Friday, October 24, 2014

जंगल में मंगल


फेस्बुक पर एक करने में एक कविता बन गयी थी पर येन-केन प्रकारेण गायब हो गयी, पूरी कोशिस से वही नहीं लिख पाया, यह लिा गया.

जंगल में मंगल
हमको आता है जंगल में भी मंगल का हुनर
होता अरण्यपथ का नहीं कोई भी हमसफर
हो गऱ साथ से अपनों को गफलत
एकाकीपन को एकांत बना लेते हम
होते हैं एकांत में ख़याल नये प्रियतम
ख़यालों से आशिकी का मजा लाजवाब
बुनतें है एक सुंदर दुनियां का ख़ाब
करेंगे बेपर्दा वैचारिक वर्चस्व का राज
भार से जिसके तड़प रहा सारा समाज
करेंगे खड़ा वैकल्पिक वैचारिक वर्चस्व
मेहनतकश का ही है दुनियां का सर्वस्व
बताना है मेहनतकश की मुफलिशी का मूल
समझता है जिसको वह कुदरत की भूल
समझेगा जब यह दुनियां का किसान-मजदूर
जीतोड़ मेहनत से मिलता नहीं क्यों भोजन भी भरपूर 
दो धेले का भी काम करता नहीं परजीवी ठेकेदार
तोंद फुलाकर शूट-बूट में बना हुआ है उनका सरदार
होगी किसान-मजदूरों की तब इंक़िलाबी लामबंदी
टूट जायेगी देश-काल की सारी-की-सारी हदबंदी
बनेगा जनवाद तब वैकल्पिक नयी युगचेतना
खत्म होगी धरती से तब शोषण दमन की वेदना
स्थापित होगा समाज सें वैकल्पिक वर्चस्व नया
हरामखोर ठेकेदारों पर भी करेगा सर्वहारा दया
मगर करना पड़ेगा उसे भी उत्पादक काम
मिलेगा उसको भी काम का बराबर दाम
ज़ाहिर है पुरजोर विरोध करेगा वह बेशक
लूट के कुकर्म समझता आया है कुदरती हक़
पलटने को नया निज़ाम मचायेगा शोर 
दबा देगा जिसे किसान-मजदूर का संगठित जोर
दफ्न हो जायेगी तब हर किस्म की गैरबराबरी
सारी कायनात होगी एक आज़ाद इंसानी बिरादरी
खत्म होंगे लूट-पाट और अत्याचार के कारोबार
सारा जहां मनायेगा मानवता की मुक्ति का त्योहार
होंगे सभी के साझे सामाजिक सरोकार
हो जायेगा इतिहास इंसानियत से सरोबार
(ईमि/25.10.2012)





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