1970 के दशक के मध्य में जब लगा कि नौकरी करने को अभिशप्त हैं तो विकल्पों के विलोपन की प्रक्रिया से भान हुआ कि यही एक नौकरी कर सकता हूं, इसलिए नौकरी की मेरा कोई दूसरा प्रिफरेंस ही नहीं था लेकिन उच्च शिक्षा की मठाधीशी व्यवस्था की आचार संहिता के अनुरूप रंगढंग ठीक नहीं किया। कम उम्र में नास्तिक हो गया, जब गडवै नहीं तो गॉडफदरवा कहां से होता। 1984 में इलाहाबाद में एक घंटे से ज्यादा लंबा इंटरविव चला। 6 पद थे, इतने आशान्वित हो गए कि सोचने लगा कि झूसी नया बस रहा है वहां घर लिया जाए कि गंगा के इस पार तेलियरगंज/मम्फोर्डगंज। आरपी मिश्रा वीसी थे, 2-3 साल बाद मिले और बताए कि मेरे इंटरविव से वे इतने प्रभावित थे कि मेरा नाम पैनल में सातवें नंबर पर रखवाने में सफल रहे। मैंने कहा कि 6 पद थे तो सातवें पर रखे या सत्तरवें पर। खैर उच्च शिक्षा की 99% नौकरियां extra acadenic considerations पर मिलती हैं, 1% accidently, कई संयोगों के टकराने से। पहले तो खैर गॉडफादरी ही चलती थी अब तो सुनते हैं, झंडेवालान की संस्तुति के अलावा पैसा भी चलता है । मेरा मानना है कि यदि आधे शिक्षक भी शिक्षक होने का महत्व समझ लें तो सामाजिक क्रांति का पथ अपने आप प्रशस्त हो जाएगा। लेकिन ज्यादातर अभागे हैं, महज नौकरी करते हैं। मुझसे तो लोग कहते थे कि मेरे साथ नाइंसाफी हुई नौकरी देर से मिली। मैं कहता था कि नाइंसाफी की बाततो तब करूं यदि मानूं कि यह न्यायपूर्ण समाज है, और अन्यायपूर्ण समाजमें निजी अन्याय की शिकायत क्यों? जहांतक देर से मिलने का सवाल है तो सवाल उल्टा होना चाहिए कि मिल कैसे गयी? मेरे एक अग्रज मित्र हैं, प्रोफेसर रमेश दीक्षित उनसे पेंसन में झंझट की बात हो रही थी, तो उन्होंने कहा कि उन्हें तो यकीन ही नहीं होरहा था कि मुझे नौकरी मिल गयी और रिटायर होने तक चल गयी। मुझसे कोई पेंसन में गड़बड़ी का कारण पूछता है तो कहता हूं कि नतमस्तक समाज में सिर उठाकर जीना मंहगा शौक है। क्षमा कीजिएगा ग्रुप में नया हूं और लंबा भाषण दे दिया। आप लोगों में से जो भी शिक्षक हैं, उनसे यही निवेदन करूंगा कि शिक्षक होने का महत्व समझिए। शुभकामनाएं।
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