जो विचारशील होगा और उसमें अतार्किक श्रेष्ठताबोध नहीं होगा। ज्ञान से विनम्रता आती है, अहंकार नहीं। आपने किस मार्क्सवादी को वैचारिक अहंकार से परेशान देखा है? मार्क्सवादी सर्वहारा यानि आमजन की आमजन द्वारा मुक्ति में विश्वास करता है और इसलिए मार्क्वाद और श्रेश्ठतावाद पारस्परिक विरोधाभसी हैं। मार्क्सवाद की एक प्रमुख अवधारणा है आत्मालोचना, जो बौद्धिक विकास की अनिवार्य पूर्व शर्त भी है। मार्क्सवादी तो वैचारिक अहंकार से नहीं परेशान रहता लेकिन इस पोस्ट के लेखक समेत इस ग्रुप के बहुत से लोग, मार्क्सवाद के बारे में बिना कुछ जाने इस शब्द से ही परेशान दिखते हैं। मैंने किसी श्रेष्ठताबोध में नहीं, शिक्षक होने के नाते मार्क्सवाद पर सरल भाषा में कई लेख शेयर किया, लेकिन लगता नहीं उन्हें ज्यादा लोगों पढ़ा होगा। बात-बेबाक बिना संदर्भ के कई लोगों पर मार्क्सवाद और वामपंथ का दौरा जरूर पड़ता रहता है। मैं ईमानदारी से स्वीकारता हूं कि मेरे अंदर कोई श्रेष्ठता नहीं है तो निराधार श्रेष्ठताबोध कहां से होगा। शिक्षक होने के नाते किसी पोस्ट पर आंय-बांय से विषयांतर करने वालों को शुभेच्छुभाव से पढ़ने की सलाह जरूर दे देता हूं। मैं भी संस्कारगत ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध से ओतप्रोत था, पढ़ने में तेज समझे जाने से सोने में सुहागा वाली स्थिति थी। 10-11 साल की उम्र में एक घटना ने मेरे अंदर के ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध को झकझोर दिया तथा मन को आत्मावलोकन तथा चिंतन-मनन की प्रक्रिया में ढकेल दिया। आदत धीरे धीरे छूटती है, दसवीं में पहुंचते-पहुंचते जनेऊ अनावश्यक लगने लगा और मैंने तोड़ (उतार) दिया। रूपक में कहता हूं कि तबसे बाभन से इंसान बनना शुरू कर दिया। इस ग्रुप के सक्रिय लोगों के बहुमत को लगता है, मेरी बातों से कष्ट है, मैं ग्रुप में सक्रियता कम कर कम-से-कम कष्ट देने की कोशिस करूंगा। सादर।
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