बेहतर है मिलना रख कर दरमियान थोड़ा
ख़लूश को बदनीयती समझ लेता है संस्कारी जन
बेहतर है खत-ओ-किताब़त का रिश्ता
अब मुखातिब-मुलाकात का करता नहीं मन
बेहतर है खुद चुनना अरण्य पथ
वानप्रस्थ हो ग़र समाज का क़ायदा
नियति हो ग़र वनवास
बेहतर है जंगल को उपवन मान लेना
ग़फलत हो ग़र अपनों को
बेहतर है एकाकीपन को एकांत बना लेना
परिस्थिति हो गर प्रतिकूल
बेहतर है उसे बदले भेष में बरदान मान लेना
ग़र पद्य बन जाये गद्य में कमेंट की कोशिस
बेहर है कलम की अाज़ादी का सम्मान करना.
(हा हा यह भी कविता सी हो गयी, शुक्रिया पुष्पा -- ईश)
(ईमिः 24.10.2014)
कवि हैं तो कविता ही होगी । कहीं सविता हो जायेगी तो नहीं सोच रहे थे जनाब :)
ReplyDeleteकरना चाहता था कमेंट गद्य में पद्य हो गया
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