स्त्रीवादी मुद्दों पर एक विमर्श में एक मित्र ने बेटियों के पढ़ने-लिखने में मेरे सहयोग का जिक्र किया, उस पर --
जी, बेटियों के बढ़ने और पढ़ने लिखने में निश्चित ही मैंने सहयोग किया। हर मां-बाप पलने-बढ़ने-पढ़ने में अपने बच्चों का यथासंभव सहयोग करते हैं या यों कहिए उनके साथ बढ़ने के सुख का आनंद उठाते हैं। यही ऐतिहासिक विकास चक्र है।बच्चे की प्रारंभिक शिक्षा का केंद्र परवरिश का परिवेश ही होता है। बच्चे अपने परिवेश का बहुत सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं और तेज नकल्ची तथा चालू होते हैं। शिक्षक की ही तरह मां-बाप को भी प्रवचन से नहीं व्यवहार (उदाहरण) से बच्चों को शिक्षित करना चाहिए। उनके सोचने के अधिकार का अतिक्रमण कर उन पर अपने विचार थोपने की बजाय उनकी चिंतन-शक्ति के विकास क्रम में मददगार होना चाहिए। मानव इकिहास के विकासक्रम में, जैसा कि मैं कहता रहता हूं, हर अगली पीढ़ी, सामान्यतः, तेजतर होती है जिससे हमारा इतिहास पाषाणयुग से साइबरयुग तक की यात्रा कर चुका है। हर पीढ़ी अपने पूर्वजों की उपलब्धियों को समेकित कर उसे आगे बढ़ाती है। और इतिहास की गाड़ी में रिवर्स गीयर नहीं होता कभी प्रतिगामी शक्तियों के ड्राइवर की सीट पर काबिज होने से से लंबे यू टर्न भले ले ले, लेकिन अंततः आगे ही बढ़ती है। जब मैं बाप बना तो सोचने लगा कि मैं तो आवारा इंसान हूं, अच्छा बाप कैसे बना जा सकता है। स्कूल में शिक्षक के पूछने पर कि क्या बनना चाहता हूं, कह दिया था अच्छा। अब अच्छा तो कर्म नहीं, कर्म का प्रत्यय है। अच्छा, अच्छे कर्म से ही बना जा सकता है, जिसमें अच्छा बाप भी बनना भी शामिल है। उस समय जो सोचा: 1. Be democratic, at par (parity is not quantitative entity but qualitative concept) and transparent 2. Don't torture children by being over caring, over protective and over expecting and learn to respect child rights and wisdom.3 Don't arrogate their right to think. बाकी देखा जाएगा।
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