Friday, October 23, 2020

लल्ला पुराण 359(जिन्ना)

 जिन्ना को खलनायक बनाकर बंटवारे की औपनिवेशिक परियोजना में शासकों के एजेंटों के वारिसों को बलि का बकरा मिल जाता है। गांधी जी ने औपनिवेशिक शासन की अपनी समीक्षा में लिखा था कि अपनी दुर्गति के कारण हमें बाहर ही नहीं अपने अंदर भी ढूंढ़ना चाहिए। जिन्ना लंबे समय तक कांग्रेसी थे, उन्होंने इंगलैंड में पढ़ाई करते हुए दादाभाई नौरोजी की इंगलैंड की संसद सदस्यता के लिए छात्रों की लामबंदी की थी। वे और तिलक एक दूसरे के प्रशंसक थे थे 1905 में वे तिलक पर लगे राजद्रोह के मुकदमें में उनके वकील थे। वे नास्तिक थे। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में जिन्ना ने 1916 में हिंदू-मुस्लिम एकता को पैरोकार के तौर पर प्रवेश किया तथा लखनऊ समझौते में अहम भूमिका निभाया था। मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपत राय आदि के साथ कोकोरी कांड के क्रांतिकारियों की सजा कम कराने का वायसराय को ज्ञापन देने में जिन्ना भी थे। सावरकर जब वफादारी के वायदे के साथ अंग्रेजी सरकार की वजीफाखोरी कर रहे थे और गोलवल्कर उनकी क्रांतिकारी राजनीति में खामियां निकाल रहे थे तब जिन्ना ने जेल में भूख हड़ताल कर रहे भगत सिंह और उनके साथियों का मुद्दा नेनल असेंबली में जोरदार ढंग से उठाया था। कांग्रेस में मुस्लिम हितों की उपेक्षा के चलते जिन्ना मुस्लिम लीग में शरीक हो गए तथा हिंदू महासभा के दो राष्ट्र सिद्धांत के बाद, अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते वे पाकिस्तान की मांग के समर्थक बन गए। कांग्रेस के नेतृत्व में जब भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था तब अंग्रेजों की एजेंट हिंदू महासभा तथा मुस्लिम लीग बंगाल और उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत में साझा सरकारें चला रही थीं। अंग्रेजी शासन द्वारा बंटवारे के प्रस्ताव के बाद हिंदू और मुस्लिम दोेनों ही समुदायों के सांप्रदायिक नरपिशाचों ने हिंसा का जो तांडव मचाया उसमें कांग्रेस को बंटवारे के प्रस्ताव को पारित करना पड़ा। बंटवारे के चलते दोनों ही समुदायों के सांप्रदायिक संगठनों को सत्ता की मलाई मिली, मुस्लिम फिरकापरस्तों को पाकिस्तान में तुरंत और उनके हिंदू मौसेरे भाइयों को, ऐतिहासिक कारणों से, हिंदुस्तान में आजादी के आधी सदी बाद। धर्म के नाम पर बंटवारा कितना अनैतिहासिक और अतार्किक था वह बंटवारे के 25 साल से कम समय में ही बांगलादेश के निर्माण से साबित हो गया। ऐतिहासिक परिघटनाओं की विवेचना में क्या होता तो क्या होता व्यर्थ की बात होती है, लेकिन मुझे लगता है कांग्रेस को बंटवारे के प्रस्ताव पर मुहर न लगाने पर अड़ जाना चाहिए था, थोड़ी और हिंसा भले ही होती लेकिन बंटवारे के साथ हुए तांडव और दोनों तरफ अभूतपूर्व विस्थापन से कम होता तथा भविष्य की पीढ़ियों को सांप्रदायिकता के नासूर का दंश दशकों न झेलना पड़ता। यदि बंटवारा न होता तो आरएसएस और जमातेइस्लामी जैसी ताकतें कभी सत्ता में न आ पातीं।


1 comment:

  1. आपने इनकी (मोरारजी और वीपी सिंह की) सरकारों के बारे में नहीं पूछा, प्रधानमंत्री के रूप में इनके बारे में पूछा तो कांग्रेस वैचारिक समरसता की नहीं वैचारिक वैविध्य की पार्टी रही है और दोनों ही वैचारिक रूप से कांग्रेसी ही थे। 1977 में मोरारजी के नेतृत्व में जनता पार्टी सरकार में संघ की भागीदारी ने सांप्रदायिकता की राजनीति की स्वीकार्यता पर मुहर लगा दी और वीपी सिंह सरकार में भाजपा की भागीदारी से संघ की वैधता दुबारा तस्दीक हुई। वीपी सिंह द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा की प्रतिक्रिया में अडवाणी की धर्मोंमादी रक्तरंजित सांप्रदायिक कमंडल अभियान की रथयात्रा ने सवर्णों में संघी भक्तिभाव का स्थाई भाव भर दिया तथा भारत की राजनीति के नए प्रतिगामी चरण की शुरुआत हुई, मोदी का राजनैतिक उदय उसी की राजनैतिक परिणति है। हिंदू महासभा द्वारा बंटवारे को एजेंडा बनाने की प्रतिक्रिया में निश्चित ही कांग्रेसी वैचारिक प्रशिक्षण वाले जिन्ना उतने ही कांग्रेस विरोधी और सांप्रदायिक हो गए जितने हिंदू महासभा और आरएसएस। बंटवारे के बाद जिन्ना भी नेहरू की तरह एक सेकुलर पाकिस्तान बनाना चाहते थे लेकिन वहां उनपर कट्टरपंथी ताकतें भारी पड़ीं, यहां नेहरू कट्टरपंथी ताकतों पर भारी पड़े। जिन्ना के बारे में मेरी प्रतिक्रिया उन्हें बंटवारे के एकतरफा खलनायक के रूप में पेश करने की सामान्य प्रवृत्ति को लेकर थी।

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