बचपन
याद नहीं कि कब स्कूल जाना शुरू किया। उस समय गांव के लड़के बहुत बचपन में स्कूल नहीं जाते थे, ठीक-ठाक बड़े होकर स्कूल जाते थे। मेरा छोटा भाई मुझसे डेढ़-दो साल ही छोटा था और घर के काम के साथ मां (माई) उसे संभालने में रहती थी। मेरा बचपन ज्यादातर अइया (दादी) के साथ बीता। वैसे भी मुझे जहां तक याद है उस समय ज्यादातर बच्चे आपस में ही खेलते-कूदते व्यस्तरहते थे। मैं अपेक्षाकृत बहुत छोटा था तभी बड़े भाई के साथ स्कूल चल देता था।याद तो नहीं है कि किसउम्र में स्कूल जाना शुरू किया लेकिन प्राइमरी, यानि कक्षा 5, मैंने 1964 में पास किया। वहां से उल्टी गिनती करने पर लगता है कि गदहिया गोल या अलिफ में स्कूल में दाखिला, जुलाई 1960 मे लिया था। अब लगता है कि गांव की लोकसंवेदना कितनी क्रूर होती थी किअनंत संभावनाओं वाले प्री-प्राइमरी के बच्चों को गधा संबोधित किया जाता था, प्रीप्-राइइमरी को गदहिया गोल कहा जाता था। 1964 में पांचवीं पास किया तो 1963-64 सत्र में चौथी में गया क्योंकि कक्षा 4 में कुछ दिन पढ़ने के बाद उसी साल एक कक्षा फांदकर कक्षा 5 में चला गया था। यानि 1962-63 में कक्षा 3 की पढ़ाई की और 1961-62 में कक्षा 2 की और 1960-61 में कक्षा 1 और गदहिया गोल की। अंको की गणना और पहाड़ा मेरी समझ अच्छी थी। पहाड़ा का तर्क समझ में आ गया और मैं ज्यादा अंकों का पहाड़ा पढ़ लेता था। अंकों या भाषा (अक्षर ज्ञान) की किस बात से प्रभावित होकर पंडितजी ने हमें गदहिया गल से कक्षा एक में प्रोमोट कर दिया, अब ठीक-ठीक याद नहीं है।
हमारा स्कूल गांव के बाहर ऊसर में था, अब तो वहां बाजार लगती है और चौराहा बन गया है। हमारा घर बभनौटी, बाभनों (ब्राह्मणों) के टोले में था। स्कूल जाने के दो रास्ते थे। एक गोयड़े के खेत की मेड़ों से होते हुए अहिराना यानि अहिरों(यादवों) के टोले से निकल कर शहीद के थाने होते हुए लिलवा के ताल की बाग से होकर जाा था और दूसरा धोबियाना (धोबियों की बस्ती) होते हुए ठकुरइया (ठाकुरों का टोला) पार करते हुए निघसिया ताल के पास से होते हुए चमरौटी (चमारों की बस्ती) से पूरब के रास्ते से होते हुए जाता था। शहीद के थाने (स्थान) के पास दो खीर के विशाल पेड़ थे। कई और फलों के कई पेड़ों की तरह खीर भी गायब हो गया। एक फल होता था कैंत- बेल के आकार का फल होता था तथा बेल की ही ही तरह कठोर। जिसे फोड़कर खट्टा-मीठा खाद्य निकलता, अब कहीं नहीं दिखता। दूसरा एक फल होता था जंगल जलेबी। उसका पेड़ बबूल की तरह होता था और फल जलेबी के आकार का। फली का छिलका हटाकर और बीज निकाल कर अलग ढंग की मिठास होती थी। गांव की बसावट जातीय कुनबों के आधार पर थी। लगता है कि एक-दो परिवार से बढ़कर पूरा टोला बन गया होगा। स्कूल के पहले ठाकुरों की आम की बाग थी और स्कूल के बाहर नीम के पेड़ के नीचे एक कुंआ। गांव की जमीनें ज्यादातर ठाकुरों की थी और ज्यादातर दलित लगभग