेतना लैस होकर संगठित होकर खुद को 'अपने आप नें वर्ग' से 'अपने लिए वर्ग' में तब्दील करेगा तो खुद की स्वतंता की लड़ाई खुद लड़ेगा और सर्वहारा की मुक्ति में ही मानव मुक्ति निहित है। सर्वहारा अपनी मुक्ति यानि मानव मुक्ति की लड़ाई लड़ेगा ही और जीतेगा भी। इसके लिए कोई टाइमटेबुल नहीं तय किया जा सकता। हजारों सालों की गुलामी तोड़ने में बहुत समय और ऊर्जा लगती है। सवाल पूछा जाता है कि मजदूर या सर्वहारा कौन है? जवाब है कि शारीरिक या बौद्धिक श्रमशक्ति बेचकर आजीविका कमाने वाला हर व्यक्ति मजदूर है। ज्यादा मजदूरी वाले सुविधासंपन्न मजदूर खुद के शासक वर्ग का होने का मुगालता पालते हैं और पूंजी/साम्राज्यवादी पूंजी के प्यादे का किरदार निभाते हैं। इस कोटि के मजदूरों को जाने-माने मार्क्सवादी चिंतक, ऐंड्रे गुंतर फ्रैंक लंपट बुर्जुआ कहा है। यह नामकरण मार्क्स द्वारा शासक वर्गों के दलाल मजदूरों के लंपट सर्वहारा नामकरण की तर्ज पर है।
Saturday, January 18, 2025
मार्क्सवाद 346 (क्रिस्टोफर कॉडवेल)
मैंने क्रिस्टोफर कॉडवल की Illusion and Reality तथा Studies and further studies in a dying culture ही पढ़ी है, वह बी अंग्रेजी में। भगवान सिंह का अनुवाद, 'विभ्रम और यथार्थ' पढ़ने की कोशिस करूंगा, इस बहाने दुहराना हो जाएगा। छात्रों को स्वतंत्रता पढ़ाते समय Studies and further studies in a dying culture से स्वतंत्रता (लिबर्टी) से कई मिशालों का इस्तेमाल संदर्भांतरण के साथ करता था। उन्होंने तीन व्यक्तियों 'ए', 'बी' और 'सी' की मिशाल दी है, जो शब्दशः याद नहीं है। हिंदस्तानी संदर्भ रक कर कह सकते रहैं कि मानलीजिए 'ए' किसी विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर हैं। आरामदायक वेतन मिलता है, कुछ भक्तिभाव वाले छात्र हैं जो उन्हे विद्वान होने का एहसास (या विभ्रम) दिलाते रहते हैं। मन तो लुटियन दिल्ली में बाग-बगीचे के घर में रहने का है, वह तो नहीं, लेकिन इतना एचआपए मिलता है कि वसंतकुंज में एचआईजी फ्लैट में भी जीवन असुविधाजनक नहीं है। चाहते तो हैं कि छुटियां बिताने को मसूरी के आस-पास अपना कोई रिसॉर्ट हो लेकिन जब चाहें तब किराए पर किसी रिसॉर्ट में 10-15 दिन की छुट्टियों का आनंद ले ही सकते हैं। मन तो बीएमडब्लू का मालिक होने का है लेकिन इंस्टालमेंट में इन्नोवा पर चलने का सुख भी कम नहीं है। ए जी से पूछिये कि या वे स्वतंत्र हैं। उनका जवाब होगा "जाहिर है"। बी मान लीजिए किसी ढाबे पर काम करने वाला कोई छोटू या बहादुर है। उसकी सुबह दिन निकलने के पहले होती है और रात आखिरी ग्राहक के जाने के बाद। बचाखुचा भोजन और ढाबा बंद होने के बाद ढाबे की छत सुनिश्चत है। गांव से संस्कार में मिला उसका ज्ञान इतना ही है कि पिछले जन्म में बुरे कर्मों से उसके जैसे लोग अमानवीय हालात में बचपन से ही 10-12 घंटे की मजदूरी को अभिशप्त हैं। बिना शादी के सेक्स पाप होता है आदि। उसके मनोरंजन का साधन मालिक द्वारा ढाबे में लगाया टीवी है।उसके पास स्वतंतापरतंता पर सोचने का समय ही नहीं है। हां उसे हमेशा यह डर सताता है कि मालिक किसी बात पर नाराज हो कर उसे निकाल न दे और ढाबे की छत से निल कर आसमान की छत के नीचे न रहना पड़े। 