Friday, October 16, 2020

लल्ला पुराण 355(दलित लड़की की हत्या)

 'बाराबंकी में भी एक दलित लड़की की बलात्कार हत्या ...' की पोस्ट पर कुछ लोग सवाल करने लगे मेरी संवेदनाएं चयनित क्यों हैं और यह कि लड़की के साथ दलित विशेषण के पीछे मेरे जातीय पूर्वाग्रह हैं.... हाथरस मामले पर जांच के पहले ही सरकार को संदेह के घेरे में खड़ा करने पर सवाल किया, उस पर --


मैं सारे अपराधिक कृत्यों का विरोध करता हूं। अपराध रोकना सरकार की जिम्मेदारी है ऐसा न कर पाना सरकार की नाकामी है। अपराधों के भुक्तभोगी दलित या अन्य कमजोर तपकों के लोग ज्यादा होते हैं क्योंकि कमजोर का शिकार आसान होता है। जाति-धर्म के पूर्वाग्रहों के आधार पर पीड़ित के साथ संवेदना की बात होती तो मुझे तो सवर्णों के साथ हाथरस कांड के आरोपियों को निर्दोष साबित करने के सवर्ण अभियान में शामिल होना चाहिए या उन्हें बचाने के सरकारी प्रयासों का समर्थन करना चाहिए। सारे अखबारों में यही खबर है। जातीय पूर्वाग्रहों के चलते आपको मेरी संवेदनाएं वर्ग विशेष के पीड़ितों के साथ ही दिखती हैं, बलिया में पुलिस-प्रशासन की उपस्थितिमें एक दबंग द्वारा गोलीबारी पर भी हमने लिखा। पीड़ित अक्सर एक वर्ग विशेष से हो तो उसके वर्णन से इतना गुस्सा क्यों? पिछले दिनों हत्या-बलात्कार की शिकार स्त्रियों में अधिकतर दलित ही क्यों रही हैं? दलित उत्पीड़न के आरोपियों के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन करने वालों में सारे सवर्ण ही क्यों? एक कविता की दो पंक्तियां हैं, 'सहती हूं जब भी जुल्म, होती हूं अक्सर दलित; अजीबोगरीब है संयोगों का यह अंकगणित'।

सरकार ही आरोपियों को बचाने में लगी है, पुलिस-प्रशासन के आला अधिकारियों के पास हाईकोर्ट की फटकार का कोई जवाब नहीं था। उनके सवर्ण पैरोकार और मृदंग मीडिया मृतक पीड़िता के मरने के पहले के बयान को दरकिनार कर पीड़ित परिवार को ही मुल्जिम साबित करने के सबूतों का अन्वेषण करने पर तुले हैं। पूर्वाग्रहों को त्यागकर ही मैं बाभन से इंसान बन सका हूं।

आरोपियों को बचाने की जांच एजेंसियों और सरकार की नीयत शुरू से ही साफ है। हाईकोर्ट को पुलिस और प्रशासन की अवैध कार्रवाइयों का स्वतः संज्ञान लेना पड़ा और पुलिस आला अधिकारी के पास अदालत की फटकार का कोई जवाब नहीं था कि जांच के पहले ही वे प्रेस कान्फरेंस करके कैसे घोषित कर दिए कि बलात्कार हुआ ही नहीं? पीड़ित परिवार के मानवाधिकार का हनन करते हुए, अवैध रूप रूप से लाश को चुपके से जला देने के कुकृत्य का भी कोई जवाब नहीं था।बिना पूछे डीएम का बयान कि ऊपर से बिना किसी आदेश के स्थानीय स्तर पर लाश को परिजनों की सहमति के बिना जलाने का सामूहिक फैसला लिया गया, दाल में काले का संकेत देता है। राज्य प्रशासन से अदालत ने यह भी पूछा कि यदि सामूहिक फैसला था तो केवल एसपी को क्यों निलंबित किया गया? सच्चाई पता होने पर संदेह के घेरे में नहीं खड़ा किया जाता, आपोप लगाया जाता है। लंदेह के घेरे में संदिग्ध आचरण से खड़ा किया जाता है। सच्चाई जानने के लिए संदेह करना और सवाल करना जरूरी होता है।

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