भूमिहीन थे। हमारे बचपन में वर्णाश्रम जस-का-तस बरकारार था, हल्की-फुल्की दरारें पड़ रही थीं। रूसो ने अपनी कालजयी कृति, सामाजिक अनुबंध (Social Contract) की शुरुआत “मनुष्य पैदा स्वतंत्र होता है, लेकिन खुद को बंधनों में जकड़ा हुआ पाता है”। भारत में हम पैदा होते ही जाति-धर्म के बंधनों में जकड़ा पाता है। पैदा होते ही मैं ब्राह्मण बन गया था और जातिगत श्रेणाबद्धता में ब्राह्मण पैदा होते ही ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध में जकड़ गया था। ब्राह्मणीय श्रेष्ताबोध स्वाभािक था, इसलिए वर्णाश्रमी व्यवस्था स्वाभाविक लगती थी। हमारे प्राइमरी के हेड मास्टर दलित लड़कों को स्कूल से मारकर यह कहते हुए भगाते थे कि ‘चमार-सियार’सब पढ़ लेंगे तो हल कौन जोतेगा? और जब गांव का कोई देखता तो वे अपना वक्तव्य सुधार लेते थे, ‘भागो कहांतक भागोगोे’ लोगों को लगता था कि बाहू साहब कितने कर्तव्यनिष्छ शिक्षक हैं ‘लड़कों को पकड़-पकड़ कर स्कूल ले जाते हैं’ और 6-7 साल के दलित बच्चे पर कौन यकीन करता? ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबद्ध में जकड़े होने कि नाते उस समय मुझे इसमें कोई गड़बड़ी नहीं लगती थी। बच्चा रूसो के प्राकृतिक मनुष्य की तरह अच्छा-बुरा, नैतिक-अनैतिक के बोध से मुक्त होता है, अच्छाई-बुराई या नैतिकता-अनैतिकता की समझ बड़े होने के दौरान समाज में बती है। बड़ा होने लगा तो ‘बाभन से इंसान बनने’ में कठिन आत्म संघर्ष से गुजरना पड़ा।
हमारे गांव के प्राइमरी में स्कूल में 3 कमरे थे और 3 शिक्षक, रामबरन 'मुंशीजी' हेडमास्टर थे और एक कमरे में वे कक्षा 4और 5 को पढ़ाते थे और उनसे जूनियर 'बाबू साहब' थे, वासुदेव सिंह, जो कक्षा 2 और 3 को दूसरे कमरे में पढ़ाते थे। 'पंडित जी' सीतीाराम मिश्र सबसे जूनियर थे वे कक्षा 1 और गदहिया गोल (अलिफ या प्रीप्रािमरी) को तीसरे कमरे में पढ़ाते थे।हमारे स्कूल की इमारत मिट्टी और ईंट की दीवारों बनी खपड़ैल इमारत थी, मुख्य कमरे के चारों तरफ 4 बरामदे थे। सामने का बरमदा खुला था तथा बाकी तीनों तरफ के बंद कमरे के रूप में थे। मुख्य कमरे में कुर्सी-मेज, टाट-पट्टी, श्यामपट तथा स्कूल के अन्य सामान रखे जाते थे। मुंशीजी पतुरिया जाति के थे। पंडित जी हमारे ही गांव (सुलेमापुर) के हमारे ही विस्तृत कुटुंब के थे। बाबू साहब, हमारे गांव से उत्तर, बगल के गांव, नदी उस पार बेगीकोल के थे। वैसे उनका एक घर (पाही) इस पार, हमारे गांव के पश्चिम गोखवल में भी था। मुंशी जी गांव के दक्खिन पश्चिम के बगल के गांव अंड़िका के थे। ब्राह्मण शिक्षक को पंडित जी, ठाकुर को बाबू साहब, भूमिहार को राय साहब, मुसलमान को मौलवी साहब तथा कायस्थ समेतअन्य हिंदू जातियों के शिक्षकों को मुंशी जी कहा जाता था। गदहिया गोल में अक्षरज्ञान के लिए हमलोग लकड़ी के छोटे श्यामपट (तख्ती) पर, खड़िया(चाक) से लिखते थे जिसे कालिख पोचारे से साफ या काला किया जाता था। दो विषय थे भाषा (हिंदी) और गणित यानि संख्या ज्ञान। हिंदी हमें अंग्रेजी की ही तरहल एक विषय लगती थी, हमारी बोल-चाल की भाषा अवधी थी। शुरुआती पढ़ाई-लिखाई अक्षर तथा संख्या ज्ञान से हुई। दोपहर बाद हम गिनती बोल बोल कर पढ़ते थे। 