541
मौत का खौफ
मुर्दा कौमों की निशानी है
जैसे
विकल्पहीनता
ज़िंदा कौमें कभी
विकल्पहीन नहीं होतीं
क्योंकि खौफ़
नहीं खातीं वे मौत का
न डरती हैं भूत
से न ही भगवान से.
(इमि/२३.०९.२०१४)
542
मुकद्दर एक भरम
है भूत की तरह का
और वजह हो सकती
है महबूब से विरह का
माना कि चाहत
में आपकी है नहीं कसर
उसकी चाहत की
हो-न-हो और भी डगर
जरूरी नहीं होना
सभी चाहतों में टकराव
कम होगा इश्क
में मिलकियत का भाव
लाने से हर बात
में मुक़द्दर की बात
कमजोर होते हैं
हिम्मत के जज्बात
बेफिक्र मिलो
महबूब से होकर आज़ाद
है कहीं कोई
मुक़द्दर तो दे दो उसे मात
(हा हा यह तो कविता सी हो गयी)
(इमि/२४.०९.२०१४)
543
है यह मशीनी
ज़िंदगी ४० पार के उन मर्दों की बात
एक की जनसंख्या
में सिमटती हो जिनकी कायानात
शेष पार कर जाती
है दृष्टिसीमा जैसे कोइ बेसुरा राग
हो जैसे वो तीरंदाज़
अर्जुन के लक्ष्य का व्यर्थ भाग
होती है सारी
कायानात जिनका मुद्दा-ए-सरोकार
जवाँ बने रहते
हैं कर जाएँ कितनी भी उम्र पार
बीबी-बच्चे तो
पाल ही लेते हैं पशु-पक्षी भी
अब गूंजनी
चाहिए इन्किलाब की गुहार भी
बीबी-बच्चे ही
नहीं अपना होता है सारा संसार
कर नहीं पाता
कोइ भी उनकी दृष्टि-सीमा पार
मिला दें गर
निजी हित हितों की सामूहिकता में
मिलता है निज को
सामूहिक सुख प्रचुरता में
दुनिया की
जनसंख्या सिर्फ एक है जिनके लिए
जीते हैं मशीन
से अमूर्त असुरक्षाओं से घिरे हुए
जीने का नहीं है
मकसद कोई और जीवनेतर
खुद एक मकसद है
जीना एक ज़िंदगी बेहतर
चलते हैं साथ
साथ ज़िंदगी के और भी प्रकरण
बनते हैं जो
बिन-चाहे परिणामों के उदहारण
इसलिए कहता हूँ
जियो एक सार्थक ज़िन्दगी
न बनो कभी भगवान
न करो किसी की बंदगी
(हा हा यह भी कविता हो गयी)
(इमि/२४.०९.२०१४)
544
यह हुई न
बुलंद इन्किलाबी जज़्बातों की बात
मुबारक हो फैसला
देने का मुक़द्दर को मात
सच में मोहताज़
नहीं ज़िंदगी हाथ की लकीरों की
कौन रोकेगा उड़ान
अज्म-ए-यकीं के फकीरों की
बढ़ती रही इसी
रफ़्तार से गर जनवादी जनचेतना
ठिठक जायेगी
निजाम-ए-ज़र की फरेबी युगचेतना
आयेगा तब जगे
ज़मीर का युगकारी जनसैलाब
इंसानियत के
सारे दुख-दर्द हो जायेंगे बे-आब
होंगे आज़ाद
दलित-आदिवासी और मजदूर-किसान
बचेगा नहीं
निजाम-ए-ज़र का कोई नाम-ओ-निशान
इंसानों में
होगा भाईचारा और समता का संवाद
खारिज हो जाएगा
श्रेणीबद्धता कोई भी अपवाद
होगा
स्त्री-पुरुषों में जनतांत्रिक मेल-मिलाप
नहीं करेगा कोई
मौत-ए-मर्दवाद पर विलाप
धुल जायेंगे
धरती से शोषण-दमन के पाप
कहते हैं आयेगा
तब दुनिया में समाजवाद
(इमि/२५.०९.२०१४)
545
पड़े हैं लाले
रोजी-रोटी के तो क्या हुआ
मुद्दों की भीड़
में इंसानों सी भेडचाल है
लगा रहा जो
नारा-ए-जम्हूरियत
वो सियासत का
अदना दलाल है
गाता है गीत
वसुधैव कुटुम्बकम का
इंसानियत को
करता हर रोज हलाल है
खडा करना
आतंकवाद का हौवा
साम्राज्यवाद की
नस्लवादी चाल है
पालता है कितने
ही नरेंद्र-ओ-शरीफ
रक्तपात का इसको
नहीं कोई मलाल है
(हा हा यह भी कविता सी हो गयी)
(इमि/३०.०९.२०१४)
546
हम तो हैं
पैदाइशी ढीठ