'सी' एक पढ़े-लिखे बेरोगार प्रौढ़ हैं। वे कुछ भी कर सकते हैं, जो चाहे बोल सकते हैं, जो चाहें लिख सकते हैं, जहां चाहें जा सकता हैं। लेकिन हम सब जानते वे ऐसा कुछ नहीं करते। बेहतर जीवन जी रहे मित्रों परकुढ़ते हैं, घर वालों पर चिढ़चिड़ाते हैं जो उन्हें नाकारा समझते हैं। जिंजगी की जद्दो-जहद से ऊबकर एक शाम घर में अकेले होने पर वे कमरे के पंखे से लटक जाते हैं, जिसके लिए वे पूरी तरह स्वतंत्र। हैं वे पूछते हैं कि अब बताइए यदि ए महोदय स्वतंत्र हैं तो क्या बी और सी भी स्वतंत्र हैं? एक का जवाब होगा बिल्कुल नहीं। तो क्या बी और सी की परतंत्रता का ए की स्वतंत्रता से कोई संबंद्ध है? परतंत्र समाज में निजी स्वतंत्रता एक विभ्रम है। निजी स्वतंत्रता के लिए समादको स्वतंत्र करना होगा।
जब कोई साम्यवाद और जनतांत्रिक स्वतंत्रता के विरोधाभास की बात करता है तो मैं कॉडवेल का उदाहरण देता हूं। वे पक्के कम्युनिस्ट थे और अपने देश इंगलैंड में जनतांत्रिक स्वतंत्रता की हिमायत में कलम चलाते रहे और जब दूसरे देश स्पेन में जनतांत्रिक स्वतंत्रता पर फासीवादी खतरा आया तो कलम जेब में रखर बंदूक उठा लिया और फासीवाद से लड़ते हुए शहीद हुए। महान क्रांतिकारी बुद्धिजीवी की शहादत को सलाम।
Monday, January 13, 2025
शिक्षा और ज्ञान 362 (किताब)
इस विरले संयोग को रेखांकित करने की ही यह पोस्ट है कि 1980 में खोई किताब 1990 में लगभग मुफ्त में मिल जाए और उस समय की किताबों पर अंग्रेजी उर्दू में सम्मिलित नाम लिखने की आदत याद आ गयी। उर्दू और बांगला लिपियां उनकी कलात्मक (कैलीग्राफिक) संरचना के सौंदर्य की वजह से सीखा था। बाकी तो पढ़ने के लिए मांगकर किताब चोरों की नामजद्द और गुनाम फेहरिस्त लंबी है। यूजीसी की फेलोशिप के दौरान अच्छी कंटिंजेंसी मिलती थी और जी खोलतर किताबें खरीदता था ज्यादातर लौटाने के लिए मांगकर चुराने वालों की भेंट चढ़ गई। गीता बुक सेंटर के 'दादा' जानते थे की कंटेंजेंसी का पैसा मिलते ही उधार चुक जाएगा इसलिए दाम की परवाह किए बिना किताब उठा लेता था। एक दिन Nietzsche की Thus Spoke Zarathustra और Rousseau की आत्मकथा The Confessions लेकर आया। उसी दिन दो किताब चोर अलग अलग 2-3 दिन में पढ़कर लौटाने का वायदा करके मांगकर ले गए। Thus Spoke Zarathustra चुराने वाले का नाम अभी तक याद है, बताने का फायदा नहीं है, कई साल बाद कहीं मिला और पूछा कि मैं उसे पहचान रहा था कि नहीं, मैंने कहा कि अपनी किताबें चुराने वाले कमीनों को मैं भूलता नहीं, वैसे यह ऐसे ही बोल गया था, सही नहीं है। एक बार एक विश्वविद्यालय में एक सेमिनार में गया था और जेएनयू के मित्र रहे वहां के विभागाध्यक्ष (अब दिवंगत) ने एक रात्रत्रिभोज अपने आवास में रखा था, मैंने उसकी बुक सेल्फ देखकर कहा था, 'अबे मेरी इन किताबों में से कुछ तो लौटा दो' उसने बड़ी सहजता से यह कहकर लाजवाब कर दिया था कि वे उसकी बुक सेल्फ में कितनी सुंदर लग रहीं थी उनकी एवज में उसने एक बहुत अच्छी किताब The Story of Philosophy by Will Durrant का उपहार दिया। वह भी कालांतर में इसी विधा से मैंने खो दिया। खैर अब भी बहुत ऐसी किताबें पढ़े जाने के इंतजार में हैं, इसलिए किताबचोरों से कोई शिकायत नहीं है।
