Tuesday, October 6, 2020

बेतरतीब 82 (तलाश-ए-माश)

 बेतरतीब 81


Jawari Mal Parakh जी के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विश्वविद्यालय (इग्नू) में नौकरी के इंटरविव के संस्मरण की पोस्ट पर मैं इग्नू में नौकरी पाने और मूर्खता में छोड़ने के अपने अनुभव पर कमेंट करना चाहता था, लेकिन भूमिका इतनी लंबी हो गयी कि टेक्स्ट गायब हो गया। भूमिका अभी भी अधूरी है सोचा और बड़ी होने पर कोई नहीं पढ़ेगा, इसलिए अभी इतना बाकी अगले भाग में और टेक्स्ट उससे अगले में।

पूरे होने पर संस्मरणों को संकलित कर. 'संस्मरण' शीर्षक से प्रकाशित कीजिए, अगली पीढ़ियों के लिए शिक्षा के समाजिक इतिहास का अमूल्य ग्रंथ होगा। मैंने शीर्षक का परामर्श अनधिकृत रूप से दे दिया, ऐसे ही मन में आ गया। शीर्षक का चुनाव लेखक का सर्वाधिकार होता है। आप अच्छे संरक्षणबोध तथा बौद्धिक अनुशासन के साथ य्यवस्थित विद्वान हैं, इसलिए सिलसिलेवार वैज्ञानिक ढंग से लिख रहे हैं। मैं अक्षम्य रूप से बौद्धिक अनुशासनहीन, बहुत ही बुरे संरक्षमबोध एवं अक्षम्य रूप से अव्यवस्थित व्यक्ति हूं, इसलिए जब भब भी कुछ संसरणात्मक लिखा गया तो बेतरतीब शीर्षक से सेव कर लेता हूं। कम्यूटर ने वह सुविधा न दी होती तो शायद वह भी न हो पाता। एक साल जर्मन पढ़ने के बाद मैंने जब राजनीतिशास्त्र में जेएनयू में एमए में प्रवेश लिया तो मेरे छोटे भाई ने इंटर पास किया था। जो होगा देखा जाएगा के सूत्र के आधार पर, बिना सोचे विचारे कि अपना तो कोई ठिकाना है नहीं, उसका खर्च कहां से चलेगा, उसे दिल्ली बुलाकर जेएनयू में फ्रेंच भाषा में 5 साला एमए में एडमिसन करा दिया। मुझे अर्थशास्त्र में भी प्रवेश मिला था, बाद में लगा कि अर्थशास्त्र में प्रवेश लेना चाहिए था, उस पर फिर कभी। खर्च के लिए गणित का ट्यूसन जिंदाबाद। जेएनयू में हॉस्टल में रहते हुए पढ़ाई का खर्च कम तो था, फिर भी। ट्यूसन की तलाश में आरकेपुरम सेक्टर 4 स्थित रामजस स्कूल के फीजिक्स के शिक्षक और उपप्रधानाचार्य, अशोक शर्मा (शायद) से परिचय हुआ था। वह स्कूल 10वीं तक था।1980 में 11वीं का एक सेक्सन शुरू हुआ। शर्मा जी ने पार्टटाइम पढ़ाने का ऑफर दिया जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। वैसे जेएनयू से पैदल की दूरी थी लेकिन मेरे पास साइकिल थी। सुबह 8 से 8.45 या 8,50 तक क्लास लेकर (मास्टरी कर) जेएनयू ओल्ड (डाउन) कैंपस आ जाता था कैंटीन में चाय-कॉफी के बाद छात्रगीरी में व्यस्त हो जाता। 400 या 500 रुपए मिलते थे, दो भाइयों की पढ़ाई और घर जाते समय बहन और सबसे छोटे भाई के लिए कपड़े वगैरह के खर्च के चलते कुछ ट्यूसन भी करता। एमफिल में फेलोशिप मिलने लगी, तब शायद 300 रु थी। भूमिका इतनी लंबी हो जा रही हैकि लगता है इग्नू में नौकरी लगने का टेक्स्ट गौड़ हो जाएगा। फिर भी शुरू कर दिया तो संक्षेप में पूरा ही कर दूं। फेलोशिप के बावजूद खर्च के लिए और पैसों की जरूरत पड़ती थी। सिगरेट, कैंटीनबाजी, जुलूसबाजी और पर्यटन समेत आवारागर्दी के फालतू खर्च भी बढ़ा लिए थे। इसी समय से दिल्ली विवि के कॉलेजों में अप्लाई करना शुरू किया। मॉडर्न और मदर स्कूल के हॉस्टलों में ट्यूसन पढ़ा चुका था। उनके प्रिंसिपलों से पार्ट टाइम नौकरी की बाकत करने की सोच रहा था। बालभारती एयरफोर्स स्कूल में 2-3 दिन पढ़ाया, लेकिन अपनी पढ़ाई के साथ मुश्किल लगा, छोड़ दिया, उस पर फिर कभी। नौकरी के फऑर्म भरता रहता था तथा 1982 से एढॉक इंटरविव भी देने लगा।
