प्रो. Gopeshwar Singh की कलकत्ता की बुक बाजार के अनुभव की एक पोस्ट पर कमेंट:
मैं कलकत्ता जब भी जाता हूं या यों कहूं कि जाता था क्योंकि आखिरी बार 2007 में गया था, फिर कब जा पाऊंगा, पता नहीं तो कॉलेज स्ट्रीट के पास ही मेरे एक मित्र संजय मित्र का घर है, वहीं रुकता हूं/था और एक पूरा दिन बुक बाजार के लिए रखता था और हर शाम कॉफी हाउस के लिए। लखनऊ, इलाहाबाद की तरह वहां भी कॉफी हाउस संस्कृति से नई पीढ़ी अछूती है। बगल में ही राजाबाजार यानि मिनी बिहार है। मैं तो बहुत शहर घूमा नहीं हूं, लेकिन देखे हुए किसी शहर में कॉ़लेज स्ट्रीट जैसी किताबों की बाजार की संस्कति नहीं दिखी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हमारे छात्र जीवन (1970 के दशक का पूर्वार्ध) तक पीपीएच की दुकान में काउंटर पर कई स्टूल रखे रहते थे, जहां बैठकर किताबें पढञने/पलटने की सुविधा थी। हिंदुत्व दक्षिणपंथ से मार्क्सवादी वामपंथमें मेरे संक्रमण उस दुकान का काफी योगदान है। विश्वविद्यालय मार्ग पर विद्यार्थी परिषद के कार्यालय के सगभग नीचे ही पीपीएच की दुकान थी, मैं सिगरेट पीने नीचे उतरता तो पीपीएच में चला जाता था एक दादा काउंटर के पार किताब पढ़ते बैठे रहते। ग्राहक भी जाकर किताबें पलटता और खरीदना हो तो दादा को डिस्टर्ब करता। प्रॉग्रेस और रादुगा प्रकाशन की किताबों के 2-4 आने या रूपया -दो- रुपया दाम होता। मैं भी किताबें पलटता और अच्छी लगतीं तो खरीदता। साहित्य से दूरी पर विज्ञान का विद्यार्थी था और भारतीय दर्शन, ऐतिहासिक कालक्रम और विश्व साहित्य की कालजयी रचनाएं वहीं पढ़ता-खरीदता। शुरू में मैं सोचता था दादा बंगाली हैं लेकिन वे वहीं के स्थानीय मुसलमान थे। साहित्य और दर्शन की ही नहीं फीजिक्स और गणित की बहुत अच्छी किताबें भी वहां होती। वहां से खरीदी एब्सट्रैक्ट अल्जेब्रा की एक किताब रिटायरमेंट तक सहेजे रखा और फिर यह सोचकर कि इस जीवन में अब गणित पढ़ने का मौका नहीं मिलेगा, लाइब्रेरी को दे दिया। क्षमा कीजिए नॉस्टल्जियाकर कलकत्ता की कॉलेज स्ट्रीट से इलाहाबाद के यूनिवर्सिटी रोड पहुंच गया। युनिवर्सिटी रोड भी किताबों की बाजार है लेकिन कॉ़लेज स्ट्रीट की तुलना में लगभग नगण्य।