@Sumant Bhattacharya: कई बार तुम्हारी पोस्ट के मजमून समझ में नहीं आते, आम आदमी के विवेक को कोसते रहते हो किसी अमूर्त सद्गुण की कमी के लिए. क़ानून लूट को कानूनी अधिकार बनाने का जनता के खिलाफ एक फरेब है; राज्य वर्चस्वशाली वर्ग की संपत्ति की रक्षा आमजन की ताकत से करने के तरकीब है; कानून अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी बढाने की संहिता है; राज्य शासक वर्गों के हितों की रक्षा का औइजार और आमजन के लिए तटस्थता का धोखा है. क्षमा करना मित्र! कई बार तुम्हारी पोस्ट में २४ साल की पत्रकारिता के अनुभव की परिपक्वता नहीं झलकती. बदलाव छटपटाहट दिखती है लेकिन समस्या की समझ नहीं. सभी को कटघरे में खडा करने से पहले ज़रा सोचो तुमने वोट देने-न-देने के अलावा क़ानून निर्माण में क्या योगदान दिया है? मैं कहा करता हूँ कि पूंजीवाद दोगली व्यवस्था है, जो कहती है कभी नहीं करती जो करती है कभी नहीं कहती. यह दोगला पण सर्वाधिक इसके राजनैतिक तंत्र में परिलक्षित होता है जो पूंजीतंत्र को जनतंत्र कहता है; जनहित में भूमि अधिग्रहण क़ानून के तहत टाटा-अदानी-अम्बानी-पास्को-...... -भूमाफिया के मुनाफे के लिए किसानों की जमीन कब्जाने में करता है. करछना-कलिंगनगर-सिंगूर-नंदीग्राम नियामगिरि-जगत सिंह पुर के किसान जमें देने से इनकार करता है तो जनहित में राष्ट्र अपने सशस्त्र बलों से जनहित में उनपर कहर बरपाता है. जहां तक महिलाओं के समानता के वागारिक अधिकारों की बात है, वह तो संविधान प्रदत्त है. जरूरत उन्हें सामाजिक मान्यता की है, जो वे खुद लड़ कर लेंगी. जाहिल सिरोमणि मोहन भागवत उद्घोष करते हुए कि महिलाओं को घर में रहना चाहिए और पुरुषों को उनकी रक्षा कानी चाहिए, भूल जाते हैं कि नारी प्रज्ञा और दावेदारी का अश्वमेध रथ इस तरह के वैचारिक तिनकों से नहीं रुकेगा. मैं अपनी छात्राओं से कहता हूँ कि तुम लोग भाग्यशाली हो कि एक पीढी बाद पैदा हुई, लेकिन जिन अधिकारों और आज़ादी का आनंद तुम्हे मिल रहा झी वह पिछली पीढ़ियों के अनवरत संघर्ष का नतीजा है. हक खैरात में नहीं मिलते. हक के एक-एक इंच के लिए लड़ना पड़ता है. मर्दवादी मर्द उन्हें लक्षमण रेखा खींच कर सुरक्षा प्रदान करना बंद कर दें महिलायें अपनी सुरक्षा में सक्षम हैं. जनांदोलनों के दबाव और विज्ञान के प्रभाव में जन हित के दिखावे के क़ानून तो बन जाते हैं लेकिन उनमें इतने सकारे छिद्र होते हैं कि पूंजी हित ममें जनहित नेचे टपक जता है. मित्र! क़ानूनी प्रक्रिया में आम आदमी मरण भागीदारी एक छलावा है. जनपक्षीय बुद्धिजीवियों का कर्ततव्य, मेरी राय में, व्यवस्था के इस दोगलेपन को समझना और पर्दाफ़ाश करना और जनवादी जनचेतना के प्रसार से छात्र-किसान-मजदूरों के आन्दोलनों को मदद करना है.मोदी जी पीठ पर जनता का या बाज़ार का अदृश्य हाथ नहीं अम्बानी का हाथ है. अम्बानी के हाथ को जगह जनता के हाथ से प्रतिस्थापित करने के लिए व्यापक जनांदोलनों की जरूरत है जिसके लिए हालात की वैज्ञानिक समझ और जनवादी जनचेतना आवश्यक है. आइये, देखें इस दिशा में हम अपनी रोजमर्रा की ज़िंदगी में शब्दों-कृत्यों से क्या योगदान कर सकते हैं.
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