जेएनयू के आसपास कुछ ट्यूसन मिलने में मदद मांगने डीपाएस, आरकेपुरम् में गणित के एक शिक्षक, मित्र डॉ. अर्शद मजीद से मिलने गया। वह मुझे लेकर एक ऑफिस में गए, बाद में पता चला कि वह प्रिंसिपल आरएस लुगानी का ऑफिस था। उन्होंने 2-3 दिन में कभी आकर कुछ ट्रायल क्लासेज लेने को कहा, मैंने उसी समय ट्रायल का ऑफर दिया। 12 वी की दो और 11 वीं की एक कक्षाओं में जो उन्हें पढ़ाया जा रहा था वहीं से आगे पढ़ाया। प्रिंसिपल ने कल से आने को कहा। गणित के अध्यक्ष सम्थानी साहब थे, वे नए शिक्षक को गुंडा घोषित 12 ए में भेज देते थे।पता चला मेरे पहले 2-3 नए शिक्षक आकर चले गए थे। अब खाते-पीते घरों के 17-18 साल के लड़के कितने बड़े गुंडे होंगे। उस सेक्सन से लड़कियां दूसरे सेक्सनोंमें चली गयी थीं, केवल लड़कों का क्लास था। जिस दिन मैंने ज्वायन किया अगले दिन अंग्रेजी की मिसेज छौना (जो बाद में प्रिंसिपल बनी) को टाइमटेबल इंचार्ज से रुवांसे स्वर में यह कहते हुए क्लास बदलने का आग्रह करते सुना कि वे गुंडों को नहीं पढ़ा सकतीं। मैं फुलटाइम स्टूडेंट भी था। खैर वह तथाकथित गुंडा क्लास कैसे मेरी प्रिय क्लास बन गयी यह कहानी फिर कभी।
मेरा 1972 में 17 साल में शादी हो गयी थी, हम दोनों (पत्नी गांव में और मैं हॉस्टल में) मैरिड बैचलर की तरह रह रहे थे। 1982 में जेएनयू में मैरिड हॉस्टल के लिए अप्लाई करके घर गया तो पता चला कि 8वीं के बाद पैदल की दूरी पर स्कूल न होने के चलते 15 साल की बहन की पढ़ाई बंद कराकर उसके विवाह के लिए लड़का तलाशा जा रहा था। एक तो 6 भाइयों के बाद बहन हुई थी, मुझसे 12साल छोटी थी और दूलरे वह 5-6 महीने की थी तभी मैं पढ़ने शहर चला गया, दूरी से शायद लगाव बढ़ता है। मेरा आक्रोश सीमा पार कर गया। उसके पढ़ने के अधिकार के लिए पूरे खानदान से महाभारत करना पड़ा। कोई यह पूछ ही नहीं रहा था कि बाहर कहीं पढ़ने जाएगी तो खर्च कहां से आएगा। अंततः मैंने अपनी जिद पर अड़कर उसे राजस्थान में जयपुर से 70 किमी दूर, वनस्थली विद्यापीठ में भर्ती करा दिया जहां से उसने एमएबीएड की पढ़ाई की। प्रवेश की तिथि निकल जाने पर कैसे उसका एडमिसन हुआ यह अलग कहानी है, फिर कभी। डीपीएस में पढ़ाते हुए मैं दिवि के कॉलेजों और अन्य जगहों पर फॉर्म भी भरता रहता था तथा 1982 से दिवि के एढॉक पैनल के लिए इंटरविव भी देने लगा।
1983 में मेरी बड़ी बेटी अपनी मां के पेट में थी, सोचाथा उसके एक साल की होने तक मैरिड हॉस्टल मिल जाएगा। लेकिन मई 1983 में जेएनयू में एक लंबा आंदोलन छिड़ गया। दिलीप उपाध्याय (दिवंगत) कहता था कि फ्रांसीसी मई क्रांति एक त्रासदी थी, हमारी परिहाल भी नहीं। ( French May revolution was a tragedy, our was not even a farce.) विपिन चंद्र की अध्यक्षता में प्रवेशनीति में आमूल फेबदल के लिए एक समीक्षा समिति का गठन किया गया था जिसे सीपीआई के शिक्षकों का पूर्ण समर्थन था तथा लिंग्विस्टिक के आरआर शर्मा और एचसी नारंग शायद उस समिति के सदस्य थे। पुरानी प्रवेशनीति इतनी जनतांत्रिक एवं जनपक्षीय थी कि दूरदराज के ग्रामीण इलाकों के पहली पीढ़ी पढ़ने वाले बहुत छात्रों को भी प्रवेश मिल जाता था। 