1980 में एक सज्जन (वैसे किताब चोरों को दुर्जन कहना चाहिए) मुझसे Frantz Fanon की Wretched of the Earth पढ़ने के लिए ले गए और लौटाए नहीं बोले खो गई, मैं दूसरी प्रति ले आया लेकिन उस संस्करण का कवर पेज उतना आकर्षक नहीं था। 1990 में विरले संयोग से दरियागंज संडे मार्केट में 5 रुपए में वही प्रति मिल गयी, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैंने विक्रेता ज्यादा पैसे ऑफर किया लेकिन उसने लिया नहीं। सही सही वही प्रति की पहचान यों हुई कि उन दिनों मैं किताब खरीदता तो उस पर अंग्रेजी और उर्दू में मिलाकर नाम लिखता था अंग्रेजी के आई को उर्दू के अलिफ के रूप में इस्तेमाल कर उसके दाहिने अंग्रेजी का एस एच और बाएं उर्दू का इए शीन लिख देता था। दांए पढ़ने पर अंग्रेजी में ईश और बांए पढ़ने पर उर्दू में।
Sunday, January 12, 2025
शिक्षा और ज्ञान 361 (असहमति)
रोमिला थापर की पुस्तक असहमति की आवाजें के संदर्भ में असहमति की ऐतिहासिक आवाजों पर Tribhuvan जी की एक पोस्ट पर एक कमेंट का जवाबः
बाकी नृशंषताओं की आड़ में अपनी नृशंसताएं छिपाना आपराधिक सोच है। मानवतावादी पश्चिम के नस्ल, वर्ग और मर्दवाद की नृशंसताओं का वैसे ही विरोध करते रहे हैं जैसे जाति-धर्म-मर्दवाद की यहां की क्रूर अमानवीय नृशंसताओं का। यहां अमानवीय क्रूरताओं को धार्मिक जामा पहनाकर दैवीय बना दिया गया है, जिससे बाभन से इंसान बनना ज्यादा कठिन हो गया है। आपकी यह बात, 'विचार - संप्रदाय,नस्ल और स्त्रीसम्मान को लेकर कुछ दशकों पहले तक पश्चिम में जो नृंशस विधान थे उन पर सामान्यत: दृष्टि नहीं जाती जब कि इधर धर्मशास्त्रों के अप्रमाणित और विरोधाभासी बयानों को लेकर कई जातियों को पंचिंग बैग बना दिया गया।' उसी आपराधिक सोच की परिणति लगती है कि मैं ही नहीं वह भी चोर है। अरे भाई उसकी भी चोरी का विरोध करिए लेकिन वह विरोध तभी सार्थक होगा जब पहले हम अपनी चोरी का विरोध करें। जहां तक कई जातियों को पंचिंग बैग बनाने का सवाल है तो विरोध जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का निर्धारकरने वाली विचारधारा ब्राह्मणवाद का होता है, जन्मना ब्राह्मण व्यक्ति का नहीं। बाभन से इंसान बनना, जन्म की जीववैज्ञानिक संयोग की अस्मिता से ऊपर उठकर विवेकशील इंसान की अस्मिता अख्तियार करने का मुहावरा है।
Sunday, January 5, 2025
मार्क्सवाद 345(अडानी)
अडानी-अंबानी का विरोध जाहिर है भारत विरोध है। कृपापात्रता (क्रोनी) पूंजीवाद में कृपापात्र कृपाकर्ता का चाकर नहीं होता, बल्कि समीकरण उल्टा होता है। वालस्ट्रीट व्हाइटहाउस की कृपा पर नहीं चलता बल्कि व्हाइट हाउस वालमार्ट की कृृपा से चलता है। अडानी यानि भारत के विरोधी सोरोस को अमेरिकी सरकार द्वारा देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से नवाजना अमेरिका का भारतविरोधी कदम है, लेकिन अमेरिका मालदीव तो है नहीं कि मोदी सरकार उसका कान खींच सके।
Saturday, January 4, 2025
शिक्षाऔर ज्ञान 360 (बुक बाजार)
प्रो. Gopeshwar Singh की कलकत्ता की बुक बाजार के अनुभव की एक पोस्ट पर कमेंट:
