Friday, October 30, 2020

मार्क्सवाद 229 (मार्क्सवादी अहंकार)

 एक सज्जन ने मार्क्सवादियों के वैचारिक श्रेष्ठतावाद के अहंकार पर एक पोस्ट शेयर किया, उस पर मेरे इस जवाब


जो विचारशील होगा और उसमें अतार्किक श्रेष्ठताबोध नहीं होगा। ज्ञान से विनम्रता आती है, अहंकार नहीं। आपने किस मार्क्सवादी को वैचारिक अहंकार से परेशान देखा है? मार्क्सवादी सर्वहारा यानि आमजन की आमजन द्वारा मुक्ति में विश्वास करता है और इसलिए मार्क्वाद और श्रेश्ठतावाद पारस्परिक विरोधाभसी हैं। मार्क्सवाद की एक प्रमुख अवधारणा है आत्मालोचना, जो बौद्धिक विकास की अनिवार्य पूर्व शर्त भी है। मार्क्सवादी तो वैचारिक अहंकार से नहीं परेशान रहता लेकिन इस पोस्ट के लेखक समेत इस ग्रुप के बहुत से लोग, मार्क्सवाद के बारे में बिना कुछ जाने इस शब्द से ही परेशान दिखते हैं। मैंने किसी श्रेष्ठताबोध में नहीं, शिक्षक होने के नाते मार्क्सवाद पर सरल भाषा में कई लेख शेयर किया, लेकिन लगता नहीं उन्हें ज्यादा लोगों पढ़ा होगा। बात-बेबाक बिना संदर्भ के कई लोगों पर मार्क्सवाद और वामपंथ का दौरा जरूर पड़ता रहता है। मैं ईमानदारी से स्वीकारता हूं कि मेरे अंदर कोई श्रेष्ठताबोध नहीं है तो निराधार श्रेष्ठताबोध कहां से होगा। शिक्षक होने के नाते किसी पोस्ट पर आंय-बांय से विषयांतर करने वालों को शुभेच्छुभाव से पढ़ने की सलाह जरूर दे देता हूं। मैं भी संस्कारगत ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध से ओतप्रोत था, पढ़ने में तेज समझे जाने से सोने में सुहागा वाली स्थिति थी। 10-11 साल की उम्र में एक घटना ने मेरे अंदर के ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध को झकझोर दिया तथा मन को आत्मावलोकन तथा चिंतन-मनन की प्रक्रिया में ढकेल दिया। आदत धीरे धीरे छूटती है, दसवीं में पहुंचते-पहुंचते जनेऊ अनावश्यक लगने लगा और मैंने तोड़ (उतार) दिया। रूपक में कहता हूं कि तबसे बाभन से इंसान बनना शुरू कर दिया। मार्क्सवाद आमजन द्वारा अपनी मुक्ति की विचारधारा है जो पूंजीवाद की जगह वैज्ञानिक समाजवाद का विकल्प पेश करता है।

पर--

उन्होंने रूस में बहुत दिन रहे किसी के वेदांती होने और देश-विदेश के कई विद्वानों से संवाद और अपने चचेरे नाना के 'भयंकर कम्युनिस्ट' होने और उनके द्वारा गरीबों के नाम पर जमीन कब्जा करने और जमींदारों से समझौता कर गरीबों को धोखा देने की मिशाल दिया।

मैं इस पोस्ट के लेखक के मार्क्सवाद के सैद्धांतिक और धरातलीय ज्ञान के बारे में उसके फैसलाकुन वक्तव्य (फतवेबाजी) से ही जानता हूं। कैन कितने साल रूस में रहकर वेदांती (वह जो भी होता हो) हो गया या देश-विदेश के कितने व्यक्तियों से आपने क्या-क्या सीखा आप ही जाने।

आपके परिवार में कितने मार्क्सवादी हुए और आपने उनसे क्या सीखा आप ही जानें। जमींदारों की जमीन पर दिन में गरीबों का कब्जा कराकर, 'पीछे से जाकर जमींदारों बातकरके' गरीबों से गद्दारी करके कम दाम पर जमीन अपने नाम लिखाने वाले 'भयंकतर कम्युनिस्ट' आपके चचेरे नाना मार्क्सवाद के प्रतिनिधि नहीं मार्क्सवाद के नाम पर दलाली करने वाले मार्क्सवादी शब्दावली में लंपट सर्वहारा थे। ऐसे ही लोग कम्युनिस्ट शब्द को कलंकित करते हैं।

पोलैंड और यूक्रेन में कम्यून में पले आपके मित्र होने से मार्क्सवाद के बारे में आपके फतवे प्रामाणिक नहीं हो जाते। सादर।

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