1 से 10 की गिनतियां याद करने के बाद दहाई-इकाई में याद करते थे। जैसे दस दो बारह-एक दहाई+ दो इकाई। उस समय मैं ही नहीं सभी बच्चे इकाई का इ गायब कर दुहराते थे, जैसे बीस तीन तेइस दो दहाई 3 काई।
पंडित जी ने संख्या (गणित) में मेरी रुचि देखकर गदहिया गोल से एक में कुदा दिया। इस तरह मैं 1960-1961 में गदहिया-गोल और कक्षा 1 की पढ़ाई पूरी करके1961-62 में कक्षा 2 में चला गया तथा बाबू साहब पढ़ाने लगे। कक्षा 2 और कक्षा 3 में काफी दिन बाबू साहब ने पढ़ाया। मेरे कक्षा 3 के आखिरी दिनों में मुंशी जी रिटायर हो गए और बाबू साहब हेड मास्टर होकर कक्षा 4-5 को पढ़ाने लगे और पंडित जी कक्षा 2 और 3 को। इस तरह कक्षा 3 के कुछ दिन और कुछ दिन कक्षा 4 के कुछ दिन हमें बाबू साहब ने पढ़ाया और राम बरन मुंशी जी के रिटायर होने के बाद, कक्षा 3 के बचे दिन पंडित जी ने। इस तरह हमें सबसे अधिक बाबू साहब ने पढ़ाया। कक्षा 3 में तथा कक्षा 4 में कुछ दिन और कक्षा 5 में। कक्षा 4 में कुछ दिन क्योंकि कुछ दिनों बाद में कक्षा 5 में प्रोमोट हो गया। रामबरन मुंशी जी केरिटायर होने के बाद नए शिक्षक आए, रमझूराम मुंशी जी दलित जाति के थे। वरीयता क्रम में सबसे जूनियर होने के चलते वे गदहिया गोल और कक्षा 1 को पढ़ाने लगे। इस तरह मुझे न तो रामबरन मुंशी जी ने पढ़ाया न ही रमझूराम मुंशी जी ने। रामबरन मुंशी जी बहुत अच्छे थे, जिनसे उनके रिटायर होने के बाद स्कूल के बाहर कभी कभी मुलाकात होती रहती थी।
कक्षा 4 और 5 की पढ़ाई एक कमरे में होती थी, जहां कक्षा 5 की कतार की टाट खत्म होती वहीं से कक्षा 4 की टाट शुरू होती थी। कक्षा 4 में डिप्टी साहब (एसडीआई) मुआइना करने आए थे। गांव के स्कूलों में डिप्टी साहब का आना एक बड़ी परिघटना होती थी।कई दिन से उनके स्वागतकी तैयारी शुरू हो जाती थी। उन्होंने कक्षा 5 के लड़कों से गणित (अंक गणित) का कोई सवाल पूछा, सब खड़े होते गए। मेरे लिए सवाल सरल सा था, कक्षा 5 की टाट खत्म होते ही कक्षा 4 की टाट पर, छोटे कद का होने के चलते सबसे आगे मैं बैठता था। कक्षा 5 में 6-7 लड़के थे और कक्षा 4 में 9-10। जब कक्षा 5 के सब लड़के खड़े हो गए तो मेरा नंबर आ गया और मैंने तपाक से उस सवाल का जवाब दे दिया। डिप्टी साहब साबाशी देने लगे तो बाबू साहब ने शाबाशी का गुरुत्व बढ़ाने के लिए उन्हें बताया कि मैं अभी कक्षा 4 में था। डिप्टी साहब बोले, ‘इसे 5 में कीजिए’। अगले दिन, मैं बड़े भाई की पढ़ी कक्षा 5 की किताबें (भाषा और गणित) तथा एक नई डेबई बनिया की दुकान से एक गोपाल छाप कॉपी खरीदकर लेकर आया और कक्षा 5 