एक मित्र ने सवाल किया कि क्या गांधीजी 1942 तक कांग्रेस के लालकृष्ण अडवानी बन चुके थे? उस पर:
वर्णाश्रमी, धार्मिक होते हुए गांधी की अपपील अडवाणी की तरह धर्मोंमादी नहीं, उपनिवेशविरोधी जनांदोलन की थी। मैं गांधीवादी नहीं हूं, गांधी के परिप्रेक्ष्य में द्वंद्वात्मकता का अभाव न होता और भारतीय सामाजिक चेतना का स्तर थोड़ा उच्चतर होता तो गांधी के नेतृत्व में रूसी क्रांति से बड़ी युगांतरकारी क्रांति हो जाती, सत्ता का परिवर्तन ही नहीं। लेकिन क्या होता तो क्या होता किस्म का विमर्श अनैतिहासिक और व्यर्थ है। किसी ऐतिहासिक पुरुष का मूल्यांकन उसके ऐतिहासिक संदर्भ और परिप्रेक्ष्य में ही करना चाहिए। गांधी न गरीब थे न अशिक्षित, लंगोटी में आमजन की जीवनशैली स्वैच्छिक थी।अंग्रजी पढ़े लोगों के सालाना सम्मेलनों तक सिमटे राष्ट्रीय आंदोलन को गांधी ने जनांदोलन बना दिया। गांधी अपने समय के सबसे समझदार राजनीतिज्ञ (स्टेट्समैन) थे। वे जानते थे कि कब आंदोलन शुरू करना है, कब वापस लेना है। मार्क्सवादी, सामाजशास्त्री-इतिहासकार एआर देसाई ने सही लिखा कि गांधी भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक महामानव के रूप में शरीक हुए और आजीवन वैसा ही बने रहे। (Gandhi joined the Indian movement like a titan and remained so all his life) अहिंसा और सत्याग्रह उनकी सुविचारित मौलिक रणनीति थी।जनतंत्र का सामुद्रिक वृत्त का उनका सिद्धांत, रूसो के 'जनरल विल' की तरह सरल ग्रामीण समाज के लिए ही भले उपयुक्त हो लेकिन एक वैकल्पिक, सैद्धांतिक मॉडल है। उनकी राजनैतिक सोच दक्षिण अफ्रीका से शुरू होकर लगातार विकसित होती रही है। गांधी की स्थिति कभी अडवाणी की नहीं हुई जो पहले अटल बिहारी के वर्चस्व में रहे और बाद में मोदी के। गांधी के व्यक्तित्व का करिश्मा अंत तक बना रहा। हो सकता है यदि गोडसे उनकी हत्या न करता तो आजाद भारत में पहला असहयोग आंदोलन गांधी के नेतृत्व में होता। देश का बंटवारा गांधी के आंदोलन की एक असफलता थी, लेकिन अंग्रेजों की दलाल, सांप्रदायिक ताकतों ने हिंसा का जो माहौल बना दिया था, उसमें गांधी एआईसीसी की बैठक में बंटवारे का प्रस्ताव पारित होने से रोक न सके। काश! रोक पाते जैसे इतना खून-खराबा वैसे थोड़ा और, जो बंटवारे की विभीषिका से कम होता और आजादी के बाद तीन-चौथाई सदी तक एक-से तीन बने मुल्कों में सांप्रदायिक नासूर बन सालता न रहता। अभी कितनी पीढ़ियां इस नासूर का दंश झेलती रहेंगी, कहना मुश्किल है। हमारे जीवनकाल में तो असंभव दिखता है,उम्मीद है शीघ्र ही तीनों मुल्कों की हमारी आने वाली पीढ़ियों में सद्बुद्धि आएगी और इस नासूर को वे निकाल फेंकेंगी। इसमें सबसे बड़ी बाधा अखंड भारत का पाखंड करने वाली, बिघटनकारी ताकतें हैं।
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