एक पोस्ट पर एक कमेंट:
इतिहास में क्या होता तो क्या होता, की बहस निरर्थक है, इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जगमोहन ने जिस बात पर इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त किया वह आज के संदर्भ में कोई मुद्दा ही नहीं होता जब चुनाव आयोग ही सरकार का पट्टाधारी बना हुआ है। लोया ने तो मोदी को नहीं अमित शाह को भी सजा नहीं दिया था, बस क्लीन चिट देने से इंकार किया था। वैसे कोर्ट ने इंदिरा गांधी को सुप्रीम कोर्ट जाने का समय दिया था, फैसले के स्टे होने की पूरी संभावना थी। लेकिन न्यायिक संकट को साथ राजनैतिक संकट भी जुड़ गया था। बिहार छात्र आंदोलन ने राजनैतिक रूप से अप्रासंगिक होकर राजनैतिक वनवास झेल रहे जेपी को नायक बना दिया तथा महानायक बनने के लिए उन्होंने सेना से बगावत की गुहार लगा दी। आज कोई नेता किसी नुक्कड़ सभा में ऐसी बात कह देता तो संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर उसकी गिरफ्तारी की नौबत ही नहीं आती, देशद्रोही घोषित कर भक्त उसे वहीं लिंच कर देते। आपकी बात में भी दम है कि फैसले के बाद इस्तीफा देकर इंदिरा जी को संजय गांधी को प्रधानमंत्री बना देना चाहिए था, कांग्रेस के 350 सांसद वफादार सिपाहियों की तरह संजय का जयकारा करते। तुर्कमानगेट जैसे कांडों के डलते आरएसएस भी समर्थन देता और न इमर्जेंसी लगती न जनता पार्टी बनती, हो सकता है संजय गांघी मोदी सा ही तानाशाह होता, लेकिन आरएसएस सा फासिस्ट सामाजिक आधार न होने से फासिस्ट न बन पाता। वैसे मैं भी उस समय इंदिरा-संजय का कट्टर विरोधी था। न जेपी भ्रमित संपूर्ण क्रांति का नारा उछालकर महानायक बनते न आरएसएस की सांप्रदायिकता को सामाजिक स्वीकृति मिलती। लेकिन क्या होता तो क्या होता बेकार की बात है, जो हुआ वही होता।
No comments:
Post a Comment