Wednesday, October 8, 2014

क्षणिकाएं ३४ (५५१-६०)

551
इस तस्वीर पर तो एक कविता होनी चाहिए
लेकिन कविता पर कविता के लिए होना पडेगा भाषाविद
या होना पडेगा भाषा को ही समृद्ध
होता गर कालिदास
तो लिखता शिखर-दसना, चकित हिरनी प्रेक्षणा
लेकिन नहीं होता यह सोच उदास कि नहीं हूँ कालिदास
(इमि/०८.१०.२०१४)
552
रहें  गर ऐसे ही बुलंद हौसले
और चढ़ती रहे उनपर विचारों की धार
खुद-ब-खुद टूट जायेंगी  सारी हदें और सरहदें
जारी रहे गर तलाश-ए-खुदी
और किरदारी जंग-ए-आज़ादी में
मुखर होते रहेंगे खुदी के कितने ही सुप्त आयाम
टूटती रहेंगी हदें मंजिल-दर-मंजिल
बेसरहद दुनिया की आख़िरी मंजिल तक.
(इमि/०८.१०.२०१४)
553
एक लिखी जाने वाली लम्बी कविता की शुरुआत:

हमारा गांव बहुत धनी तो नहीं मगर खुशहाल था
गुर्ब-ओ-जवार में अमन-ओ-चैन की मिशाल था
न था कोई धन्नासेठ न ही कोई फटेहाल था
रंज़िश-ओ-नफरत का वहां बिल्कुल अकाल था
भाईचारा-ओ-हमदर्दी में अपना गांव बस कमाल था
बावजूद-ए-नाइत्तेफाकी किसी को न कोई मलाल था
लग गयी मेर गांव को नज़र-ए-सियायत
जल गयी सामासिक संस्कृति की विरासत
बता नहीं सकता अब अपने गांव की बात
वहां भी हुआ इस बार भीषण रक्तपात
उन्मादी लामबंदी की फिरकापरस्त उत्पात
सदियों का इतिहास हुवा पल में बर्बाद
होता था ईद-ओ-दिवाली का मुबारकबाद
होने लगा वहां मजहबी ज़िंदा-मुर्दाबाद
खेलते थे जो कल तक सदा एक साथ
हो गयी है दूरी उनमें आज बेमियाद
(ईमिः04.10.2014)
554
जमाने में क्या रक्खा है?
ईश मिश्र
जो कहता है जमाने में क्या रक्खा है?
वह इसकी चका-चौंध से हक्का-बक्का है
बहुत कुछ रक्खा है जमाने में ऐ दोस्त
बच सको गर होने से उन्माद मैं मदहोश
दिखते हैं जिसे इस छोर से उस क्षितिज तक सिर्फ़ बादल
हो गया है वह बेबस, होकर क्षणिक प्यार में पागल
ढलते दिन से जो मायूस हो जाते हैं
कल की सुंदर सुबह से महफूज़ रह जाते हैं
हो जाती जिसकी दुनिया की आबादी महज एक
समझ नहीं सहते वे विप्लव के जज़्बे का विवेक
उल्फते अपने आप ढल जाती हैं
मुहब्बत एक से जब मुहब्बत-ए-जहाँ में मिल जाती है
21.06.2011
555
शांत ज्वाला
ईश मिश्रा
यह जो शांत सी मुस्कराती बाला है
अन्दर से साक्षात विप्लवी ज्वाला है
गाती है जब इंक़िलाबी गीत
हो जाते हकीम-ओ-हुकुम भयभीत
लगाती है जब विद्रोह के नारे
बौखला जाते हैं हरामखोर सारे
निकलती है जब भी जन-गण को जगाने
पहुंच जाते सारे दलाल और जरदार थाने
करने को शांत उसकी आवाज़ बुलंद
अपनाते हैं ये साम-दाम-भेद-दंड
होती जो अकेली, हो गई होती एक लाश नामालुम
लेकिन साथ है उसके नंगे-भूखों का हुजूम
21.06.2011
556
केदारनाथ सिंह की कविता
ईश मिश्र
कौन कहता है केदारजी हैं अभिजात वर्ग के कवि ?
पढ़ा नहीं होगा उसने आमजन की काशी की छवि
उनकी कविता क से सुनाती है ककहरा
टाट-पट्टी पर सिखाती है जमा-घटा;भाग-गुणा
भागती रेल करती बेचैन और व्याकुल
पहुँच जाती दौड़ कर माझी के पुल
रो देती है देख दंगे और मजहबी खून खराबा
उदास कर देता है इसे खाली घर करीम चाचा का
आह्लादित हो जाती है देख पहली बरसात
हरी-भरी कर देती है जो खेती-बाड़ी और घास
घबराती है नहीं देख बाढ़ के प्रलय का प्रकोप
छाए हों विपदा के बादल चाहे घटाटोप
हो कैसी भी भीषण विभीषिका
व्यक्त करती है आमजन की व्यथा और जिजीविषा
यह साहस और संकल्प है आमजन का जज्बा
अभिजात इस विपत्ति में टूट जाता कबका
समीक्षा होती है निष्पक्ष विवेचना
पूर्वाग्रह से विकृत हो जाती है आलोचना.
[22.06.2011]
557
आत्म परक
ईश मिश्र
पैदा हो गया ब्राह्मण वंश में जन्म के संयोग से
होता था वहां सब कुछ पञ्चांग के योग से
मझुई के किनारे अवध के एक गाँव में
ढाख के वन और अमराइयों के छाँव में
वर्णाश्रमी सामंतवाद तब तक आबाद था
रश्म-ओ-रिवाज़ में जातिवाद जिंदाबाद था
