बेतरतीब 83 (डीपीएस)
बचपन में अपने ही गांव में नहीं अगल-बगल के कई गांवों में मेरी छवि अच्छे नहीं सबसे अच्छे बच्चे की थी, मेरे अंदर कोई मूलभूत प्रवृत्तिगत परिवर्तन नहीं हुआ। फिर भी नतमस्तक समाज में लोगों को सिर उठाकर चलना इतना नागवार लगता है कि जीना मुश्किल कर देते हैं। लोग विश्वविद्यालयों और नौकरियों से निकाल देते हैं। जिन्होंने जेएनयू में माफीनामा लिख दिया उनपर कोई कार्रवाई नहीं हुई। अब अगर में 2 लाइन का माफीनामा लिखने से अगर न निकालते तो मतलब यह हुआ कि मेरा कैंपस में बने रहना और पीएचडी की पढ़ाई जारी रखना कैंपस या देश के लिए असाध्य खतरा नहीं था। तो बिना माफीनामेके ही बने रहने देते। अब निकाल देने से एक तो ठीक-ठाक चल रहा पीएचडी छात्र का जीवन क्रम टूट गया। मैरिड हॉस्टल मिल जाता तो बेटी साथ रहती अभी तक ताना मारती है कि उसे 4 साल तक साथ नहीं रहा। बाप-बेटी एक दूसरे के साथ के सुख से वंचित रहे। यूजीसी की सीनियर फेलोशिप कुछ ही महीने ले पाया था। कंटीजेंसी से मनचाही किताबे खरीदने का अद्भुत सुख, हॉस्टल में किसी और मित्र (अजय मिश्र और उनके आईएएस होने के बाद अकील अहमद) की निजता में खलल, विस्थापित होने का मनोवैज्ञानिक यातना ... माफी मंगवाने के अहं के लिए इतना कष्ट। इसीलिए दजब मैं हॉस्टल का वार्डन बना तो पहले से भविष्य के जो फैसले लेकर गया उनमें मारपीट (गुंडागर्दी) खत्म करने, पुलिस न बुलाने के साथ किसी भी छात्र को किसी भी हाल में निष्कासन का सम्मान न देना भी शामिल था।
बुढ़ापे में फुटनोटों के चक्कर में भटकाव बहुत हो जाता है। शुरू किया इग्नू में नौकरी पर कमेंट भूमिका और फुटनोट में डीपीएस, जेएनयू से निष्कासन और अब डीपीएस की नौकरी से बर्खास्तगी पर आ गए। लेकिन अब आ ही गए तो संक्षिप्त वर्णन वांढनीय ही नहीं अनिवार्य हो गया है। खैर उपरोक्त संस्मरण में बता ही चुका हूं कि ग्रीष्मावकाश शुरू होते ही मौका देखकर लुगानी (डीपीएस आरकेपुरम् का प्रिंसिपल) ने नौकरी से निकाल दिया। उसी के 2 महीने पहले उसने स्कूल की प्रबंध समिति को मेरी विशेष शिक्षकीय प्रतिभा के चलते एक अतिरिक्त इनक्रीमेंट की सिफारिश भेजी थी। खैर, छुट्टियों में लड़ने-भिड़ने का कोई औचित्य नहीं था। शिक्षा बोर्ड और प्रबंध समिति को पत्र लिखा तथा जेएनयू के कुछ पत्रकार मित्रों के जरिए कुछ अखबारों खबरें छपवाकर घर (गांव) चला गया। छुट्टियां बिताकर जुलाई में वापस आया तथा 15 दिन की भूख हड़ताल की नोटिस देकर बहन को वनस्थली पहुंचाने चला गया। लौटकर भूख हड़ताल के लिए दरी वगैरह का इंतजाम किया और 15 वें दिन स्कूल के गेट पर दरी वगैरह के साथ पहुंचा डॉ. मजीद और किर्मानी खुल कर साथ थे। दोनों लोग इंतजार कर रहे थे। उसी दिन जनसत्ता के खोजखबर-खासखबर पेज पर लगभग आधा पेज भर अरविंद मोहन (विशेष संवाददाता) का लेख छपा 'डीपीएस: बटेर लग गयी अंधे के हाथ'। जैसे ही स्कूल के गेट पर पहुंचा बहुत से बच्चे जनसत्ता के लेख की फोटोकॉपी लिए खड़े थे। मैं तो 3 ही सेक्सन पढ़ाता था दो बारहवीं और एक ग्यारहवीं या एक बारहवीं और दो ग्यारहवीं, लेकिन स्कूल के सारे छात्र मुझे अपना शिक्षक मानते थे। गेट पर एक नवीं-दसवीं का छात्र मिला बोला कि वह जनसत्ता के लेख की 100 कॉपी बांट चुका है और क्या करे। मैंने उसे दुलार कर शुक्रिया कहा और और कुछ न करने का आग्रह। प्रिंसिपल ने पुलिस को खिला-पिलाकर फिट कर ऱखा था। जैसे ही मैं दरी वगैरह बिछाकर बैठा वे मुझे उठाकर आरकेपुरम् सेक्टर 7 थाने में ले गए और स्कूल बंद होने तक बैठाए रहे। मैं वहां से निकल कर जेएनयू कैंटीन में दिलीप उपाध्याय और अन्य मित्रों के साथ बैठकर प्रेस रिलीज बनाकर न्यूज एजेंसियों और अखबारों के दफ्तरों की तरफ चल पड़ता।
No comments:
Post a Comment