Tuesday, October 13, 2020

बेतरतीब 86 (सारंगा स्वर)

 

कमेंट सब अपने आप आगे-पीछे हो गए हैं। सीडब्लूडीएस की नौकरी के दौरान परिवार के साथ रहने का मन बना लिया था। बेटी का चौथा साल लगा था। भाई की जेएनयू में फ्रेंच में 5 साला एमए की पढ़ाई पूरी हो गयी थी तथा वह पर्यटन का काम करने लगा और मैं उसकी जिम्मेदारी से मुक्त हो गया। बहन वनस्थली में पढ़ती थी। दूसरी बहन (11वीं कक्षा में) और सबसे छोटे भाई (नवीं में) को गांव से ले आकर सरकारी स्कूलों में भर्ती कराकर भाई के पास छोड़ दिया तबसे उनकी पढ़ाई का जिम्मा उसने ही उठाया। पुष्पविहार (साकेत)के तीसरी मंजिल सबलेटिंग के सरकारी घर में पानी की बहुत गंभीर समस्या थी। अकेले के लिए तो किसी तरह काम चल जाता था लेकिन परिवार के सात मुश्किल होता। दक्षिण दिल्ली में दूसरा घर लेना बूते की बात नहीं थी। सपरिवार रहने के लिए, यमुना पार में नए बन रहे मयूरविहार में घर ले लिया। मयूर विहार में अल्कॉन पब्लिक स्कूल नया नया खुला था। वहां की प्रिंसिपल डीपीएस की प्राइमरी की प्रधानाध्यापिका रह चुकी थी और मुझे जानती थी तथा आसानी से बेटी का दाखिला हो गया। एक नयी पाक्षिक पत्रिका शुरू हुई थी 'सारंगा स्वर' जिसके संपादक विजय कुमार मिश्र बिहार कैडर के मेरे एक आईएएस मित्र से मेरे बारे में सुनकर काफी प्रभावित थे। सारंगा स्वर का दफ्तर आईटीओ पर हंस भवन में था। जेएनयू का मेरा मित्र और युवकधारा में उपसंपादक रहा अमिताभ उसमें विशेष संवाददाता था। बिल्ली के भाग से छीका टूटने की तरह उन्होंने मुझे पत्रिका में विशेष संवाददाता की नौकरी के लिए आमंत्रित किया। किसी पत्रिका में काम करने का यह पहला अवसर था। हमारी, अमिताभ और एक अन्य मित्र राजकुमार शर्मा की का फी अच्छी टीम थी। विजय जी संपादकीय के अलावा बच्चों के लिए एक कॉलम लिखते थे। कम्यूटर का जमाना अभी आया नहीं था। प्रूफ और संपादन के बाद ब्रोमाइड बनता था। जिसे काटने चिपकाने का एक आर्टिस्ट होता था। नाम भूल रहा है। टाइपिस्ट का भी नाम भूल रहा है। हम 6 लोगों की टीम थी जिसमें कुछ दिनों बाद एक और पत्रकार श्रीप्रकाश जी जुड़ गए। और भी बाद में राहुलदेव जी माया से निकले थे तो वे संपादकीय परामर्सदाता के रूप में जुड़ गए। वैसे थे तो संपादकीय परामर्शदाता, लेकिन वे परामर्श मालिक को ही देते थे। सारंगा स्वर में पहला काम मेरा सोवियक उत्सव में सोवियक सर्कस पर रिपोर्ट करना था। सेवियत संघ तब तक गोर्बाचोव के हवाले हो चुका था। पत्रिका बहुत ही अच्छा निकल रही थी, एक-दो बार प्रेस में जानेके पहले हम तीनों (मैं, अमिताभ, राजकुमार) देर रात तक काम करते और ढाबे पर खाकर ऑफिस में ही दरी बिछाकर सो जाते। उस पत्रिका में मेरा अंतिम काम था भगत सिंह की साथी, क्रांतिकारी दर्गा भाभी (दुर्गा देवी वोहरा) का इंटरविव और प्रोफाइल थी जो उस अंक की 'क्रांति की दुर्गा' शीर्षक से कवर स्टोरी थी। सारंगा स्वर में नौकरी के संस्मरण विस्तार से अलग से लिखूंगा। दुर्गा भाभी के इंटरलिव के बाद से संपादकीय सलाहकार और मालिक से मेरा विवाद शुरू हो गया, जिसकी परिणति मुझे नौकरी से निकालने, ईशमित्र बहाली समिति के गठन से विरोध संघर्ष, बहाली तथा इस्तीफे में हुई जिसके संस्मरण मैं फिक्सन रूप में लिख चुका हूं जिसे डिफिक्शनलाइज करना है। इसी दौरान जीवन में तूफान खड़ा कर देने वाली एक पारिवारिक त्रासदी घटी, जिसके बारे में फिर कभी अलग से।



खैर सारंगा स्वर की नौकरी के दौरान मैं दिवि विश्वविद्यालय के कॉलेजों में गाहे-बगाहे इंटरविव भी देता रहा। एकाध जगहों पर तो पैनल में पदों की संख्या से अगले नंबर पर नाम था। जामिया मेंअविस्मरणीय लंबा, अच्छा इंटरविव हुआ। कुलपति महोदय मेरा सांप्रदायिकता का पेपर पढ़ चुके थे आईआईपीए (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेसन) के प्रोफेसर एसएन मिश्र भी एक एक्सपर्ट थे। इंटरविव खत्म होने पर उन्होंने मुझे अपना विजिटिंग कार्ड भी दिया था। वे और कुलपकति महोदय बहुत रुचि ले रहे थे। इंटरविवि बहुत संतोषप्रद था तथा आधे घंटे से अधिक चला। इलाहाबाद विवि के ढेढ़ घंटे के इंटरविव के अनुभव के बाद बहुत आशान्वित तो नहीं था फिर भी आशा अच्छी लगती है। कुछ महीनों बाद कहीं मुलाकात होने पर पहचान गए और बताए कि वे और वीसी साहब मेरे पेपर और इंटरविव से बहुत प्रभावित हुए और तमाम तर के बावजूद मेरा नाम टौथे स्थान पर रखवाने में सफल हुए। 3 पद थे। जैसे इलाहाबाद विवि के कुलपति को कहा था कि 6 पद थे तो 7वें पर मेरा नाम रखते या सत्तरवें पर क्या फर्क पड़ता? वैसे ही इन्हे भी कहा कि 3 पद थे तो 4 पर रखते या 40 पर क्या फर्क पड़ता। खैर सारंगा की नौकरी के बाद फिर शुरू हुआ तलाशेमाश का एक और दौर और कलम की मजदूरी से घर चलाना, उसी क्रम में शुरू हुआ इग्नू के लिए अनुवाद और लिखना तथा मौजूदा संदर्भ में इतने कमेंटों की भूमिका के बाद टेक्स्ट का कमेंट।

 

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