लोहिया हमेशा दुविधा तथा नेहरू को लेकर सापेक्ष हीनग्रंथि के शिकार रहे। आज आरएसएस की गोद में खेलने वाले समाजवादी लोहिया की ही विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। जब सीएसपी के परचम के तले कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट संयुक्तमोर्चा के तहत मजदूर-किसान-छात्रों की लामबंदी कर रहे थे तब लोहिया, मीनू मसानी और अशोक मेहता के साथ टॉर्च-खुरपी लेकर कम्युनिस्ट कॉन्सपिरेसी खोद रहे थे। सांप्रदायिकता की समझ इतनी खोखली थी कि कांग्रेस के विरुद्ध आरएसएस के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए दीनदयाल उपाध्याय से समझौता किया और सांप्रदायिकता को सामाजिक स्वीकृति हासिल कराने में सहायक बने। 1960 के दशक में सांप्रदायिकता को सम्मान दिलाने में जो काम लोहिया ने किया था, 1970 के दशक में राजनैतिक अप्रासंगिकता का संकट झेल रहे जेपी ने आरएसएस को तथाकथित संपूर्ण क्रांति का सिरमौर बनाकर, उसे आगे बढ़ाया। इन दोनों लोगों की नीयत और ईमानदारी पर संदेह किए बिना कहा जा सकता है कि इनके सहयोग के बिना सांप्रदायिक फासीवाद इस मुकाम तक नहीं पहुंच सकता था।
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