देते नहीं हवा
को कभी भी पीठ
547
हम समझते हैं
हवा का रुख जरूर
देते नहीं मगर
उसे पीठ कभी भी
जानते हैं नीयत
तूफानी लहरों की
इरादों की
बुलंदी भी भी है कम नहीं
उठाये कातिल
जहमत कितनी भी
कमेगी नहीं
जिस्म-ओ-खंजर की दूरी
टकराकर बज्रवत
हड्डियों से
टूट जायेगी
क़ातिल की छुरी
जानते हैं
दुनियादारी के रश्म-ओ-रिवाज़
नाइंसाफी से तेज
होती रफ़्तार-ए-बेरोजगारी
खेलते रहे आज़ादी
और बेरोगारी के खतरों से
जानते हैं आज
विरोध ही सही कदम है
भक्ति भाव से जड़
हो जाएगा समाज
करते नहीं किसी
लदं पर समझौता
गढ़े नहीं कुतर्क और गोलमटोल भाषा
निकले हैं आवाम
का जमीर जगाने
छू नहीं सकती
हमें कभी निराशा
जागेगा जिस दिन
जमीर-ए-आवाम
हवाओं के रुख
करेंगे हमको सलाम
(इमि/०१.१०.२०१४)
548
जैसे ही सोचा हो
जाय कुछ काम की बात
तुम करने लगे
बात छोड़ने का काम ही
(ईमिः01.10.20140)
549
कौन है ये भारत
महान?
ईश मिश्र
बचपन से सुनता
आया हूँ
सारे जहां से
अच़्छा अपना हिंदोस्तान
चैनल और अख़बार
में चमकता है भारत महान
हुई नही आजतक उस
शख़्स की पहचान
कौन है यह भारत
महान?
देख लूट के
इल्ज़ाम की लेखापाल की तर्जनी
निपट लेंगे
भ्रष्टाचार से, भारत बन बोले
मुकेश अंबानी
कुछ पेशेवर
क्रिकेटर मैच हार जाए तो
वेस्ट इंडीज
रौंद देता हिंदुस्तान को
बाज्पेयी और
मुशर्रफ करते हैं जब चूडी-कंगनो का आदान-प्रदान
कर देते हैं वे
पाकिस्तानी क्रिकेटरों बाएकाट का ऐलान
मैच फिक्सिंग मै
थे जिन सबके नाम
पता नहीं कैसे
बन जाते हैं वे हिंदूस्तान
जंग के हालात
बनाते हैं जब भी जंगखोर
भारत बन जाते
हैं सारे के सारे हरामख़ोर
न्यूक्लियर डील
रहेगी हर हाल मै होकर
बन हिंदूस्तान, बोला वज़ीर-ए-खजाना का नौकर
मारना हो जब
मजदूर-किसान
छोटा सा हाकिम
भी बन जाता हिंदुस्तान
लूटना हो जब
अवाम का जंगल, जमीन और आब
टाटा बन जाता
इनका बाप
खड़ा करके
नक्सलवाद के भूत का हौआ
करते हैं
कारपोरेटी दलाल हिंदुस्तान होने का दावा
आदिवासी करता
यदि जमीन देने से इनकार
बर्दास्त नहीं
कर पाती ज़रदारो की सरकार
लूटती है
इज़्ज़त,लेती है जान, नष्ट कर देती है गाँव घर-बार
चिल्लाने लगती
है नक्सलवाद-नक्सल्वाद
और मार देता है
भारत कई सल्झू, मिट्ठू,उमाशंकर और आज़ाद
भ्रमित हूँ समझ
नहीं पता कितने हैं
हिंदुस्तान या
भारत महान
पूछते हैं
भूखे-नंगे और मज़दूर किसान
उनका भी है क्या
कोई हिंदूस्तान?
15.06.2011
550
जमाने में क्या
रक्खा है?
ईश मिश्र
जो कहता है
जमाने में क्या रक्खा है?
वह इसकी
चका-चौंध से हक्का-बक्का है
बहुत कुछ रक्खा
है जमाने में ऐ दोस्त
बच सको गर होने
से उन्माद मैं मदहोश
दिखते हैं जिसे
इस छोर से उस क्षितिज तक सिर्फ़ बादल
हो गया है वह
बेबस, होकर क्षणिक प्यार में
पागल
ढलते दिन से जो
मायूस हो जाते हैं
कल की सुंदर
सुबह से महफूज़ रह जाते हैं
हो जाती जिसकी
दुनिया की आबादी महज एक
समझ नहीं सहते
वे विप्लव के जज़्बे का विवेक
उल्फते अपने आप
ढल जाती हैं
मुहब्बत एक से
जब मुहब्बत-ए-जहाँ में मिल जाती है
21.06.2011
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