मैं कलकत्ता जब भी जाता हूं या यों कहूं कि जाता था क्योंकि आखिरी बार 2007 में गया था, फिर कब जा पाऊंगा, पता नहीं तो कॉलेज स्ट्रीट के पास ही मेरे एक मित्र संजय मित्र का घर है, वहीं रुकता हूं/था और एक पूरा दिन बुक बाजार के लिए रखता था और हर शाम कॉफी हाउस के लिए। लखनऊ, इलाहाबाद की तरह वहां भी कॉफी हाउस संस्कृति से नई पीढ़ी अछूती है। बगल में ही राजाबाजार यानि मिनी बिहार है। मैं तो बहुत शहर घूमा नहीं हूं, लेकिन देखे हुए किसी शहर में कॉ़लेज स्ट्रीट जैसी किताबों की बाजार की संस्कति नहीं दिखी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हमारे छात्र जीवन (1970 के दशक का पूर्वार्ध) तक पीपीएच की दुकान में काउंटर पर कई स्टूल रखे रहते थे, जहां बैठकर किताबें पढञने/पलटने की सुविधा थी। हिंदुत्व दक्षिणपंथ से मार्क्सवादी वामपंथमें मेरे संक्रमण उस दुकान का काफी योगदान है। विश्वविद्यालय मार्ग पर विद्यार्थी परिषद के कार्यालय के सगभग नीचे ही पीपीएच की दुकान थी, मैं सिगरेट पीने नीचे उतरता तो पीपीएच में चला जाता था एक दादा काउंटर के पार किताब पढ़ते बैठे रहते। ग्राहक भी जाकर किताबें पलटता और खरीदना हो तो दादा को डिस्टर्ब करता। प्रॉग्रेस और रादुगा प्रकाशन की किताबों के 2-4 आने या रूपया -दो- रुपया दाम होता। मैं भी किताबें पलटता और अच्छी लगतीं तो खरीदता। साहित्य से दूरी पर विज्ञान का विद्यार्थी था और भारतीय दर्शन, ऐतिहासिक कालक्रम और विश्व साहित्य की कालजयी रचनाएं वहीं पढ़ता-खरीदता। शुरू में मैं सोचता था दादा बंगाली हैं लेकिन वे वहीं के स्थानीय मुसलमान थे। साहित्य और दर्शन की ही नहीं फीजिक्स और गणित की बहुत अच्छी किताबें भी वहां होती। वहां से खरीदी एब्सट्रैक्ट अल्जेब्रा की एक किताब रिटायरमेंट तक सहेजे रखा और फिर यह सोचकर कि इस जीवन में अब गणित पढ़ने का मौका नहीं मिलेगा, लाइब्रेरी को दे दिया। क्षमा कीजिए नॉस्टल्जियाकर कलकत्ता की कॉलेज स्ट्रीट से इलाहाबाद के यूनिवर्सिटी रोड पहुंच गया। युनिवर्सिटी रोड भी किताबों की बाजार है लेकिन कॉ़लेज स्ट्रीट की तुलना में लगभग नगण्य।
Wednesday, January 1, 2025
शिक्षा और ज्ञान 359 (धर्म और राजनीति)
धर्म और राजनैतिक अर्थशास्त्र के अंतःसंबंधों पर Mukesh Aseem की एक पोस्ट पर कमेंट:
राजनीति की धर्म से स्वतंत्रता के हिमायती, आधुनिक राजनैतिक दर्शन की बुनियाद रखने वाले, धार्मिक और राजनैतिक आचार--संहिताओं के किन्ही नियमों के अंतर्विोध की स्थिति में, धर्म पर राजनीति को तरजीह देने के हिमायती, यूरोपीय नवजागरण के दार्शनिक मैक्यावली धर्म, को सबसे प्रभावी राजनैतिक औजार और हथियार मानते हैं। नए समझदार राजा को वे सलाह देते हैं कि विजित प्रजा के धार्मिक रीति-रिवाज, प्रचलन और आस्थागत क्रियाकलाप कितनेे भी कुतार्किक और असामाजिक क्यों न हों,उसे न केवल उनसे छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए, बल्कि उनकी निरंतरता भी सुनिश्चित करना चाहिए, क्योोंकि कि धर्म लोगों को वफादार और एकजुट बनाए रखने का सबसे कारगर राजनैतिक हथियार है। सत्ताके लिए कुछ भी करे लेकिन उसे धर्मात्मा होने का पाखंड करना चाहिए, क्योंकि जनता भीड़ होती रहै, जो दिखता है उसे ही सच मानन लेती है। और यदि कुछ लोग सचमुच में सच जान भी लेंगे तो जब जनता साथ है तो इनकी क्या बिसात। जनता विद्रोह करने के पहले 10 बार सोचेगी कि भगवान ही उसके साथ है तो पराजय ही होगी। और धीरेधीरे भगवान का भय राजा के भय का रूप ले सकता है।