Wednesday, November 19, 2025

बेतरतीब 180 (बचपन 2)

 1964 में प्राइमरी यानि कक्षा 5 की परीक्षा पास करने के, बाद सबसे नजदीकी स्कूल लग्गूपुर पढ़ने गया जो हमारे गांव से 6-7 किमी दूर था। स्कूल लग्गूपुर गांव में एक जमींदार,  सरजू पांडे की विशालकाय कोठी के आहाते में था, लेकिन उसका नाम जूनियर हाई स्कूल पवई था। पवई उस गांव से सटी हुई (लगभग 1किमी दूर) बाजार है।  पांडे जी ने कोठी गोरखपुर में रहने वाले अपने दामाद क नाम संकल्प कर दिया था, और खाली रहती थी। उसी से सटा एक खपड़ैल बनाकर पति-पत्नी, उसी में रहते थे।सुना है, उसी गांव में ग्राम समाज की जमीन में वह स्कूल अलग भवन में बन गया है, मुझे कभी नजदीक से देखने का मौका नहीं मिला। अबकी बार गांव जाऊंगा तो देखने जाऊंगा। कोठी के बरामदे में कक्षा 8 की पढ़ाई होती थी और बरामदे से सटे दो कमरे ऑफिस और स्टाफ रूम के रूप में इस्तेमाल हते थे। कोठी के आहाे में विशाल अशोक के पेड़ के इर्द-गिर्द दो मड़हों में कक्षा 7 और कक्षा 6 के क्लास चलते थे। अशोक के नीचेे कुर्सियों पर शिक्षक बैठते थे। 


 हमारे साथ कक्षा 4 में पढ़ने वाले लड़के तब कक्षा 5 में आए। हमारे सहपाठियों में हमारे गांव के रमाकर उपाध्याय अपने बड़े भाई के साथ कलकत्ता चले गए, बाकी अगल-बगल को गांवों के लड़के कहां गए, याद नहीं है। प्रभाकर जी कलकत्ता में किसी स्कूल में नौकरी करते थे। वे तब तक के हमारे गांव के चंद पढ़े-लिखे लोगों में थे। उन्हीं जितना पढ़े, सुर्जू भाई (सूर्यकुमार मिश्र) जौनपुर जिला कृषि कार्यालय में नौकरी करते थे। अपने गांव क स्कूल से कक्षा 6 में लग्गूपुर पढ़ने जाने वाला मैं अकेला छात्र था, कक्षा 7 में कोई नहीं था। कक्षा 8 में 3 लोग थे, तीनों मेरे भइया के हमउम्र थे, भइया उसी साल 1964 में आठवीं पास कर, हाई स्कूल में पढ़ने गांव से 12 मील दूर, शाहगंज चले गए थे। जब मैं कक्षा6 में लग्गूपुर जाना शुरू किया तो साथ जाने वाले, कक्षा 8 के 3 लोग थे – राम बचन सिंह; सती प्रसाद मिश्र (लंगड़) तथा रामकिशोर मिश्र (बचूड़ी)। सती प्रसाद और किशोर क्रमशः चाचा भतीजे थे। लंगड़ भाई का नाम लंगड़ क्यों पड़ा, समझ में नहीं आता था, उनके पैर बिल्कुल दुरुस्त थे। वैसे गांव की संवेदनशीलता काफी क्रूर होती है, पैरों में कुछ खराबी वाले का बुलाने का नाम लंगड़ पड़ जाता था और नेत्रहीन का सूरदास। किशोर बताते हैं कि उनका और मेरे भइया तथा ठकुरइया के कनिक बाबा (कनिक बहादुर सिंह) के बेटे सत्येंद्र सिंह का जन्म एक-दो दिन के अंतर पर हुआ था। किशोर गांव के  रिश्ते में भतीजे लगते हैं, उम्र में 4-5 साल बड़े होने के बावजूद मिलने पर या फोन पर चाचा जी संबोधन के साथ ही बात करते हैं। फौज में थे, शायद सूबेदार के पद से रिटायर होकर अब इलाहाबाद में बस गए हैं। सती प्रसाद कलकत्ता में बैंक में नौकरी करते थे, 7-8 साल पहले कलकत्ता से गांव आते समय गया में ट्रेन से गिर कर घायल हो गए थे जिन्हें वहीं रेलवे अस्पताल में भर्ती कराया गया लेकिन वेे बचे नहीं।राम बचन सिंह दिल्ली में स्टेट्समैंन में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे, 8-10 साल पहले किसी बीमारी से उनका निधन हो गया। इनके हमउम्र हमारे भइया का दिसंबर, 2023 में किडनी आदि की बीमारी से नोएडा के एक अस्पताल में निधन हो गया। 


