Sunday, April 6, 2025

लल्लापुराण 334 (पुनर्परिचय)

 पुनर्परिचय

भाग 1 वैसे तो इस ग्रुप में बहुत सालों से आता-जाता रहा हूं या यों कहें कि बुलाया-निकाला-बुलाया जाता रहा हूं, इसलिए एकाधिक बार व्यक्तित्व के अलग-अलग कुछ पहलुओं का परिचय दे चुका हूं। इस बार बिनबुलाए खुद आया हूं, तो दुबारा परिच देना तो बनता ही है। इस ग्रुप के बहुत से लोग मेरा नाम देखते ही वामपंथ को गालियां देने लगते हैं। तो यहीं से नया परिचय शुरू करता हूं। जी हां, वामपंथ के संकीर्णतावादी यथास्थितिवाद (दक्षिणपंथ) के विरुद्ध जनपक्षीय, विवेकसम्मत परिवर्तनकामी विचारधारा के व्यापक अर्थों में मेैं वामपंथी हूं, किसी स्थापित पार्टी के सदस्य के रूप में नहीं। अतीत में विश्वविद्यालय और नौकरियों की तरह पार्टियों से भी निकलता निकाला जाता रहा हूं। शुरुआत 18 साल की उम्र में एबीवीपी छोड़ने से हुई। इसलिए किसी पार्टी को जब वाजिब गाली दी जाती है तो मुझे नहीं खलता लेकिन पढ़े-लिखे लोगों के समूह में सड़कछाप भाषा में गाली-गलौच बुरी लगती है और वामपंथ की परिभाषा या भाषा की तमीज का स्रोत पूछ देता हूूं, जिससे लोग नाराज हो जाते हैं। अतीत में एकाध बार मैंने वामपंथ पर सार्थक विमर्श का प्रयास किया जिसमें Raj K Mishra ने ही ईमानदारी से भागीदारी की। उन्होंने पोस्ट-कमेंट्स संकलित कर अपने ब्लॉग में भी सेव किया था। इस बार ऐसा कोई विमर्श शुरू करने का इरादा नहीं है, जारी विमर्शों में हल्के-फुल्के कमेंट्स तक ही सीमित रहने की सोच कर आया हूं। असह्य अशिष्ट भाषा में निजी आक्षेप वालों का जवाब देने की बजाय उनसे पारस्परिक अदृष्यता की नीति अपनाऊंगा। मेरा धुर दक्षिणपंथ (एबीवीपी/RSS) से सैद्धांतिक वामपंथ (मार्क्सवाद) में संक्रमण प्रमुखतः किताबों के जरिए हुआ और कट्टर कर्मकांडी ब्राह्मण बालक से प्रमाणिक नास्तिक में हर बात पर सवाल करते हुए जीवन के अनुभवों से, जिसे मुहावरे की भाषा में बाभन से इंसान बनना कहता हूं। इस मुहावरे का मतलब जन्म की संयोगात मिली अस्मिता से ऊपर उठकर एक विवेकसम्मत अस्मिता अख्तियार करना। बाकी भाग 2 में जारी।

1 comment: