Monday, October 12, 2020

बेतरतीब 84 (डीपीएस जारी)

 

पिछला संस्मरम, 'बेतरतीब 83' पोस्ट किए काफी दि हो गए लेकिन उसीकी निरंतरता में --

बेतरतीब 84 (डीपीएस जारी)

कुछ व्यवधानों और 2 दिन थोड़ा तबीयत खराब होने के चलते, छोटे कमेंट के रूप में सोचकर शुरू हुआ बड़ा होता कमेंट अधूरा छूट गया। इग्नू में नौकरी के संस्मरण का टेक्स्ट तो शुरू ही नहीं हुआ वहां तक पहुंचने की भूमिका ही लंबी खिंचती गयी, लेकिन अब भूमिकागत घटनाओं का विस्तृत वर्णन फिर कभी, भूमिका को संक्षेप में पूरा करने की कोशिस करता हूं।

मैं रोज डीपीएस के गेट के बाहर जैसे ही मजीद और किरमानी के साथ दरी वगैरह बिछाकर भूख हड़ताल शुरू करता, पुलिस उठा ले जाती और स्कूल बंद होने तक आरकेपुरम् सेक्टर 7 थाने में स्कूल बंद होने तक बैठाए रहती। वहां कुछ पत्रकारों समेत कई जेएनयू के मित्र मिलने आते पुलिस वालों से पूछताछ करते और कई मुद्दों पर विचार विमर्श करते। कुछ पत्रकार मित्र थाने फोन करके पूछते कि उन्होंने एक डीपीएस टीचर को गिरफ्तार किया है क्या? वे मना करते। 2 बजे मैं फिर निकल पड़ता अखबारों के दफ्तरों की तरफ। यह सिलसिला 5 दिन चला। छठें दिन पुलिस नहीं आई और मुझे भूख हड़ताल शुरू करने दिया गया। इस बीच लुगानी (प्रिंसिपल ) ने कुछ शिक्षकों से जनसत्ता के लेख का खंडन लिखवाया जिसके साथ अरविंदमोहन के खंडन का खंडन छपा। 5 दिन नीबू पानी और सिगरेट पर आराम से कट गया। रात में कॉलेजों में पढ़ रहे पुराने छात्र और कुछ जेएनयू के मित्र मिलने आते डॉ. मजीद और किरमानी लगातार साथ ही थे। कुछ अन्य शिक्षक भी चुपके से मिलने आते और अंदरकाने में मेरे साथ होने की बात बताते। इस बीच प्रिंसिपल का एक खास चहेता मेरे पास भूख हड़ताल तोड़ने के लिए निष्कासन काल के वेतन और 50 हजार रूपए का ऑफर लेकर आया। 50 हजार उन दिनों काफी होता था। खैर यही करना होता तो किसी अन्य शिक्षक के लिए प्रिंसिपल की कोप पात्रता क्यों मोल लेता? रोज जब स्कूल बसें आती तो अनुशासन के रखवाले शिक्षक बच्चों पर सीधे क्लासरूम में जाने के लिए चिल्लते, लेकिन बच्चे लाइन लगाकर मुझसे हाथ मिलाकर जाते। यही हाल छुट्टी के बाद भी होता। बच्चे हाथ मिलाकर अपनी अपनी बसों की तरफ जाते। इससे एक बात तो पता चल गयी कि 5 दिन बिना खाए-पिए बोलने की हालत में रह सकता था। यह हमने फिर सन् 2000 में आजमाया, नियुक्तियों में हेरा-फेरी के विरुद्ध मैं और डॉ. मनिवन्नन (अब मद्रास विवि में प्रोफेसर) भूख हड़ताल पर बैठे थे। इन 5 दिनों में स्कूल की काफी बदनामी हो रही थी। छठे दिन प्रबंध समिति की विशेष बैठक बुलाई गयी और निष्कासन काल को नौकरी की निरंतरता काल मानते हुए मेरी नौकरी पर बहाली का फैसला किया गया। कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद उन दिनों प्रबंधसमिति के अध्यक्ष थे।छठें दिन शाम (लगभग 6 बजे) प्रिंसिपल, सलमान खुर्शीद और कई शिक्षकों की उपस्थिति में डॉ, मजीद के हाथ से जूस पीकर भूख हड़ताल तोड़ा। दर असल मुझे जिस समय निकाला मैं खुद ही छोड़ने की सोच रहा था। 4-6 महीने का सोचकर किया था और 4 साल हो गए। मुझे मई-जून-जुलाई के वेतन के चेक के साथ निष्कासन को रद्द करने और नौकरी पर बहाली की चिट्ठी मिली। इस प्रकरण और डीपीएस के अन्य अनुभवों पर विस्तार से कभी अलग से लिखूंगा।

नौकरी पर तो वापसी हो गयी, लेकिन मुझे कोई टाइमटेबल नहीं दिया। मैं जिस क्लास में मन करता चला जाता। 4-5 दिन बाद मैंने 3 महीने का नोटिस देकर इस्तीफा दे दिया। मुझे कहा गया कि नोटिस पीरिएड के वेतन के साथ मुझे स्कूल आने से छूट मिल सकती है, लेकिन मैंने कहा कि बेईमान नहीं हूं कि बिना काम की मजदूरी लूं और तीन महीने मैं स्कूल आता रहा। स्टाफ रूम में मजीद और किरमानी के अलावा ज्यादातर टीचर मुझसे बातचीत में कतराते थे। खैर 3 महीने बीत गए और मैंने डीपीएस को अलविदा कहा और निर्णय लिया कि जब तक भूखों मरने की नौबत न आएगी गणित का इस्तेमाल आमदनी के रूप में नहीं करूंगा और अब तो उस बात के 35 साल हो गए, वह नौबत नहीं आयी। जेएनयू का निष्कासनकाल पूरा होने में अभी एक साल था। पंकज सिंह (दिवंगत) ने पूछा मैं एक पाक्षिक 'युवकधारा' के लिए अंतरराष्ट्रीय मामलों पर कॉलम, 'विश्व परिक्रमा' लिख सकता हूं और मैंने न कहना सीखा नहीं था। तह तक जनसत्ता और माया में कुछ लेख लिख चुका था। और शुरू हुआ कलम की मजदूरी से आजीविका का दौर। एक लेख का डेढ़ सौ मिलता था। लगभग उसी समय 'लिंक' (अंग्रेजी साप्ताहिक) में लिखना शुरू किया महीने में 2-3 लेख हो जाते थे। उससे भी प्रति लेख 150 रुपए मिलते थे। द्विभाषी होने से फायदा यह है कि एक ही विषय पर दोनों भाषाओं में लिख सकते हैं।



 

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