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जेपी अपने राजनैतिक जीवन के अंतिम चरण में वैचारिक दिग्भ्रम के शिकार थे, 1970 की दशक की शुरुआत में राजनैतिक हाशिए पर खिसक चुके थे, तभी बिहार छात्र आंदोलन को नेता की जरूरत थी और जेपी को मंच की। मंच मिलने पर उन्होंने बिना परिभाषित किए संपूर्ण क्रांति का भ्रामक नारा दिया और उसके लिए उन्होंने हिंदुत्व फासीवाद को अपना प्रमुख सहयोगी बनाया। और इस तरह 1960 के दशक में दीनदयाल उपाध्याय से समझौता कर आरएसएस को सामाजिक स्वीकार्यता दिलाने के लोहिया की परियोजना को आगे बढ़ाया। वैचारिक रूप से 1934-42 जेपी के जीवन का स्वर्णकाल था।
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