किसी ने व्यंग्यभाव में लिखा कि दलित आज के देवता हैं और सवर्ण राक्षस, उस पर:
इसी तरह का दलितों का उपहास 1970 के दशक के शुरुआती दौर में जब कुछ दलित सारी प्रतिकूलताओं के बावजूद विश्वविद्यालय तक पहुंचने लगे थे, तब भी उन्हें सरकारी ब्राह्मण कहकर किया जाता था। तबसे अब तक स्त्री प्रज्ञा और ददावेदारी के अभियान की ही तरह दलित प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान का रथ काफी दूरी तय कर चुका है। उनका संघर्ष समानता का है, देवत्व का नहीं। ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध के संस्कारों को समानता की दलितों की मांग अपमान जनक लगती है। आप लोगों में से किसी से किसी दलित सहपाठी ने कभी बदतमीजी की है क्या? मेरे साथ तो दलित परिचितों, मित्रों और छात्रों का व्यवहार सदा अति सम्मानजनक रहा है तथा उनका आचरण शिष्टतापूर्ण। वास्तविक दुनिया में तो निजी व्यवहार में किसी से भी कभी भी अशिष्टता का कोई अनुभव नहीं है, आभासी दुनिया में भी अशिष्टत व्यवहार का अनुभव उन्हीं से है जो आरक्षण से प्रतिभा के हनन का रोना रोते हैं, भाषा की तमीज शायद उनके प्रतिभा की परिभाषा में नहीं आती हो! यथास्थिति में बदलाव से उथल-पुथल मचता है। दलितों की समानता की दावेदारी से सवर्णों की बौखलाहट, यथास्थिति में बदलाव से उत्पन्न उथल-पुथल है। यही उथल-पुथल स्त्री की समानता की दावेदारी से भी मची है, स्त्रियों के विरुद्ध बढ़ती हिंसा सेक्स-कुंठा से नहीं, स्त्री प्रज्ञा और समानता की दावेदारी से उत्पन्न हुई है। मनुवादी, वर्णाश्रमी व्यवस्था में स्त्रियों का भी स्थान अवमानना पूर्ण है। लेकिन अब कितनी भी बौखलाहट क्यों न हो, स्त्री-प्रज्ञा और दावेदारी तथा दलित-प्रज्ञा और दावेदारी के बढ़ते रथ रुकने वाले नहीं हैं। 1982 में मुझे अपनी बहन के उच्च शिक्षा के अधिकार के लिए पूरे खानदान से भीषण संघर्ष करना पड़ा था, आज किसी बाप की बेटा-बेटी में भेद करने का सार्वजनिक बयान देने की औकात नहीं है, एक बेटे के लिए 5 बेटियां भले ही पैदा कर ले। उसी तरह जैसे आज किसी की सार्वजनिक बयान देने की औकात नहीं है कि वह जातिआधारित भेदभाव करता है, व्यवहार में कितना भी कट्टर जातिवादी क्यों न हो। 2012 में अपने गांव के इलाके के एक अपरिचित चौराहे के चाय के अड्डे पर जाति-पांत की बहस में फंस गया-- एक बनाम सब। एक ने आक्रोश में कहा, 'तो अपनी बहन-बेटी की शादी चमार से कर दीजिएगा?' 'मैं तो खुद चमार हूं' जवाब ने आक्रामक भीड़ को मर्यादित कर दिया। पूरी कहानी कहीं में छपी थी, फिर कभी।
चमार कहना पड़ा न आपको ?💐 इसी में आपकी विश्वसनीयता संपृक्त है । मैं तो वर्ण व्यवस्था में हर समता, न्यायवादी नागरिक को शूद्र वर्ण स्वीकार करने का आह्वान करता हूँ । दूर दूर से काम नहीं चलेगा और वह सदैव अविश्वसनीय रहेगा , जैसा आपके साथ बार बार घटित होता है । जमीन देखनी होगी पदार्थवादी दृष्टि से । भारत वर्ण व्यवस्था में निमग्न है । तो "तय करो किस ओर हो तुम", किस वर्ण के हो भाई? यह पूछा ही जायगा। यहाँ वर्णसंघर्ष ही वामपंथ का वर्ग संघर्ष है।
ReplyDeleteइतना आसान नहीं यह मुद्दा आदरणीय ईश जी। क्योंकि ब्राह्मण तो हैं । अब यदि कोई ब्राह्मण बनने की चेष्टा में है तो जलन क्यों ? क्यों पढ़ाया जाय कि अरे ब्राह्मण तो विषमता मूलक है? क्या ब्राह्मण नाम की विषमता मिट गई ? हाथरस में ठाकुर कर तो रहे हैं पंचायत ? तो यदि कोई चमार ग्रुप ठकुरैती द्वारा ही इनका प्रत्युत्तर दे तो उनका ठाकुरवाद आपमेNजनक कैसे हो गया ?