1982-83 के छात्र संघ के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पदों पर फ्रीथिंकर्स और आरएसएफआई तथा पीएसओ गठबंधन के क्रमशः नलिनी रंजन मोहंती (पत्रकार) और संजीव चोपड़ा (आईएएस) चुने गए। सचिव (सजल मित्र) और सहसचिव (रश्मि दोरइस्वामी) एसएफआई एआईएसएप गठबंधन के। हम आरएसएफआई (रिबेल एसएफआई) में थे और फ्रीथिंकर्स से समझौता एक राजनैतिक गलती थी, लेकिन एसएफआई इतना पक्षपातीय थी कि आंदोलन उनके नेतृत्व में न होने से उसकी हवा निकालने पर तुली हुई थी। 1983 के आंदोलन पर कहीं लिख चुका हूं, इतना ही कहूंगा कि पहली बार बल प्रयोग से ही सारे बहादुर नतमस्तक हो गए। कैंपस में पुलिस आई और लोगों ने गिरफ्तारी दी, कुछ लोग मिलने गए लोगों के हाथ का ठप्पा लगाकर जेल से बाहर आ गए। अखबार वाले ने जेल तोड़ने का शगूफा छोड़ा। अधिकारियों ने विवि अनिश्तकाल के लिए बंद कर दिया तथा 1983-84 को जीरो यीयर घोषित कर दिया। 1983 में प्रवेश नहीं हुआ। तीनों बड़े संगठनों -- एसएफआई, एआईएसएफ और फ्रीथिकर्स ने पूर्ण समर्पण कर दिया था। हम 30-40 लोग पोस्टर वगैरह बनाते हुए लौ जलाए रखने की कोशिस कर रहे थे।
100 से अधिक लोगों को शो-कॉज नोटिस जारी किया गया, 17-18 को छोड़कर सबने माफी मांग ली। इंक्वायरी के फसाद की प्रक्रिया पर और मेरे द्वारा 2 इंत्वारी कमेटियों के बहिष्कार और तीसरी में भागीदारी तथा चीफप्रॉक्टर और कुलपति से मुठभेड़ों तथा गिरफ्तारी, जमानत आदि के विस्तार में न जाते हुए, इतना ही कहूंगा कि यह जानते हुए कि देश में क्या जेएनयू में भी कोई क्रांति नहीं होने वाली थी यह सोचकर माफी न मांकर निष्कासन चुना कि माफी मांगने का मतलब आंदोलन की भर्त्सना करना होगाष फढतावा नहीं है लेकिन अब लगता है कनपटी पर बंदूक लगाकर अंगूठा लगवा जा रहा हो तो लगा देना चाहिए, कुछ भी करने के लिए जिंदा रहना जरूरी है। खैर माफी न मांगने से निकाल दिया गया, दांव पर था हॉस्टल का जीवन, यूजीसी की सीनियर फेलोशिप, मैरिड हॉस्टल में प्रवेश जिससे बेटी के साथ रह सकता और पीएचडी की डिग्री का पढ़ाई का तीन साल टल जाना। 2 अक्टूबर 1983 को रविवार था। दोहरी छुट्टी के दिन जेएनयू की पूरी सुरक्षा व्यवस्था तथा 5 ट्रक पुलिस की मदद से हॉस्टल का मेरा कमरा खाली करवाया गया। लगा 46 किलो के एक लड़के का इतना डर! उस दिन कुछ रोचक बातें हुईं जिनके विस्तार में जाने की गुंजाइश यहां नहीं है, कहीं और लिख चुका हूं। 1848 में यूरोप में उभरी क्रांतिकारी लहर के संदर्भ में इंग्लैंड में चार्टिस्ट आंदोलन की याद आयी थी। आंदोलनकारियों ने प्रदर्शन का आह्वान किया था। सरकार ने 1 लाख प्रदर्शनकारियों के लिए पुलिस, सेना तथा बैरीकेडिंग की व्यवस्था की थी, प्रदर्शन में कोई आया ही नहीं। मेरे हॉस्टल से बेदखली के प्रतिरोध में 20-25 लोग शांतिपूर्वक जुटे थे। 17-18 लोगों के निष्कासन पर कोई आंदोलन नहीं हुआ था। 1985 तक मित्रों के कमरों में हॉस्टल में ही रहता रहा। 1985 में किराए पर फ्लैट लेने के बावजूद भी ज्यादा समय कैंपस में ही रहता था। भूमिका इतनी लंबी होती जा रही है कि टेक्स्ट गौड़ होने को अभिशप्त लगता है। यह अंश इस बात से खत्म करता हूं कि किसी ने चईफ प्रॉक्टर रामेश्वर सिंह से कहा, "Mr. Rameshwar Singh, you look like a joker", अभिजीत पाठक (जेएनयू में समाजशास्त्र के प्रोफेसर) ने कहा, "No, he does not look like a joker but the villain of a third rate Hindi film".

