Tuesday, October 13, 2020

बेतरतीब 85 (सीडबलूडीएस)

डीपीएस प्रकरण के बाद अनुवाद समेत कलम की मजदूरी से काम चलने लगा। 1985 में परिवार के साथ रहने यानि पत्नी और डेढ़ साल की बेटी को गांव से बुलाने के मकसद से फ्लैट किराए पर लिया था लेकिन डीपीएस के प्रिंसिपल ने नौकरी से निकाल कर अलग लड़ाई में फंसाकर कार्यक्रम चौपट कर दिया। जेएनयू के सीनियर बालाजी पांडेय आईसीएसआर पोषित, डॉ. वीना मजूमदार (वीना दी) द्वारा स्थापित सेंटफॉर वीमेन्स डेवलेपमेंट स्टडीज (CWDs) में नौकरी करते थे, उनसे पता लेकर, 1986 के अंतिन दिनों में कभी एक दिन उस समय पंचशील एंक्लेव स्थित उसके दफ्तर चला गया। वीना दी बहुत सहजता और स्नेह से मिलीं। मैंने नौकरी की इच्छा जाहिर किया तो उन्होंने सांप्रदायिकता और स्त्री के सवाल (Woman's question and communalism) पर एक परियोजना प्रस्ताव (Project Proposal) लिखकर ले आने के लिए कहा, पीएचडी का रिसर्च प्रपोजल तो लिखा था, प्रोजेक्ट प्रपोजल लिखने का कोई अनुभव नहीं था। लेकिन मैं जो होगा देखा जाएगा के सिद्धांत पर जीता रहा हूं। अगले दिन जेएनयू की लाइब्रेरी गया, कई अच्छी किताबें मिल गयीं। स्त्रियों की आजादी संबंधित मनुस्मृति के उद्धरण से शुरू कर प्रपोजल लिखने में 2 दिन लग गए। तीसरे दिन प्रपोजल लेकर पहुंच गया। बीना दी पढ़कर बहुत खुश हुईं और उत्साह के साथ डॉ. लतिका सरकार तथा डॉ. मालविका कार्लेकर को बुलाकर दिखाया। इस बात से मेरी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा कि बीना दी को मेरा प्रपोजल इतना पसंद आया। उन्होंने चाय और सिगरेट पिलाया और अगले दिन से काम पर आ जाने को बोल दिया। अगले दिन आकर बीना दी के साथ व्यापक विमर्श के बाद एक बृहद काम की योजना बनी। पहला भाग या पूर्व-कथ्य आरएसएस और जमाते इस्लामी के वैचारिक साहित्य का अध्ययन था। सारा काम जेएनयू और तीनमूर्ति लाइब्रेरी में करना था। कुछ दिन ऑफिस जाकर लाइब्रेरी गया बाकी दिन सीधे लाइब्रेरी जाने लगा। जेएनयू जाता तो कम-सेकम 10 बजे तक लाइब्रेरी में बैठता और तीनमूर्ति 7 बजे बंद होती थी। ऑफिस में कुछ लोगों को बिना ऑफिस में हाजिरी दिए लाइब्रेरी जाना नागवार लगा तो ऑफिस जाकर लाइब्रेरी जाने लगा। जेएनयू और तीनमूर्ति में उपलब्ध आरएसएस और जमाते इस्लामी पर पुस्तकें और उनके के सारे ग्रंथ, मनुस्मृति तथा इस्लामी राजनैतिक सिद्धांत पर कुछ पुस्तकों का अध्ययन करने के बाद लिखना शुरू किया। 1987 के मध्य अप्रैल में इंडियाइंटरनेसनल सेंटर में 'स्त्री, धर्म और कानून' विषय पर आयोजित सेमिनार में पेश करने के लिए पेपर तैयार करना था। शोधपत्र लिखने का आत्मविश्वास जुटाकर लिखना सुरू किया। और समय से पहले, "Women' Question in Communal Ideologies: A Study into the Ideologies of RSS and Jamat-e-Islami" शीर्षक से लगभग 10,000 शब्दों का पेपर तैयार लिखा गया। बीना दी को बहुत पसंद आया। टाइप होने के बाद गोष्ठी में पेश करने के लिए लगभग 2500 शब्दों का उसका सार तैयार किया तथा 400-500 शब्दों का ऐब्स्ट्रैक्ट। इस प्रक्रिया में लेखकीय आत्मविश्वास काफी मजबूत हुआ। मुझे गोष्ठी में पेपर पेश करने के अवसर से अधिक खुशी जस्टिस वीआर कऋष्ण एय्यर के साथ मंच शेयर करने की थी। गोष्ठी में जस्टिस अय्यर समेत सब लोगों ने पेपर की प्रशंसा की, काम की प्रशंसा किसे नहीं प्रिय लगेगी? मेरा शुरुआती अनुबंध विस्तार की संभावनाओं के साथ 6 महीने का था। बीना दी तो मेरे काम और मुझ बहुत खुश थीं लेकिन लगता है वहां के और कुछ महत्वपूर्ण लोगों को अज्ञात कारणों से मुझसे नाराजगी थी। मुझे नौकरी से निकाला तो नहीं गया लेकिन वह प्रोजेक्ट वहीं खत्म हो गया तथा सांप्रदायिकता पर बृहद काम के पूर्वकथ्य के रूप में लिखा गया वह पेपर ही संपूर्ण कार्य रह गया। खैर वह 6 महीने की नौकरी मेरे लिए वरदान साबित हुई उस शोध की बदौलक मैंने सांप्रदायिकता पर हिंदी और अंग्रजी में कई लेख लिखे। वह पेपर पहली बार 1987 में टीचिंग पॉलिटक्स में छपा उसके बाद कई महत्वपूर्ण जर्नलों में और अंत में काउंटरकरेंट वेब पोर्टल में छपा जिसे मैंने ऑनलाइन कई बार शेयर किया। उसे और उस पर आधारित कुछ पेपर कई महत्वपूर्ण सेमिनार-गोष्ठियों में पेश किया। सांप्रदायिकता पर एक संकलन के लिए उसका हिंदी अनुवाद बहुत दिनों से एजेंडा पर है। एक मित्र ने वायदा किया है, देखते हैं। अप्रैल में उस गोष्ठी के बाद बचा बाकी समय दफ्तर आने-जाने और वहीं की लाइब्रेरी में कुछ पढ़ने-लिखने में बीता और फिर से तलाश-ए-माश में मशगूल हो गया। सीडब्लूडीएस में काम करते हुए गोरखपुर विवि, काशी विद्यापीठ तथा दिल्ली विवि के कई कॉलेजों में इंटरविव भी दिया था। सीडब्लूडीएस की नौकरी और उसके लिए पेपर लिखने के अनुभव के संस्मरण विस्तार से फिर लिखूंगा, इग्नू के संस्मरण के रास्ते में इसे यहीं विराम देता हूं। इस दौरान मैंने युवकधारा में कॉलम लिखना बंद नहीं किया था, लेकिन बाकी और जगहों पर लिखना बहुत कम हो गया था। इसी दौरान एक बार जनसत्ता में नौकरी की अर्जी दी उसका रोचक संस्मरण अपने ब्लॉग में संरक्षित किया है।


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