अच्छा किया, समझदार हो. एक बार सत्यनारायण की कथा कह चुका हूँ. हा हा. मेरे गाँव के एक दलित, कुबेर दादा के बेटे शहरों में मजदूरी करके गाँव में नया घर(कच्चा) बनवाया था. मैं १५ साल के आस-पास रहा होऊँगा. नास्तिक तो पूरी तरह नहीं हुआ था लेकिन कर्मकांडों पर आस्था और भूतों का भय समाप्त हो गया था. मैं छुट्टियों में घर गया था और बाग़ में ट्यूबवेल के घर के ओसारे में बैठा उपन्यास पढ़ रहा था. कुबेर दादा ने बरहा में मुंह धोय्या और दुखी मन बैठ गए. मैंने उदासी का सबब पूछा तो पता चला कि उनकी दिली खाहिश अपने घर कथा सुनने की थी और पुरोहित जी उन्हें काली माई के थान पर कथा सुना सकते थे. (वैसे कथा का तो पता ही नहें चलता, सुनने या न सुनने के परिणामों का ही बयान होता है). मैंने उन्हें वहीं रुकने को कहकर एृक पुरोहित के यहाँ गया और सत्यनारायण कथा की एक पोथी मांग लाया और उनके घर जाकर कथा सुना दिया. अब हवन के मन्त्रों के बारी आयी तो जो मन में आया स्वाहा कर दिया. साफ़ साफ़ तो स्वाहा वाले मंत्र सुनाई नहीं देते. पोथी-पत्रा स्वाहा! भूत-प्रेत स्वाहा, बासदेव मास्टर स्वाहा........ और दक्षिणा बच्चों में बाँट दिया. गाँव में हंगामा. आधिकारिक पुजारी ने कहा मैं न तो अधिकृत हूँ न ही योग्य. मैंने कहा अब तो कह दिया. मेरे दादा ने कहा इस पागल का कोइ भरोसा नहीं की क्या करेगा.
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