ReplyDeleteमुझे याद है 70-80 के दशक में दिनमान में शायद त्रिलोचन की कविता छपी थी :-
"खा जाएँगे तुम्हें अफ्रीका के महामानव - -"
मैं तय कर सकता हूँ भारत का शूद्र भी कवि का वही महामानव है। मैं महामानव दल की प्रेरणा महसूस करता हूँ बहुजन पार्टी के बरक्स । बहुजन गलत शब्द है । महज़ राजनीतिक। हम संख्या की राजनीति से ऊपर के चिंतक हैं सत्यनिष्ठ, और संख्या से सत्य सिद्ध नहीं हुआ करता । सत्य तो हम अल्पसंख्यक मस्तिष्क में है । महामानव दल, Indivividualist DGSPN की आलोचना/ विरोध में आपका सादर अभिनंदन, यदि ऐसा लगे आपको । न लगे तो शूद्र का स्वागत करें👍💐
हम तो हमेशा शूद्र के साथ हैं।
ReplyDeleteमैं 1970 नहीं 2020 में ही जी रहा हूं, मैं तो प्रेम फैला रहा हूं, यह तो आपके दलित द्वेष की इस हास्यास्पद पोस्ट का जवाब है। आपके निजी कौन दोस्त हैं उससे सार्वजनिक मंच पर किसीको कोई मतलब नहीं है, आपके सार्वजनिक बयान क्या हैं, राय उस पर ही बनाई जाती है। दलित आज के ब्राह्मण हैं, सवर्ण राक्षस और ब्राह्मण महाराक्षस, इस बेहूदे व्यंग्य का क्या मतलब? व्यंग्य साहित्य की बहुत सशक्त विधा है लेकिन इतना आसान होता तो सब हरिशंकर परसाई न बन जाते। आप मेरे ऊपर नफरत फैलाने का कुतर्कपूर्ण और विवेक हीन, बेहूदा आरोप लगा रहे हैं, आपकी पोस्ट निहायत ही जघन्य जातिवादी, दलित विरोधी नफरती वक्तव्य है। मेरा कमेंट शिष्टतापूर्ण सफाई है कि दलित देवत्व नहीं समानता के लिए लड़ रहा है। यहां बोलने वाला कोई दलित नहीं है, इसलिए मुझे बोलना पड़ रहा है।
ReplyDeleteयह आपकी इस दलित विरोधी, जातिवादी पोस्ट का जवाब है, जो दलित उत्पीड़न न कर सकने की कुंठा की उपज लगती है। हमने 1970 की बात नहीं आपकी पोस्ट की बात की है और बताया है कि दलितों का यह मजाक नया नहीं है। आप उन्हें देवता बता रहे हैं 1970 के सवर्ण जातिवादी उन्हे सरकारी ब्राह्मण बताते थे। पूर्वाग्रह से मुझे नहीं, घोर जातिवादी दुराग्रह से आपको निकलने की जरूरत है। आपने ही अभी कहा था सवर्ण होने में आपका कोई हाथ नहीं है तो सवर्णवादी दुराग्रहों से बाहर निकलिए। मैं आप पर निवेश समझकर समय खर्च करता हूं लेकिन लगता है मेरी समझ गलत है और समय निवेश की बजाय बर्बाद करता हूं। सादर।
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