बेतरतीब 87 (इगनू) -- 3
इग्नू में काम करने और आने-जाने के अनुभव के संस्मरण याद करके फिर लिखूंगा, लेकिन इतना कह सकता हूं क्लासरूम की पढ़ाई न होने के बावजूद पाठ्यसामग्री की तैयारी में शिक्षकत्व का आनंद आ रहा था। नवंबर, 1989 में हिंदू कॉलेज (दिल्ली विवि) में इंटरविव था। उसके पहले वहां दो इंटरविव (शायद 1985 एवं 1987 में) दे चुका था। एक तो खानापूर्ति था, एक के संस्मरण रोचक हैं, फिर कभी। विभागाध्यक्ष थे एक दक्षिणपंथी मठाधीश प्रो. आरबी जैन, जिनके बारे में एक 'बेतरतीब' संस्मरण में जिक्र कर चुका हूं। एक्सपर्ट थे एक वामपंथी मठाधीश प्रो. मनोरंजन मोहंती। मैं एक तरह से इंचरनल कैंडीडेट था क्योंकि उस समय वहां गेस्ट लेक्चरर के रूप में पढ़ा रहा था और लगता था छात्र भी खुश थे। कॉलेज के तत्कालीन विभागाध्यक्ष, प्रो. केके मिश्र की मेरे पढ़ाने की गुणवत्ता के बारे में राय अच्छी थी। इंटरविव बहुत अच्छा हुआ, लेकिन, तब तक पक्का तो नहीं पता था लेकिन थोड़ा बहुत अंदाज था कि चुनाव के लिए इंटरविव गौड़ होता है। लगभग 14 साल इंटरविव के अनुभव में, सापेक्षतः, इंटरविव अक्सर अच्छा ही होता था। मैं इंटरविव के लिए मित्रों और छात्रों को 'खोने को कुछ नहीं है' मनोवृत्ति ('Nothing to loose attitude') से इंटरविव देने जाने की सलाह देता हूं। इंटरविव पैनल में पहले नंबर मेरा नाम होना मेरे लिए तो उतना नहीं, मठाधीश प्रोफेसरों के प्रिय शिष्यों की जानकारी वाले अन्य कैंडिडेटों के लिए अधिक आश्चर्य का विषय था। उस इंटरविव में मेरे चुनाव ने मेरे लिए धर्मसंकट खड़ा कर दिया। मेरे पास इग्नू की लगभग स्थाई नौकरी थी क्योंकि विश्वविद्यालय प्रशासन ने एकेडमिक एसोसिएट कैडर समाप्त कर आवश्यक औपचारिकता के बाद उन्हे स्थाई लेक्चरर में तब्दील करने का नीतिगत फैसला ले लिया था। तब मुझे दिवि के एकेडमिक कौंसिल का यह प्रस्ताव नहीं मालुम था कि किसी लीव वैकेंसी पर किसी की नियुक्ति छुट्टी की अवधि या उस पद पर नियमित नियुक्ति होने तक के लिए होती है। लेकिन मेरा चुनाव एक साल के लिए किया गया जो कि अनैतिक और अवैध था। लेकिन मैं यह जानता नहीं था।
मैं इग्नू छोड़ने और हिंदू कॉलेज ज्वाइन करने के फैसले के धर्मसंकट में फंस गया। मेरी पत्नी सहजबोध से इग्नू छोड़ने के सख्त खिलाफ थी। अधिकतर मित्रों की भी यही राय थी। इसके बाद लगभग 15 दिन मैं हिंदू में गेस्ट लेक्चरर के रूप में एक क्लास लेकर इग्नू जाता वहां प्रो. नायक, डॉ. गोपाल एवं अन्य सभी मित्र सहकर्मी इस्तीफा न देने की सलाह देते।
जैसा कि बाद में पता चला कि मेरा चुनाव दोनों मठाधीशों के हितों के टकराव (Conflict of interst) के चलते हुआ। प्रो. आरबी जैन एक अन्य दक्षिणपंथी प्रो. महेंद्र कुमार की बेटी की नियुक्ति करना चाहते थे, जो उस समय करोड़ीमल कॉलेज में अस्थाई पद पर पढ़ा रही थीं और मोहंती साहब अपने एक प्रिय शिष्य मनींद्र नाथ ठाकुर (अभी जेएनयू में प्रोफेसर) का। पैनल में दोनों के नाम क्रमशः दूसरे और तीसरे नंबरलपर था। थोड़ा पहले संपन्न करोड़ीमल कॉलेज में हुए इंटरविव में दोनों का क्रमशः पहला और दूसरा नंबर था। बाद में जैसा लगा कि मोहंती साहब चाहते थे कि मैं इग्नू छोड़कर हिंदू कॉलेज न ज्वाइन करूं जिससे यदि मनीषा अग्रवाल (महेंद्र कुमार की बेटी) हिंदू ज्वाइन करें तो उनके चेले को करोड़ीमल में मिल जाती अन्यथा हिंदू में। मोहंती साहब की मैं वामपंथी और मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के नाते मैं बहुत अधिक इज्जत करता था। वे मेरा परिचय मित्र के रूप में कराते थे, इसलिए मैं उनसे सभी बातें सहजता से करता था। मनींद्र से कुछ साझे मित्र-परिचितों के साथ किसी कार्यक्रम में मेरी मुलाकात मंडी हाउस में हुई, घुमा-फिराकर अहंकार के साथ अवमानना के लहजे में मुझे इग्नू न छोड़ने की सलाह दी। मेरे दो वास्तविक शुभ चिंतक प्रोफेसरों प्रो एसके चौबे और प्रो. बीबी सरकार ने पत्नी से सलाह करने की सलाह दी। अंत में मैं मित्रवत सलाह के लिए मोहंती साहब के पास गया। वे इग्नू न छोड़ने की मित्रवत सलाह देते तो मैं साभार मान लेता। लेकिन उन्होंने मेरी बौद्धिक क्षमता को चुनौती देते हुए अवमाननापूर्ण लहजे में हिंदू कॉलेज न ज्वाइन करने की परोक्ष सलाह दी। वह परिदृश्य 31 साल बाद भी किसी फिल्म की रील की तरह आंखों के सामने घूम जाता है। दिल्ली विवि की आर्ट्स फैकल्टी और टैगोरहाल के बीच ग्राउंड में हमारा बातचीत हो रही थी। मैंने बहुत ही सम्मान के साथ सहजभाव से इस बारे में उनकी राय जानना चाहा। वे बोले, "Somehow I feel you don't fit into Hindu College structure, though I want you to be somewhere in Delhi University structure. I think there is something wrong with JNU training itself." फौरी प्रतिक्रिया में मैं बहुत अपमानित महसूस किया, जब कि इसकी जरूरत नहीं थी। मैंने जवाब दिया, "I don't think there is anything wrong with JNU training. During 4 semester of MA, owing to the system of continuous internal evaluation, a JNU student acquires the experience of writing and/or presenting around 2 dozen term papers/book review/seminar papers, which gives JNU students an edge over the students of traditional universities. There may be something wrong with me personally. I shall try to overcome that by hard work.
और आवेग में मैंने इग्नू छोड़कर हिंदू कॉलेज ज्वाइन करने का आत्मघाती फैसला ले लिया। काश दिल (आवेग में) की बजाय दिमाग (विवेकसम्मत) से फैसला लेता। एक साल बाद वाम-दक्षिण मठाधीशों के हितों की एकात्मकता (Concurrence of interest) से मेरी नौकरी छूट गयी (या कानूनन निकाल दिया गया), जो कहानी फिर कभी (अगले बेतरतीब संस्मरण में)।
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