जेल जाते रहे हैं सुकरात
इरोम शर्मीला की भी वही जात
कटते रहे हैं एकलव्यों के अंगूठे
होते रहे हैं सम्मानित द्रोणाचार्य
होता आया है यही तबसे
जब से बंट कर छोटे-बड़े में सभ्य हुआ समाज
उगने लगे धरती पर राजा और ताज
करने लगे बड़े छोटों पर शासन
निहितार्थ बन गए कानूनी अनुशासन
होता वही है इन्साफ का चरित्र
बनाता है शासन जैसा उसका चित्र
जैसा होता है राजा वैसा ही उसका काजी
गैलेलियो को दे देता है ज़िन्दगी से आज़ादी
वह भी काजी ही था बैठा इन्साफ के मंच पर
भेजा था जिसने भगत सिंह को फांसी के तख्ते पर
जब तक है जारी लूट पर टिका निज़ाम-ए-ज़र
क़त्ल-ए-इन्साफ ही रहेगी काजियों की डगर
मिलाती रहेगी अम्माओं-शाहों को जमानत
और साईंबाबाओं-शर्मीलाओं को जेल की लानत
उम्मीद है एक-न-एक दिन एकलव्य करेगा अंगूठा देने से इनकार
होगी तब जेल को ज़ालिम की दरकार
(इमि/१९.१०.२०१४)
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी है और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - सोमवार- 20/10/2014 को
हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः 37 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें,
जी, शुक्रिया.
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