उर्दू को नागरी लिपि में लिखने की हिमायत की एक पोस्ट पर कमेंट:
हिंदी के जाने-माने साहित्यकार Asghar Wajahat हिंदी-उर्दू को रोमन लिपि में लिखने के पैरवीकार हैं, मैं इसे अनुचित मानता हूं, उसी तरह उर्दू को देवनागरी में लिखने को भी अनुचित मानता हूं। नव-उदारवाद विविधता को समाप्त कर एकरूपता का हिमायत करता है। विविधता के सौंदर्यशास्त्रीय पक्ष छोड़ भी दें तो ऐतिहासिक रूप से भाषा-लिपि की एकरीपता का प्रयास ऐतिहासिक विस्तारवाद और छोटी-बड़ी मछली की कहावत चरितार्थ करती है। यूरोपीय देशों में प्रमुख भाषाएं स्थानीय भाषाओं को निगल गयीं। गांधीजी ने 1919 में करांग्रेस अधिवेशन में हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय संपर्क की भाषा बनाने का प्रस्ताव पेश किया था। हिंदुस्तानी का मतलब उत्तर भारत में बोली जाने वाली भाषा, जिसेकुछ लोग नागरी लिपि में लिखते हैं और कुछ लोग फारसी में। दोनों ही पक्षों के शुद्धतावादी, संकीर्णतावादियों ने इसका विरोध किया था। हिंदी शुद्धतावादी खड़ी बोली के रूप में विकसित हो रही हिंदी को संस्कृतनिष्ठ बनाने के पक्षधर थे और बाजार की भाषा के रूप में विकसित उर्दू में फारसी और अरबी के शब्द घुसेड़ने के। दक्षिण भारत समेत गैर हिंदी भाषी प्रांतो के ज्यादातर प्रतिनिधि गांधीजी के प्रस्ताव के समर्थक थे। 1949 में हिंदी-हिंदुस्तानी के मुद्दे पर संविधान सभा के मतदान में दोनों पक्षों में बराबरी का मामला था।राजंद्र प्रसाद के अध्यक्षीय मत ने पलड़ा हिंदी के पक्ष में भारी कर दिया। हमें दूसरी भाषाओं के प्रचलित शब्दों को ग्रहण करके हिंदीहिंदुस्तानी को समद्ध करना चाहिए। पाजामा-चश्मा जैसे तमाम शब्दों के संल्कृतनिष्ठ समतुल्य ढूंढ़ने की बजाय उन्हें को जस-का-तस स्वीकार कर लेना चाहिए। भाषा का सांप्रदायिक विभाजन भी समाज के सांप्रदायिक विभाजन में मददगार रहा है। मैंने तो बांगला और उर्दू लिखना लिपि की कलात्मक (कैलीग्राफिक) संरचना के चलते सीखा था और उर्दू लिपि सीखने के बाद नई खरीदी किताबों पर उंग्रेजी के आई को उर्दू का अलिफ बनाकर दाएं-बाएं दोनों तरफ से ईश लिखता था। मेरी निजी राय में बचे-खुचे उर्दू वालों पर लिपि का दबाव नहीं डालना चाहिए, लिप्यांतर की सुविधा गूगल ने दे ही रखा है।
No comments:
Post a Comment