571
हम तो
हैं प्रामाणिक नास्तिक आवारा
दौड़
मस्जिद-मंदिर की नहीं है गवारा
सहम जाती
है मूल्ले-पण्डे की तंग नज़र
देख हम
अजम-ए-जूनूं वालों की की डगर
हम घूमते
नहीं गायब कोल्हू बैल की तरह
उड़ते हैं
गगन में आज़ाद परिंदों की तरह
इरादे है
बुलंद अपने आसमां से आगे
बाँध
नहीं सकते उन्हें जज़्बात के धागे
अरमानों
का है हमारा आकाश अनन्त
जज्बातों
का है न कोइ आदि-न-अंत
(इमि/१७.१०.२०१४)
५७२
होती हैं
इश्क की कई कोटियाँ
अपना तो
इश्क अजीब था
उपहारों
की बात ही छोड़ो
हाँ, उपहार
सिनेमा करीब था
करते थे
आशिकी बेबाक
अरावली
की पहाड़ियों में
कीकड़-बबूल
की झाड़ियों में
खाते थे
तोड़कर जंगली बेर
करते थे सूखी झील की सैर
घूमते
घंटों पहाडी पगडंडियों पर
प्यार की
बातें चलतीं रात भर
भोर में
पहुंचते काशीराम के ढाबे पर
सुबह की
चाय में रात की बात का असर
विचार
हों जब प्यार का आधार
संपन्न
रहता है यादों का संसार
(इमि/१७.१०.२०१४)
५७३
ज़िंदगी
एक सफ़र है अपनों के मिलने विछडने का
नए नए
अपनों का पुरानी यादों और सपनों का
जब भी
कभी हो जाता सफ़र नितांत एकांत
अतीत का
कोइ टुकड़ा बन जाता है दृष्टांत
तन्हाई
तो है वरदान प्रतिकूलता के भेष में
घूमता है
दिल-ओ-दिमाग विचारों के देश में
(इमि/१७.१०.२०१४)
५७४
करते हैं
लोग प्यार का व्यापार
दिल नहीं
होता दिमाग से बेज़ार
(इमि/17.१०.२०१४)
५७५
जेल जाते रहे
हैं सुकरात
इरोम शर्मीला की
भी वही जात
कटते रहे हैं
एकलव्यों के अंगूठे
होते रहे हैं
सम्मानित द्रोणाचार्य
होता आया है यही
तबसे
जब से बंट कर
छोटे-बड़े में सभ्य हुआ समाज
उगने लगे धरती
पर राजा और ताज
करने लगे बड़े
छोटों पर शासन
निहितार्थ बन गए
कानूनी अनुशासन
होता वही है
इन्साफ का चरित्र
बनाता है शासन
जैसा उसका चित्र
जैसा होता है
राजा वैसा ही उसका काजी
गैलेलियो को दे
देता है ज़िन्दगी से आज़ादी
वह भी काजी ही
था बैठा इन्साफ के मंच पर
भेजा था जिसने
भगत सिंह को फांसी के तख्ते पर
जब तक है जारी
लूट पर टिका निज़ाम-ए-ज़र
क़त्ल-ए-इन्साफ
ही रहेगी काजियों की डगर
मिलाती रहेगी
अम्माओं-शाहों को जमानत
और
साईंबाबाओं-शर्मीलाओं को जेल की लानत
उम्मीद है
एक-न-एक दिन एकलव्य करेगा अंगूठा देने से इनकार
होगी तब
जेल को ज़ालिम की दरकार
(इमि/१९.१०.२०१४)
576
\फैला रहे हैं
मोदीजी राजनैतिक दुर्गन्ध
इसीलिये काले धन
पर बोलती उनकी बंद
है हिन्दू धर्म
में बाप का नाम लेना पाप
मोदीजी क्यों
लेंगे ऐसा अभिशाप
बोलती उनकी बंद
नहीं महज कालेधन पर
साम्राज्यवादी
ताला लगा है उनकी जबान पर
होगा राज
भूमंडलीय पूंजी का
बढ़ेंगे देश में
बेरोजगार
संघी तोते
करेंगे तब भी मोदी की जयकार
मोदी की जयकार
मचेगा देश में हाहाकार
मचेगा देश में
हाहाकार हो जाएगा आवाम लाचार
तभी उठेगी शमशान
से भूखे-नंगों की ललकार
मचेगा तब पूंजी
के खेमे में हाहाकार
बता दिया इतिहास
ने हिटलर-ओ-हलाकू की औकात
नहीं टिकेगी
ज्यादा दिन बजरंगी लूट की विसात
(ईमि/१८..१०.२०१४)
577
क्या रवानी है
कलम की तुम्हारे
तार कर देता है
