कितने लोग सुबह पत्नी को चाय बनाकर पिलाते हैं? हा हा। मर्दवाद (जेंडर) कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है, न ही 'सूरज पूरब में उगता है' जैसा कोई साश्वत विचार है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम तक चला आया है। मर्दवाद विचार नहीं, विचारधारा है जो हमारे नित्य प्रति के व्यवहार और विमर्श में निर्मित-पोषित होता है। इस पोस्ट का विचार इसी ग्रुप में मर्दवाद के बहाने स्त्रियों के खाने-पीने (सिगरेट-शराब) तथा पहनावे पर अवमाननापूर्ण तंज तथा उनकी आजादी पर कटाक्ष के कमेंट पढ़कर दिमाग में आया। आप लोग सही कह रहे हैं कि बहुत फर्क आया है, लेकिन वह मर्दवादी मर्दों की कृपा का नहीं स्त्री-प्रज्ञा और दावेदारी के जारी निरंतर अभियान का परिणाम है। 1982 में मुझे अपनी बहन के उच्च शिक्षा के अधिकार के लिए पूरे खानदान से संघर्ष करना पड़ा था। आज किसी बाप की औकात नहीं है कि सार्वजनितक रूप से स्वीकार करे कि वह बेटी-बेटा में फर्क करता है, एक बेटे के लिए 5 बेटियां भले पैदा कर ले। मैं अपनी बेटियों तथा छात्राओं को कहा करता था कि वे लोग भाग्यशाली हैं कि 1-2 पीढ़ियों बाद पैदा हुए, नहीं तो अपनी दादी और मां की सामाजिक चेतना के स्तर के साथ अपनी तुलना कर लें। लेकिन जिन अधिकारों और आजादी का वे आनंद ले रही हैं, वे खैरात में नहीं मिले हैं बल्कि पिछली पीढ़ियों के सतत संघर्षों के परिणाम हैं। मुफ्त में कुछ नहीं मिलता, हक के एक एक इंच के लिए लड़ना पड़ता है। उन्हें यह भी कहता था कि पिछली पीढ़ियों के संघर्षों को आगे बढ़ना उनकी जिम्मेदारी है। कुछ लोग कह रहे हैं कि स्त्रियों के साथ भेदभाव स्त्रियां ज्यादा करती हैं। विचारधारा की ऐक खासियत यह होती है कि वह उत्पीड़क और पीड़ित दोनों को प्रभावित करती है। न केवल मेरे पिताजी ही सोचते थे कि उनकी आवाज सुनकर दौड़ पड़ना मां का कर्तव्य है, बल्कि मां भी ऐसा ही सोचती थी। मेरी पीढ़ी की ज्यादातर कामकाजी स्त्रियां डबल रोल करती हैं, फुरटाइम प्रोफेसनल और फुलटाइम हाउस वाइफ। स्थितियां अब बदल रही हैं। शादी के बाद कुछ स्त्रियों ने पति का सरनेम ग्रहण करना बंद कर दिया है कुछ ने मधयमार्ग अपनाकर अपना छोड़े बिना पति का भी ले लिया है। किसी लड़की को बेटा कहकर हम ही साबाशी नहीं देते हैं बल्कि लड़कियां भी उसे साबाशी के रूप में ही लेती हैं। इस दृष्टांत का प्रयोग मैं अपने छात्रों को यह समझाने के लिए करता था कि किस तरह एक मिथ्या चेतना के रूप में विचारधारा हमारे नित्यप्रति की जीवनचर्या में निर्मित-पोषित होती है और उत्पीड़क तथा पीड़ित दोनों को प्रभावित करती है। मैं किसी बेटी को बेटा कहकर साबाशी नहीं देता। मेरी बेटियों को कोई बेटा कहता है तो अकड़कर जवाब देती हैं कि Excuse me I don't take it as a complement.
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कटु सत्य है पर अब जमाना बदल रहा है ।देर आए दुरूस्त आए ।
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