क्या कहती हैं चश्में में छिपी ये ऑंखें
शर्मा कर आमंत्रित करती है महसूसने को
ढलकती चुनरी से झांकते उन्नत उरोज
समझता नहीं इशारों का आमंत्रण मन सरोज
करता है मन पीने को अधरों से शहद
देख यह लावण्य जाता बुड्ढों का मन बहक
आयेगा आलिंगन में दैवीय आनंद
पीकर भौंरों सी एक दूजे का मकरंद
भरेंगे साथ साथ एवरेस्ट की उड़ान
होंगे हाथों में हाथ न लगेगे थकान
भर चुका हूँ उड़ान सपनों में कई बार
आओ दें सपनों को हकीकत में उतार
(इमि/१३.१०.२०१४)
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