नारी संस्कार सारे
मर्दवाद को देता
अनवरत सांस्कृतिक संत्रास
नारीत्व के
सद्गुणों से उठता उसका विश्वास
सारे सभ्य
समाजों में नारी रही है पतिव्रता
दूषित करता कलम
तुम्हारा परंपरा की पवित्रता
चला रहा
पत्नी-पतनशीलता का कुत्सित अभियान
लेगा ही ऊपरवाला
इन पापों का संज्ञान
सहनशील है अपना
समाज नारी सा ही
होती हद मगर
पतनशीलता की भी
भरेगा घड़ा जब
कलम के पाप का
पतनशील पत्नीत्व
के अभिशाप का
होगी तब जंग
अार-पार की
निर्णायक
जीत-हार की
जीतता है ग़र
कलम तुम्हारा
उलट जायेगा
सद्गुण का समीकरण सारा
टूटेंगे
पूर्वजों सारे पवित्र संस्कार
बढ़ेगा समाज में
नारीवादी विकार
होगा पतनशील
पत्नीत्व का पतिव्रतत्व पर राज
खाक में मिल
जायेगा हमारा सभ्य समाज
(ईमिः20.10.2014)
578
हंसी उडाना खुद
की है साहस का काम
भले ही करें लोग
कह दुस्साहसी बदनाम
करते जो लोग काम
होता जो अपेक्षित
सद्गुणी कह लोग
करते उन्हें उपेक्षित
उसूल-ए-हराम हो
जब रईसी की बुनियाद
ईमान बन जाता है
परिहास की बात
मगर सत्ता को
आतंकित करता ईमान
आतंकवाद देती
उसको वो नाम
लिखने बैठा था
कविता आत्म-परिहास पर
खिसक गया कलम
ईमान के आतंक पर
बने हों आतंकवाद
पर जहां ढेरों कानून
खतरनाक होता है
ईमानदारी का जूनून
(इमि/२१.१०.२०१४)
579
अफवाहों से लगाए
जाते हैं इलज़ाम
पूर्वाग्रहों को
देते लोग ज्ञान का नाम
(इमि/21.10.2014)
570
सुबह सुबह अदम की याद आ गयी:
यह आख़िरी मुलाक़ात थी अदम गोंडवी के साथ
चमारों की गली पढ़कर रो पड़े थे श्रोताओं के साथ
थी अदम की जोर-ज़ुल्म से अदावत
कहते थे जनता से करने को बगावत
देखता हूँ रहनुमाओं की खुद्सरी का शगल
याद आती है तब अदम गोंडवी की ग़ज़ल
जब भी देखता हूँ उबलते मजहबी जज्बात
याद आती है गरीबी से जंग की उनकी बात
जब भी होता है जुबां पर ताले का खतरा
याद आता है जेहन की अनंत उड़ान का मिसरा
देख पैसे से उठती-गिरती सरकारों का सिलसिला
उठता हैं जनता के हथियार के हक का मामला
होगा आदम की बातों का असर जरूर
फैलेगा ही आवाम में इन्किलाबी शुरूर
करता है ईश आपको सलाम मान्यवर
बख्सते इज्ज़त जिसे आदरणीय कहकर
(इमि/२२.१०.२०१४)
यह आख़िरी मुलाक़ात थी अदम गोंडवी के साथ
चमारों की गली पढ़कर रो पड़े थे श्रोताओं के साथ
थी अदम की जोर-ज़ुल्म से अदावत
कहते थे जनता से करने को बगावत
देखता हूँ रहनुमाओं की खुद्सरी का शगल
याद आती है तब अदम गोंडवी की ग़ज़ल
जब भी देखता हूँ उबलते मजहबी जज्बात
याद आती है गरीबी से जंग की उनकी बात
जब भी होता है जुबां पर ताले का खतरा
याद आता है जेहन की अनंत उड़ान का मिसरा
देख पैसे से उठती-गिरती सरकारों का सिलसिला
उठता हैं जनता के हथियार के हक का मामला
होगा आदम की बातों का असर जरूर
फैलेगा ही आवाम में इन्किलाबी शुरूर
करता है ईश आपको सलाम मान्यवर
बख्सते इज्ज़त जिसे आदरणीय कहकर
(इमि/२२.१०.२०१४)
वाह बहुत खूब :) अदम जी वाले अंतिम पैरा के फोंट जरा बढ़ाइये ।
ReplyDeleteblog ka cover photo hai
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