डीपीएस मैंने 4-6 महीने का सोच कर ज्वाइन किया था 4 साल चल गया, मैं छात्रों में वहां का सबसे लोकप्रिय शिक्षक था। 3 साल अस्थाई नौकरी के बाद एक खास समय में बीएड करने की शर्त पर मुझे प्रोबेसन पर रख दिया। डीपीएस के कई रोचक संस्मरण हैं उन्हें कभी अलग से लिखूंगा। वैसे मैंने इस नौकरी थोड़े समय के लिए स्टॉप-गैप व्यवस्था के रूप में इसे लिया था तथा इसे पार्टटाइम ही मानता था। पढ़ाने में मजा आने लगा, 4 साल चल गया। आपातकाल में जब लगा कि क्रांति अभी दूर है और आजीविका के लिए नौकरी करने को अभिशप्त हैं तो एलिमिनेसन प्रक्रिया से कॉलेज-विश्वविद्यालय के शिक्षक की नौकरी पर टिक गया। नौकरी के मामले में दूसरा प्रफ्रेंस ही नहीं था। लेकिन रंग-ढंग ठीक नहीं किया और लंबे समय तक मिली नहीं, मिसी भी तो ज्यादा दिन टिकी नहीं। अंततः स्थाई नौकरी मिल ही गयी और रिटायरमेंट तक टिकी भी रही। ऊपर लिख चुका हूं कि देर से मिलने की शिकायत नहीं, मिल जाने की खुशी और आश्चर्य है।
जेएनयू से निष्कासन के बाद भी जेएनयू में रहते हुए डीपीएस की नौकरी करता रहा। तब तक मैं 4 फुलटाइम काम करता था। फुलटाइम छात्र, फुलटाइम शिक्षक, फुलटाइम एक्टिविस्ट और फुलटाइम आवारा। निष्कासन के बाद फुलटाइम छात्र से फुलटाइम निष्कासित छात्र बन गया। निष्कासन के तथ्य को बिना उजागर किए 1984 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक अविस्मरणीय इंटरविव दिया। सीपीआई में रह चुके और मूनिस रजा के दोस्त, आरपी मिश्र कुलपति थे। उन दिनों मैं मूनिस साहब से उनकी बेटी को पढ़ाने के सिलसिले में हफ्ते में एक-दो बार मिलता था। एक बार मन में आया मूनिस साहब से कहूं लेकिन कह नहीं पाया। इलाहाबाद डीपी त्रिपाठी से वैसे ही मिलने गया, सिफारिश के लिए नहीं। उन दिनों वे राजीव गांधी के करीबी बताए जाते थे। किन्हीं कारणों से उनसे मुलाकात न हो सकी। बहुत ही अच्छा, या यों कहें कि जीवन का सबसे अच्छा इंटरविव हुआ। बाहर इंतजार कर रहे लोग समय देख रहे थे, उन्होंने बताया ऍ घंटा 28 मिनट चला। कुलपति महोदय इंटरविव में बहुत रुचि ले रहे थे।ज्यादातर बातचीत दर्शन को विचारधारा (आइडिऑलजी) कहने के मार्क्स के वक्तव्य के संदर्भ में विचार और विचारधारा पर केंद्रित रही। 6 पद थे, लगा कि नौकरी मिल ही जाएगी। गंगा पार झूसी में शहर का विस्तार हो रहा था, सोचने लगा घर झूसी में लेना चाहिए या गंगा इस पार तेलियरगंज या ममफोर्ड गंज में। खैर नौकरियां इंटरविव पर न तब मिलती थीं न अब। उसके 3 साल बाद कहीं एक सेमिनार में मिश्र जी से मुलाकात हुई और उन्होंने बताया कि वे मेरे इंटरविव से इतने प्रभावित थे कि तमाम विरोध के बावजूद वे मेरा नाम पैनल में 7वें नंबर पर रखवाने में कामयाब रहे। मैंने कहा 6 पद थे तो मेरा नाम 7वें नंबर पर रखें या 70वें पर क्या फर्क पड़ता है? वैसे हो गया होता तो शिक्षण आनंद के साथ मैं अपने गांव से भी जैविक रूप से जुड़ा रहता।