टेक्स्ट के बीच में फुटनोट की पुरानी आदत के लिए माफी के साथ आगे की कहानी यह है कि कक्षा 8 के अपने तीनें सीनियरों के साथ 10 बजे सग्गूपुर पहुंचने के लिए सुबह लगभग 7 बजे हम घर से निकल पड़ते थे, गांव पार करते करते ये तीनों लोग मिल जाते थे। हमारा पहला पड़ाव, लगभग डेढ़ किमी दूर, सलारपुर की मुर्दहिया बाग में होता था, वहां बगल के गांवों बखरिया के ठकुरी यादव और केदार यादव और चकिया के किशोर (छोटकू) कहांर मिलते थे और हम सलारपुर गांव के अंदर होतेे हुए गद्दोपुर के यमुना ताल पर पहुंचते थे। सलारपुर में घुसते ही पहला घर अंगनू कोहांर का था। अगनू भी कक्षा 8 में पढ़ते थे। अंगनू और सलारपुर के 2-3 लड़के और साथ हो लेते तथा सलारपुर के जुड़वां गांव रामनगर के कुछ लड़के यमुना ताल पर मिलते रामपुर के लड़कों में जयहिंद राजभर और विनोद सिंह और अभिमन्यु सिंह कक्षा 8 में थे, रामकेवल सिंह कक्षा 6 में हमारे साथ तथा कक्षा 6 और 7 में भी कुछ और लड़के थे, जिनके नामयाद नहीं हैं। यमुना ताल के पड़ाव के बाद हम गद्दोपुर पहुंचते थे वहां पांडे लोगों के कुंए पर पानी पिया जाता तथा वहां के 3-4 लड़कों के साथ आगे बढ़ते और हमारा आखिरी पड़ाव लग्गूपुर के पहले फुलवरिया बाग में होता, यदि समय बचा होता तो हम वहां कुछ खेलते और फिर लग्गूपुर गांव के अंदर होते हुए अपने स्कूल पर पहुंते। 


मिडिल स्कूल में 2 मौलवी साहब थे, ताहिर अली (हेड मास्टर) और आले हसन; एक बाबू साहब, श्याम नारायण सिंह; एक मुंशी जी (चंद्रबली यादव) तथा एक राय साहब (राम बदन राय)। राय साहब का गांव दूर था, इसलिए स्कूल पर ही रुकते थे। राय ससाहब का पोता दिल्ली विश्वविद्यालय के केएम कॉलेज में पढ़ता था, गांव पता चलने पर पूछा था कि उसके गांव (आजमगढ़ जिले में दुर्बासा के पास) के आसपास के मेरे एक शिक्षक थे तो उसने बताया कि वे जीवित थे और उसके दादा जी थे (2लाल पहले उनका देहांत हुआ)। 2012 में मैं अपनी ससुराल (मेरे गांव से लगभग 35 किमी) से मोटर साइकिल से घर जा रहा था, मुख्य सड़क  से अपने गांव मुड़ते समय दिमाग में राय साहब से मिलने की बात आई और मुड़ा नहीं आगे बढ़ गया और वहां से सगभग 40 किमी दूर दुर्बासा पहुंचकर घाट पर चाय के साथ पुरानी यादें ताजा करके नए बने पुल से नदी पार कर, राय साहब के गांव (पश्चिम पट्टी) पहुंच गया। मैने 1967 में मिडिल पास किया था और ताज्जुब हुआ कि  45 साल बाद भी राय साहब ने बताने पर पहचान लिया और मेरे बारे में उस समय की कई बातें याद दिलाया। हमने 1964 में जब जूनियर हाई स्कूल पवई में कक्षा 6 में दाखिला लिया तो वहां 4 शिक्षक थे: प्रधानाध्यापक छोटे कद के, बड़े मौलवी साहब,ताहिर हुसैन; और लंबे कद के छोटे मौलवी साहब, आले हसन; बाबू साहब, श्याम नारायण सिंह और कृषि मास्टर मुंशीजी चंद्रबली यादव। बड़े मौलवी साहब कक्षा 6 को नहीं पढ़ाते थे। 


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