Sunday, October 4, 2020

लल्ला पुराण 352 (हाथरस)

 हाथरस में दलित लड़की के बलात्कार की एक पोस्ट पर खास एजेंडा के तहत दलित मुद्दा उठाने के आरोपों के कुछ कमेंट्स के जवाब।


मुझे दलितों का मशीहा नहीं बनना है, चुनाव लड़ना नहीं है, सवर्णवादियों के बीच दलित की पक्षधरता से इनमें अलोकप्रियता का ही खतरा उठाना है। दलित शब्द जोड़ने की बात नहीं है, दलित अवमानना और उत्पीड़न हमारे समाज का यथार्थ है।

मैं कहां कह रहा हूं कि मुझसे अच्छे लोग नहीं हैं। मैं तो एक साधारण इंसान हूं ईमानदारी से सिद्धांतनिष्ठ जीवन जीने की कोशिस करता हूं जिसमें विरासत में मिली ब्राह्मणीय क्षेष्ठतावाद से लड़ना भी शामिल है।

मैं तो दलित हूं नहीं कि दलित एजेंडा चला रहा हूं। दलित उत्पीड़न और जातिवाद हमारे समाज की हकीकत है। मैंने ऐसा नहीं कहा, मैं ही इंसान हूं बाकी नहीं? मैं तो अपने लिए विरासत में मिले जातीय पूर्वग्रहों से उबरने की बात करता हूं। बाभन से इंसान बनना उसी के लिए मुहावरा है। मेरा मानना है कि विवेकशील इंसान बनने के लिए विरासत में मिले जातीय या सामुदायिक पूर्वाग्रहों से उबरना जरूरी है क्योंकि व्यक्तित्व का निर्माण समाजीकरण तथा विवेकपूर्ण विवेचना पर निर्भर करता है, जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना पर नहीं। वैसे विवेक का इस्तेमाल मनुष्य की प्रजाति-विशिष्ट प्रवृत्ति है जो उसे पशुकुल से अलग करती है।

आपका गांव आदर्श होगा जहां जलित और राजपूत मिलजुल कर रहते होंगे। दलित उत्पीड़न में कमी दलित चेतना और दावेदारी के चलते आई है, अब वे प्रतिकार करने लगे हैं। मैं भी आपकी ही तरह सवर्ण हूं, दलित उत्पीड़न का मुद्दा उठाने में मेरा क्या स्वार्थ होगा, सवर्ण बाहुल्य इस ग्रुप में दलित हैं भी नहीं कि उनमें सस्ती लोकप्रियता के लिए करूंगा। अपने पिता जी से पूछिएगा हमारे छात्र काल में में पूर्वी उप्र में एक प्रचलित कहावत थी कि 'ऊ ठकुरै कैसन जे चमइनिहा न होए' । हमारे गांव में पढ़-लिखकर कुछ दलितों की स्थिति अच्छी हो गयी है, लेकिन बाभन-ठाकुर उनके साथ खाते-पीते नहीं। शिक्षा संस्थाओं में और फेसबुक ग्रुपों में आरक्षण को लेकर उनकी प्रतिभा का मजाक ऐसे लोग भी उड़ाते हैं जिन्हें भाषा की भी तमीज नहीं होती। दलित प्रज्ञा और दावेदारी का रथ काफी आगे निकल चुका है, जो सवर्ण मानसिकता को कष्ट देता है। आपका पड़ोसी दलित होने से जातिवाद खत्म हो जाता है।

आप अपने पिता जी से पूछिए यह कहावत प्रचलित थी कि नहीं? मैं तो सोचता था कि आप वराजपूत से इंसान बन गए होंगे लेकिन राजपूत होने पर इतना गर्व कर रहे हैं। बाभन से इंसान बनने का मुहावरा सब पर लागू होता है।

मैंने तो प्रचलित कहावत की बात की है जो निराधार नहीं थी। मैं तो बाभन से इंसान बन गया हूं। बाभन से इंसान बनना जाति की अस्मिता से ऊपर उठकर विवेकशील इंसान की अस्मिता के लिए मुहावरा है।

मैं कहां कह रहा हूं कि मुझसे अच्छे लोग नहीं हैं। मैं तो एक साधारण इंसान हूं ईमानदारी से सिद्धांतनिष्ठ जीवन जीने की कोशिस करता हूं जिसमें विरासत में मिली ब्राह्मणीय क्षेश्ठतावाद से लड़ना भी शामिल है।

मैं कहां कह रहा हूं कि मुझसे अच्छे लोग नहीं हैं। मैं तो एक साधारण इंसान हूं ईमानदारी से सिद्धांतनिष्ठ जीवन जीने की कोशिस करता हूं जिसमें विरासत में मिली ब्राह्मणीय क्षेश्ठतावाद से लड़ना भी शामिल है।

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