Thursday, October 16, 2014

क्षणिकाएं ३५ (५६१-५७०)


561
चाँद-सूरज दूर से ही भले लगते हैं हो भले ही सही
इंसानी नजदीकियों से ही मिलता सुकून-ए-दिल 
(इमि/१०.१०.२०१४)
562)
परिवार है बुनियाद-ए- मर्दवाद
समानता को करता बरबाद
(इमि/10.10.2014)
563
सुनो सुधीश पचौरी!
तुम गिरगिट देश नरेश हो
पांचवे कॉलम के भग्नावशेष हो
जब तुम कहते थे क से होता कम्युनिस्ट
लगता था हो तुम कोइ विद्वान विशिष्ट
मिला जैसे ही  कुर्सी का सन्देश
तुम बोले क से अब होगा कांग्रेस
बिना नेहरू वंश के नहीं चलेगा देश
कहते थे तुम भूमंडलीकरण को साम्राज्यवाद
कर देगा यह मुल्क का अर्थतंत्र बर्बाद
मिला जैसे ही आश्रय कुर्सी का और एक बड़ा टुकडा
घूम गए १८० अंश के कोण से, भूमंडलीय पूंजी से बनेगा मुल्क बड़ा
कायम हो अब भी तुम अपने इस जज्बात पर
एका है गज़ब की सल्तनतों में इस बात पर
बताते थे फिरकापरस्ती को सबसे बड़ा खतरा
बदलते ही सल्तनत बदल गया ककहरा
हो गया राष्ट्र अमन-ओ-चैन से बड़ा
उतार गांधी टोपी केशरिया पगड़ी पहन लिया
अब होता है क से केशव हेडगेवार
मोदी जी हैं जिनकी विरासत के हक़दार
लगाया अक्षर समुच्चय में एक लम्बी छलांग
बताया जिसको राष्ट्र धर्म की मांग
क से होगा नहीं  अब शुरू ककहरा
अक्षर समुच्चय पर रहेगा अब से म का पहरा
क से ककहरा है इतिहास की बात
करो म से ममहरे की शुरुआत
अब जब तुम कहते हो म से मोदी
लगते हो कारिन्दा-ए-सिकंदर लोदी
सुनो सुधीश पचौरी!
महसूसता था तुमसे परिचय का अतिशय सम्मान
पाता हूँ उसी को अब घोर बौद्धिक अपमान
कोइ पतन अंतिम नहीं होता
अतल गहराइयों से भी उठना मुश्किल नहें होता
दर-असल हर पतन उत्थान का ऐलान है
वैसे ही जैसे हर निशा एक भोर का ऐलान है.
(इमि/१०.१०.२०१४)
564