..... जारी

यह भारत में कम्यूटर की शुरुआत के दिन थे। तमाम मिथ थे कि एसी रूम चाहिए और कम्यूटर रूम में जूते-चप्पल निकाल कर जाना चाहिए, आदि। कम्यूटर टीचर आईआईटी से पीएचडी कर रहा/चुका एक युवा था जो पीलिया से बीमार था तथा छुट्टी पर चल रहा था। लोगों का मानना था कि वहां के एओ और एक तिकड़मी शिक्षक की मिलीभगत से एक कम्यूटर चोरी हो गया। फ्रिंसिपल ने उस लड़के को चपरासी के हाथ चिट्ठी भेजकर स्कूल बुलाया। उसने कम्यूटर रूम खोलकर बताया कि एक कम्प्यूटर गायब था। प्रिंसिपल ने पुलिस में रिपोर्ट कर दिया कि उस शिक्षक की मिलीभगत से कम्प्यूर चोरी हो गया और उसे गिरफ्तार करवा दियाष हमलोगों ने थाने से ही उसकी जमानत करवाया। अगले दिन डॉ, मजीद, फीजिक्स का एक युवा टीचर किरमानी और मैंने शिक्षक संघ को पुनर्जीवित किया और 70 शिक्षकों के हस्ताक्षर से प्रिंसिपल के कृत्य का निंदा प्रस्ताव पारित किया गया। ज्यादातर शिक्षक बांह पर काली पट्टी बांधकर क्लास गए। डीपीएस जैसी जगह पर यह एक अनहोनी थी। मजीद और किरमानी सीनियर थे, मैं प्रोबेसन पर था। हमारे बीच जंग छिड़ गया। शोकॉज नोचिसों और जवाबों के खतोकिताबत का रोचक दौर शुरू हुआ। सारा पत्र व्यवहार संभालकर रखा था. घर शिफ्ट करने में कहीं इधर-उधर हुआ है, फुर्सत से कभी खोजूंगा। उस पर फिर कभी। साकेत में 2 कमरे का फ्लैट लिया था बेटी डेढ़ साल से बड़ी हो गयी थी। बहन को वनस्थली से लेकर आया था, 2 दिन बाद उसे लेकर घर (गांव) जाना था। 1 मई से स्कूल गर्मी की छुट्टी के लिए बंद हुआ और 2 मई को चपरासी मेरे पास एक महीने की तनखॉह के चेक के साथ प्रिंसिपल द्वारा मेरी सेवाओं के आभार के साथ सेवा समाप्ति का पत्र लेकर आया। मैनेजमेंट और सरकारी शिक्षाविभाग को पत्र लिखकर बहन के साथ घर चला गया तथा जुलाई में बहन को वनस्थली पहुंचाकर आगे की कार्रवाई के लिए दिल्ली आ गया।

... जारी

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