Tuesday, October 13, 2020

बेतरतीब 87 (इग्नू) -- 1

बेतरतीब 87 (इग्नू) -- 1



सारंगा स्वर की नौकरी के बाद सोच लिया कि विवि/कॉलेज की नौकरी के अलावा अब कोई और नौकरी नहीं करूंगा, न मिली तो बाकी जिंदगी कलम की मजदूरी से गुजार दूंगा। जेएनयू के सहपाठी डॉ. डी गोपाल इग्नू में नौकरी करते थे। तब इसका दफ्तर सफदरगंज डेवलपमेंट एरिया में आ गया था। वहीं पास में 'कॉमर्स' (साप्ताहिक)पत्रिका का दफ्तर था, उस समय प्रेमशंकर झा संपादक थे। कॉमर्स में मैं लगभग नियमित लिखता था। एक बार लेख देने गया तो गोपाल ने कुछ अनुवाद दे दिया तथा राज्य के मार्क्सवादी सिद्धांत पर एक यूनिट (अध्याय) लिखने को कहा। फिर तो इग्नू के लिए लिखने और अनुवाद का काम नियमित रूप से करने लगा। इस दौरान इग्नू मैदानगढ़ी अपनी बिल्डिंग में शिफ्ट होना शुरू हो गई। समाजविज्ञान स्कूल के डायरेक्टर प्रो. पांडव नायक को मेरा काम बहुत पसंद आया। तब मेरे घर में फोन नहीं था। एक दिन मैंने पीसीओ से पेमेंट पता करने के लिए फोन किया। नायक साहब ने तुरंत आने को कहा। मैंने दोपहर बाद आने की बात की तो वे बोले, तुम आधे दिन के वेतन का क्यों नुकसान करना चाहते हो? मुझे कुछ समझ में नहीं आया। कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। पूछे कि मुझेचिट्ठी नहीं मिली? खैर मैं मयूरविहार फेज 2 के अपने घर से रिक्शा लेकर मयूरविहार फेज 1 एक दोस्त के घर आया और उससे ऑटो के किराए के लिए 100 या डेढ़ सौ रुपए उधार लिया और मैदानगढ़ी पहुंचा। डॉ. गोपाल, अनुराग जोशी तथा प्रो. नायक ने बहुत खुलूस से स्वागत किया और मुझे एकेडमिकएसोसिएट की डुप्लीकेट नियुक्तिपत्र दिया। टीन के अस्थाई भवन में मेज और कम्यूटर सुविधा। सारा माहौल मित्रवत था। कैंटीन की गपशप जेएनयू की याद दिलाती थी। बाकी अगले कमेंट में।

 इग्नू ज्वाइन करने के बाद मेरी शुरुआती मुलाकात जिन लोगों से हुई उनमें रहमान साहब भी थे उनके और समाजशास्त्र के कपूर साहब के साथ साथ गेट के बाहर चाय पीने गया। कैंटीन के अलावा निर्माणाधीन मुख्य भवन के बाहर भी एक चाय की दुकान थी। राजनीति शास्त्र विभाग में तब प्रो. नायक, डॉ. गोपाल, अनुराग जोशी और जेएनयू के मेरे सीनियर कमल मित्र चेनॉय थे। कमल ने नई मारुति जिप्सी खरीदी थी, कई बार अधचिनी तक उसके साथ लिफ्ट लेकर आता और कई बार उसके साथ जेएनयू चला जाता। उसकी पत्नी अनुराधा गंगा में वार्डन थी। गंगा ढाबे, कमल कॉम्पलेक्स या लाइब्रेरीकैंटीन में कुछ देर अड्डेबाजी के बाद बस से मयूरविहार जाता. 1992-93 तक जेएनयू छात्रों के साथ परिचय और साथ की निरंतरता बनी रही थी। इग्नू में क्लासरूम तो नहीं था लेकिन लगा कि नई जगह में नए काम की गुंजाइश तलाशी जा सकती है। वैसे ज्यादार लोग अड्डेबाजी के अलावा कुछ नहीं करते थे। सीब्लूडीएस के एक सहकर्मी डॉ. देबल सिंह रॉय भी सोसियालजी में एकेडमिक एसोसिएट थे। हम एकेडमिक एसोसिएटों का काम और वेतन लेक्चरर वाला ही था। सभी विभागों में कई कई एकेडमिक एसोसिएट थे। पोलिटिकल साइंस में उस समय मैं ही था। लगता है नियमित नियुत्ति की औपचारिकताओं में बहुत समय लगता और फौरी जरूरतों के लिए एढॉक आधार पर एकेडमिक एसोसिएट एढॉक लेक्चरर की तरह नियुक्त कर लिए गए। शुरू शुरू में बाहर से लिखाए गए अध्यायों (यूनिट्स) एवं उनके हिंदी अनुवादों का संपादन और ब्लॉक (पुस्तिका) में संकलन था। विभाग में कमल और गोपाल के बीच गुटबाजी चलती थी, गोपाल मुझे अपने गुट में शामिल 

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