की टाट पर आगे बैठ गया। बाबू साहब ने मुझे वहां से उठकर अपनी पुरानी जगह पर जाने को कहा। मैंने कहा कि डिप्टी साहब ने मुझे 5 में पढ़ने को कहा है। बाबू साहब ने तंज के लहजे में कहा कि "भेंटी पर क बाटा लग्गूपुर पढ़ै जाबा तो सलार पुर के बहवा में बहि जाबा" (छोटे से हो लग्गूपुर पढ़ने जाओगे तो सलारपुर के बाहे में बह जाओगे)। मैंने कहा, "चाहे बहि जाई चाहे बुड़ि जाई, डिप्टी साहब कहि देहेन त हम अब पांचै में पढ़ब" (चाहे बह जाऊं या डूब जाऊंं, डिप्टी साहब ने कह दिया तो मैं अब 5 में ही पढ़ूंगा)। इस करह मैं कक्षा 4 से 5 में प्रोमोट हो गया। हमारे गांव से सबसे नजदीक मिडिल स्कूल 6-7 किमी दूर, लग्गूपुर था। स्कूल लग्गूपुर में लेकिन बगल की बाजार पवई में थी। स्कूल को अधिकारिक रूप से ‘जूनियर हाई स्कूल पवई कहा जाता था। बगल का गांव सलारपुर है, बरसात में खेत से तालाब में पानी निकासी के नाले को बाहा कहा जाता था। एक दिन, मिडिल स्कूल में पढ़ने जाना शुरू करने के दूसरे-तीसरे दिन मैं सही में सलारपुर के बाहे में बहने लगा था। कक्षा 8 के बचूड़ी (राम किशोर मिश्र) ने मुझे पकड़ा और तब से सजग होकर बाहा पार करने लगा और फिर कभी नहीं बहा। अब न तो तालाब बचे हैं न ही बाहा। इस तरह, एक मौखिक सवाल की परीक्षा से मैं कक्षा 4 से 5 में चला गया।
मिडिल स्कूल में 2 मौलवी साहब थे, ताहिर अली (हेड मास्टर) और आले हसन; एक बाबू साहब, श्याम नारायण सिंह; एक मुंशी जी (चंद्रबली यादव) तथा एक राय साहब (राम बदन राय)। राय साहब का गांव दूर था, इसलिए स्कूल पर ही रुकते थे। राय ससाहब का पोता दिल्ली विश्वविद्यालय के केएम कॉलेज में पढ़ता था, गांव पता चलने पर पूछा था कि उसके गांव (आजमगढ़ जिले में दुर्बासा के पास) के आसपास के मेरे एक शिक्षक थे तो उसने बताया कि वे जीवित थे और उसके दादा जी थे (2लाल पहले उनका देहांत हुआ)। 2012 में मैं अपनी ससुराल (मेरे गांव से लगभग 35 किमी) से मोटर साइकिल से घर जा रहा था, मुख्य सड़क से अपने गांव मुड़ते समय दिमाग में राय साहब से मिलने की बात आई और मुड़ा नहीं आगे बढ़ गया और वहां से सगभग 40 किमी दूर दुर्बासा पहुंचकर घाट पर चाय के साथ पुरानी यादें ताजा करके नए बने पुल से नदी पार कर, राय साहब के गांव (पश्चिम पट्टी) पहुंच गया। मैने 1967 में मिडिल पास किया था और ताज्जुब हुआ कि 45 साल बाद भी राय साहब ने बताने पर पहचान लिया और मेरे बारे में उस समय की कई बातें याद दिलाया। हमने 1964 में जब जूनियर हाई स्कूल पवई में कक्षा 6 में दाखिला लिया तो वहां 4 शिक्षक थे: प्रधानाध्यापक छोटे कद के, बड़े मौलवी साहब,ताहिर हुसैन; और लंबे कद के छोटे मौलवी साहब, आले हसन; बाबू साहब, श्याम नारायण सिंह और कृषि मास्टर मुंशीजी चंद्रबली यादव। बड़े मौलवी साहब कक्षा 6 को नहीं पढ़ाते थे।
........ जारी
08.11.2025

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