पञ्चांग में जब जन्म के घड़ी पहर का हुआ आंकलन
भगवान के करीब पाए गए मेरे कुण्डली के लक्षण
आषाढ़ कृष्ण पक्ष की दशमी बीस सौ बारह सम्बत
साक्षात ईश रख दिया नाम था जो पञ्चांग सम्मत
सोचा होगा उन्होंने कुछ तो करेगा नाम सा काम
भूल हुई उनसे लेना यह मान
खुद ही जो ईश हो, लेगा क्यों किसी और ईश का नाम
खुश है वह इस नाम से हो गया जो है नहीं सन्नाम
परवाह नहीं उसको रामदेव की गाली दो या कह दो अंकल सैम
देते देते गालिआं भूतों को भगवानो की बारी आ गयी
देख कारनामे उसके अवतारों और पैगम्बरों की उसकी सामत आ गयी
ज्ञान की तलाश में करने लगा सावाल हर बात पर
बरबस ही ध्यान चला गया भगवानों की करामात पर
सोचा यही है अगर दुनिया की नैया का खेवनहार
डूब रहे हैं नाइन्शाफ़ी से क्यों इसके तमाम सवार ?
क्यों लेता है यह राजाओं के घर ही अवतार?
क्यों होते हैं दुनिया में इसके मालिक और ग़ुलाम?
क्यों मरते हैं मेहनतकश भूखे-नंगे-गुमनाम?
क्यों करवाता रक्त-पात धरकर अलग-अलग नाम
बांटे जो इन्शान को वह कैसा भगवान?
क्यों हो रहे हैं बेबस-बेघर मजदूर-आदिवासी किसान?
सबके-सब हैं लगभग इसके परम निष्ठावान
उड़ते हैं आसमान में पूंजीपति और दलाल
लूटते इसकी दुनिया, करते इन्सानियत को हलाल ?
धीरे धीरे हकीकत साफ़ होने लगी
भूतों की ही तरह भावानों के वजूद पर भी सुब्हा होने लगी
धूर्त दिखने लगे सब बाबा-स्वामी; योगी-भोगी
बना देते ये इन्सानो को तर्कहीन-मनोरोगी
भूतों को ललकारा था लड़कपन में
दे दिया चुनौती भगवान को किशोर होते-होते
आया न सामने भूत न ही आया भगवान
इनके वजूद को कल्पित लिया मैंने मान
भूत का भय किया खडा कुछ स्वार्थी कमीनो ने
गढ़ दिए भगवान चतुर चालाक इन्सानों ने
जब लगा  भूत-भगवानों को ललकारने
आ गए ओझा-सोखा; पंडित-पण्डे सामने
तर्क नहीं, चलाने लगे आस्था के  तीर
तर्कों ने मेंरे दिया जिन्हें चीर
चुप हो गए वे मन मार कर
छुप गए मंदिर में एक छात्र से हार कर
ख़त्म हो गया जब भूत-भगवान का भय
हो गया तबसे हर बात से निर्भय
२८.०६.२०११
558
क्या दोस्तों!
कह कर एक कविता में मन की अपनी फितरत
भांति-भांति की गालिओं को दे दी दावत
ऋतुराज ने दी रामदेव की बहुत ही भद्दी गाली
चार हाथ आगे उससे खुरशीद ने मोदी की गाली दे डाली
हो कर परेशान मैंने गालिआं लेना बंद कर दिया
पहले की भी वापस तुम्हारे हवाले कर दिया
निभाता रहूँगा तुम सबको पकाने का फ़र्ज़ गाली खाए बिना
ऋतुराज देता है गाली जैसे कविता पढ़े बिना
जब भी लेंगे शब्द पद्य का आकार
पकाने से दोस्तों को रुकूं किस प्रकार?
(इमि/२७.०६.२०११)
559
चवन्नी छाप
हो जायेगी अगर पद्यनुमा टिप्पणी ,
करने लगोगे तुम भीषण नुक्ताचीनी
निकालोगे तरकश से गालिओं के भीषण तीर
कभी कहोगे रामदेव तो कभी ओबामा पीर
होता नहीं मैं फिर भी बहुत अधीर
उम्मीद में इस की अब कहोगे संत कबीर
चलता था जब सिक्का चवन्नी का
खरीद सकता था ताड़ी का पूरा मटका
औकात इसकी घटती गयी
जैसे-जैसे महंगाई बढ़ती गयी
तब भी छावनी नहीं हुई थी बेआबरू
हुई चवन्नी की चाय की रवायत शुरू
रख चवन्नी जेब में चलता था सीना तान
लेता नहीं था किसीका चाय का एहसान
जब तक चुकाती रही यह एक माचिस का दाम
चवन्नी छाप हुआ नहीं तब तक बदनाम
जबसे भूमंडीकरण का मचा है तांडव
चवन्नी की क्या हो गया अठन्नी का भी पराभव
आन पडी है अब तो आफत रूपये के सिक्के पर
रूपया छाप हो गया ऐसे मौकेपर
आओ बचाएं रूपये की आन
खतरे में पडी है अब उसकी जान
२९.०६.२०११
560
आजकल खोटी चवनी का चलता है सिक्का
जान कर यह राज मनमोहन हो गया हक्का-बक्का
खारीद लिया सारी खोटी चावान्निया बाज़ार से
रखा किसी का नाम चिदाम्बरम किसी का डी. राजा
बजाया उसने खोते सिक्कों से देश का बाजा.
[ईमि28.06.2011]



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