दलित प्रज्ञा और दावेदारी (Dalit scholarship and assertion) के अभियान से सवर्णवादी यथास्थिति को गंभीर चुनौती मिल रही है, इसीलिए वर्णवादी सवर्णों की बौखलाहट की प्रतिक्रिया देखने को मिलती है। वही हाल स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान से मर्दवादी खेमें की बौखलाहट का है। पिछले 20-25 सालों में छात्रों में देख रहा हूं कि लड़कियां लड़कों के सापेक्ष बहुत अच्छा कर रही हैं, वही हाल दलित लड़कों की है। मेरा विश्लेषण है कि वंचना और भेदभाव की यादें अभी ताजा हैं, मौके को वे चुनौती की तरह ले रही/ रहे हैं। हम यदि निहित स्वार्थ के पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सोचेंगे तभी दूसरे (दलित और स्त्री) के बारे में न्यायपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचेंगे। आज जिस तरह मुसलमान की देशभक्ति पर सवाल किया जाता है, उसी तरह दलित की प्रतिभा पर या स्त्री के खान-पान की आदतों और पहनावे पर।
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