लुफ्त-ए-ज़िंदगी है सादगी स्वभाव की 
तूफां की नहीं जरूरत शीतल बयार की 
ओस की भक्ति नहीं दरकार मैत्रे-भाव की 
डर-डर कर जीने का नहीं कोइ फ़ायदा 
बना लो इसलिए निडर जीने का कायदा 
(इमि/११.१०.२०१४)
565
क्या कहती हैं चश्में में छिपी ये ऑंखें
शर्मा कर आमंत्रित करती है महसूसने को 
ढलकती चुनरी से झांकते उन्नत उरोज 
समझता  नहीं इशारों का आमंत्रण मन सरोज
करता है मन पीने को अधरों से शहद 
देख यह लावण्य जाता बुड्ढों का मन बहक 
आयेगा आलिंगन में दैवीय आनंद 
पीकर भौंरों सी एक दूजे का मकरंद 
भरेंगे साथ साथ एवरेस्ट की उड़ान 
होंगे हाथों में हाथ न लगेगे थकान
भर चुका हूँ  उड़ान सपनों में कई बार
आओ दें सपनों को हकीकत में उतार 
(इमि/१३.१०.२०१४) 
566
सुनो रनवीर सेना के कायर रणबांकुरो
कुत्तों की तरह झुण्ड में शेर बने गीदड़ों
जन्म की अस्मिता से चिपके चमगादडों
जाति के जाल में फंसे बामन-ठाकुरों 
किया था  कल जिन औरतों का बलात्कार
उठा लिया है उनने आज हाथ में हथियार
हंसिया से काट देंगी बन्दोक थामे हाथ
होगा हिरावल दस्ता जब इनके साथ
खोजेगी वे बेलछी के हैवानों को
मिर्चपुर-बथानीटोला के शैतानों को
सुनो इंसानियत के दुश्मनों, लक्ष्मण-दुर्योधनों!
लड़कियों ने कॉफ़ी बनाना छोड़ दिया है
कलम को औजार ही नहीं हथियार बना लिया है
उट्ठेगा फिर से मुसहरी का किसान
मिटा देगा सामन्ती नाम-ओ-निशान
निकलेगा सड़कों पर छात्र-नवजवान
रख देगा जिस दिन मजदूर औज़ार
ठप हो जाएगा शरमाये का कारोबार
जनावाद की हरकारा बनेगी तब ग़ज़ल
राजकवियों की  ख़त्म हो जायेगी फसल
गूंजेगे चहुँ ओर जंग-ए-आज़ादी के नारे
चमकेंगे भूमंडलीय क्षितिज में लाल सितारे
सुनो शरमाये के चाटुकारों पूंजी के गीतकारों
समझेगा जब दुनिया का मेहनतकश यह बात
मुल्कों की सरहदें हैं हुक्मरानों की खुराफात
तोड़ देगा वह देश-काल की  सारी सरहदें
पार कर जाएगा धर्म-जाति-राष्ट्रवाद की हदें
सुनो गाजापट्टी के नरभक्षियों, नस्लवाद के उद्धारकों
दुनिया भर बुशों-ब्लेयरों-कड़ीयों-शरीफों ध्यान से सुनो
तान देगा तब बन्दूक वह अपने ही हुक्मरानों पर
काबिज होगा भूमंडलीय पूंजी के सभी ठिकानों पर
सुनो अवतार-पैगम्बरों के नुमाइंदों मजहब के ठेकेदारों
अरस्तुओं-मनुओं-एडम स्मिथों गैरबराबरी का विचारकों सुनो
नहीं है कुदरत की विरासत गैरबराबरी
गढ़ती है इसे जतन से  विद्वानों की बिरादरी
जन जाएगा जब मजदूर-किसान यह बात
छात्र-नवजवान होगा उसके साथ
जला दिए जायेंगे वे सारे दर्शन और ऋचाएं
खींचती हैं जो छोटे-बड़े की दारुण रेखाएं
लिखी जायेंगी तब नई संहिताएँ
स्वतंत्रता-समानता के भाव जो दर्शायें
(अधूरी)
(इमि/१३.१०.२०१४)
567
खुदा के बन्दों को उसी के और बन्दों से खतरा
समझ से परे है यह खुदाई ओ बंदगी का लफडा
उसी के आदेश से बुश ने किया इराक पर हमला
खुदा के विरासत की खिदमत में सद्दाम हुसैन मरा
हिन्दुस्तान में खुदा ने मुश्किल वक़्त में मोदी को चुना
उसी के घर के लिए ढहा दी गयी थी बाबरी मस्जिद
था  जो शायद खुदा की ही इबादतगाह समुचित
खुदा के घर के नाम पर खुदा का घर उजाड़ा
उसी के नाम पर मुल्क का माहौल बिगाड़ा 
बंटा मुल्क खुदा के नाम पर मरे लाखों बेकसूर
कश्मीर का मुद्दा बना हुआ है इतिहास का नासूर
उठता है जब भी सरकारों की वैधता पर सवाल
सुनाई पड़ता है दोनों देशों में सरहद पर बवाल
होते हैं जहाँ भी संसदीय जनतंत्र के चुनाव
फैलता है उसके नाम पर मजहबी तनाव
मालुम नहीं हमें खुदा एक है  या हैं बहुत से
करते हैं हुड़दंग सभी झंडाबरदार उसके
ईश्वर की है महिमा अनंत और अपरम्पार
ठेंगे पर रखते वे मनुष्यों का संसार
हे प्रभु! धन्य है आपका सर्वव्यापी प्रभुता भाव 
इतिहास को दिए हैं आपने कितने ही गहरे घाव
(इमि/१४.१०.२०१४)
568
कहते हैं  हवालात से फरार कुछ अपराधी पहुँच गए किसी खुदा के दरबार में 
दे पैगम्बरों से करीबी का हवाला ले आये फरिश्तों की सनद अपने बारे में 
देख मुल्क के मुश्किल हालात अच्छे दिन के लिए चुन लिया खुदा  ने उन्हें 
कुछ रह गए विधानसभा तक ही कुछ लोकसभा पहुँच गये
ईश्वर तो अन्तर्यामी है जान गया जनता की चाह 
अच्छे दिनों के लिए चाहिए  एक चमत्कारी शहंशाह 
था जो सबसे शातिर फ़रिश्ता बना दिया उसे ही बादशाह 
आस्थावान देश के लोग मानते रहे फ़रिश्तों के आदेश 
 भूमंडलीय साम्राज्यवाद के रसातल में समाता रहा देश
हो गया मगर जल्दी ही फरिश्तों का पर्दाफ़ाश   
उठ गया लोगों का खुदा पर से विशवास 
यह जानकार  लोग रह गए हक्का बक्का 
समझते थे जिसे खुदा निकला चोर-उचक्का 
धीरे धीरे लोगों को समझ आ जायेगी ये बात 
धर्म कर्म की बातें हैं शातिर दिमागों की करामात 
(इमि/१४.१०.२०१४)
569
इलाहाबाद विवि के एक ग्रुप में मेरी एक कविता पर जिसमें जनवाद का ज़िक्र नहीं था, एक सज्जन ने कमेन्ट किया कि  जनवाद एक फैसन है. उस पर मेरा कमेन्ट:
जी हाँ, एक इन्किलाबी फैसन है जनवाद
यथास्थिति को खारिज करने का साहस है जनवाद
गरीब-गुरबा का ज़ुल्म को जवाब है जनवाद
इन्साफ की दुनिया का ख्वाब है जनवाद
हालात से लड़ने का जज्ब़ात है जनवाद
जोर-ज़ुल्म को ललकारने का नाम है जनवाद
दुनिया के मजदूरों का इन्किलाब है जनवाद
(इमि/१६.१०.२०१४)
570
अचानक याद आ गयी आपकी आज
याद कर रहा था अतीत की कोइ बात

(इमि/17.१०.२०१४)

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