Friday, October 9, 2020

वैदिकों में चारवाक हूं

 मैं वैदिकों में चारवाक हूं

एथेंस में सुकरात

कारों के बेदर्द शहर में
गजलें कहता हूं
हाजियों में बुत परस्त रहता हूं
और खय्यामों में हाजी हूं
इसीलिए आपके हिसाब से
पूरा पाजी हूं
क्योंकि
मैं वह पत्थर नहीं
जिसे तुम हीरा कहते हो
गीली मिट्टी हूं
जिस पर हर घटना
कुम्हार बन कविता निकाल देती है
काश वहां से गुजरकर भी वहां होता
हिचकी आती क्या क्या सोच डालता
कहीं किसी ने किया होगा याद
दर्ज किया होगा किसी डायरी में
अरस्तू की बात
कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है
लेकिन मैं करता रहूंगा उसपर भी
सवाल-दर-सवाल
सुकरात की तरह
खोजते हुए सच
भले ही जहर का एक प्याला ही क्यों न हो
उसके जुलू में
तब तक जब तक जवाब न मिले
प्रमाण के साथ
(ईमि: 09.10.2020)

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