Saturday, October 4, 2014

हमारा गांव


हमारा गांव बहुत धनी तो नहीं मगर खुशहाल था
गुर्ब-ओ-जवार में अमन-ओ-चैन की मिशाल था
न था कोई धन्नासेठ न ही कोई फटेहाल था
रंज़िश-ओ-नफरत का वहां बिल्कुल अकाल था
भाईचारा-ओ-हमदर्दी में अपना गांव बस कमाल था
बावजूद-ए-नाइत्तेफाकी किसी को न कोई मलाल था
लग गयी मेरे गांव को नज़र-ए-सियायत
जल गयी सामासिक संस्कृति की विरासत
बता नहीं सकता अब अपने गांव की बात
वहां भी हुआ इस बार भीषण रक्तपात
उन्मादी लामबंदी की फिरकापरस्त उत्पात
सदियों का इतिहास हुवा पल में बर्बाद
होता था ईद-ओ-दिवाली का मुबारकबाद
होने लगा वहां मजहबी ज़िंदा-मुर्दाबाद
खेलते थे जो बच्चे एकसाथ दिन-ओ-रात
बढ़ गयी हैं उनमें अब दूरियां बेमियाद
समझ नहीं पाता इंसानों की यह फितरत
सियासत में फैलाता फिरकापरस्त नफरत
चलते रहे ऐसे ही सियासत के सिलसिले
हम और वे में बंटते रहे इन्सानी काफिले
ये गरीब से गरीव से गरीब को लड़ाते हैं
लाशों पर वोंटों की रोटी पकाते हैं
इंसानों को साधन समझता सियासतदान
आवाम की कमनिगाही वे बन जाता हुक़मरान
आएगी ही वह जनचेतना की नई विहानं
नही बंटेगा जाति-धर्म में तब इंसान
वर्गचेतना से होगा लैस मजदूर-ओ-किसान
मिटा देगा निज़ाम-ए-ज़र का नाम-ओ-निशान

(ईमिः 07.10.2014)

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