भगवान के नाम
पिछले दिनों एक सेमीनार के चलते इलाहाबाद यात्रा
के दौरान रोजगार की चिंता के बावजूद कुछ सार्थक करने को बेचैन, युवा उमंगों से लैस
कुछ नए जिज्ञासु युवक-युवतियों से संवाद
हुआ. उन्ही में से एक भले, जिज्ञासु विद्यार्थी ने सभी तरह की तालिबानी
प्रवृत्तियों की आलोचना करते हुए, धर्मों की अच्छाई की दुहाई देते हुए फेसबुक पर
एक लेख पोस्ट किया जिसमें बहुत मासूमियत और निरपेक्ष भाव से विभाजन की सारी
जिम्मेदारी जिन्ना पर डाल दिया. उस पर मेरा कमेन्ट:
मित्र आपकी तरह ज्यादातर
हिन्दुस्तानी विभाजन के लिए जिन्ना को ही कसूरवार मानते हैं.1947 में देश के बंटवारे के साथ न सिर्फ भूगोल विखंडित हुआ बाकि
इतिहास भी. दोनों ही देशों के बच्चों को एक ही इतिहास दो अलाग-अलग तरीकों से पढ़ाया
जाने लगा. युद्धोन्मादी राष्ट्रभक्ति का पाठ वैचारिक दिवालियेपन के शिकार दोनों
मुल्कों के हुक्मरानों की जरूरत बन गयी.
गुरुदेव मुरली मनोहर जोशी जी जब देश के ज्ञानाध्यक्ष बनमे तो उन्होंने बच्चों को
इतिहास पढने की झंझट से ही मुक्त कर दिया था. उसके बदले अच्छे संस्कारों के लिए उन्हें
पर्व, परम्पराओं और तीर्थस्थलों का ज्ञान दिया
जाता था. किसी पीढ़े को अधेनास्थ रखना है तो उसे उसके इतिहास से वंचित कर दो. अगर
ये बच्चे जान जायेंगे कि व्यापार (निवेश) के लिए आयी एक ईस्ट इंडिया कंपनी जब २००
साल तक गुलाम बनाकर मुल्क लूटती रही तो सोचने न लगें कि आमंत्रित सैकड़ों विशालकाय
कारपोरेट मुल्क का क्या हाल करेंगे? औपनिवेशिक
साम्राज्यवाद और भूमंडलीय साम्राज्यवाद में फर्क यह है की अब किसी लार्ड क्लाइव की
जरूरत नहें है, सरे सिराज्जुद्दौला मेरे जाफर बन गए
हैं.
मुल्क तोड़ने और इस भूखंड का इतिहास
खंडित करने की जितनी जिम्मेदारी जिन्ना की है उतनी ही सावरकर की; जितनी जिम्मेदारी मौदूदी की है उतनी ही गोलवलकर की. मजहब के
नाम पर सियासत दोनों ही मुल्कों में जारी है, धर्म के नाम पर आस्थावान को आसानी से उल्लू बनाया जा सकता है क्योंकि
आस्था विवेक के धार को कुंद करती है और अंध-आस्था बन विनाशकारी ही नहीं आत्मघाती
भी होती है. हिन्दू राष्ट्र; पाकिस्तान और
खालिस्तान एक दूसरे की तार्किक परिणतियां हैं. जहां मुल्क की तमाम ताकतें अंगरेजी
हुकुमत से लड़ रही थीं तब जमात-इस्लामी और मुस्लिम लीग ही नहीं आरयसयस और हिन्दू
महासभा भी मजहबी नफ़रत के नाम पर युवकों को आन्दोलन से भटका कर अंगरेजी हुकूमत की
सेवा कर रहे थे. हर तरह की फिरकापरस्तियां मौसेरी नहीं पूंजीवाद की कोख से उपजी
जुडवा संताने हैं, मजहब इनके लिए सियासी हथियार
है. साप्रदायिकता धर्मोन्मादी राजनैतिक
लामबंदी पर आधारित एक विचारधारा है जिसे हम अपने रोमार्रा के समाजीकरण तथा संवाद
और संवादविहीनता से पोषित करते हैं. वैसे मजहब आपस में बैर करना ही सिखाता है.
कम-से-कम इतिहास तो हमें यही बताता है. सभ्यता के इतिहास में धरती पर अधिकतम
रक्तपात भगवानों और उनके मजहबों के नाम पर हुआ है. ये भगवान् आपस में ही क्यों
नहीं निपट लेते इंसानों पर क्यों रक्तपात का कहर ढाते हैं? और अगर भगवान एक ही है तो उसके इतने परस्पर विरोधी मजहबी भेष क्यों?
जार्ज बुश भगवान् से आज्ञा लेकर इराक पर हमला करते हैं,
सद्दाम हुसैन भगवान् के मजहब की रक्षा में मारे जाते हैं
और अब भगवान् ने मोदी जी को चुना है कि वे देश को मुश्किल हालात से निकालकर भूमंडलीय पूंजी के कार्पोरेटी हवालात में बंद
कर दें और मेहनतकश को भगवान के रहम-ओ-करम पर छोड़ दें.
हमारी शिक्षा व्यवस्था विद्यार्थियों
को सूचना संहिताओ और तकनीकी दक्षताओं से लैस करती है. ज्ञान शक्ति है और कोइ भी
हुक्मरान आवाम को शक्तिशाली बनाने का ख़तरा नहीं उठाता. यह शिक्षा उच्च शिक्षितों
को भी जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घना की अस्मिता से भी नहीं मुक्त करा पाती;
हिन्दू-मुसलमान; ब्राह्मण-भूमिहार;
...... से इंसान बनने में नहीं मदद कर पाती. मुक्ति के ज्ञान के लिये स्वतंत्र प्रयास करना होता है, किसी का व्यक्तित्व उसकी जीव वैज्ञानिक
प्रवृत्ति का नहीं सामाजीकरण और विवेक तथा अंतरात्मा के द्वद्वात्मक एकता के
प्रयासों की प्रक्रिया का परिणाम है. जैसे साधू की कोइ जात नहीं होती वैसे ही
सज्जनता और दुर्जनता की भी कोइ जात नहीं होती.
ईश मिश्र
17 बी, विश्वविद्यालय मार्ग
दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली ११०००७
mishraish@gmail.com
09811146846
सही कहा !
ReplyDeleteji
ReplyDeleteशानदार लेख। शुद्ध वस्तुनिष्ठ चिंतन
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