अास्था के लिये किसी साहस-दुस्साहस की अावश्कता नहीं होती अौर न दिमाग को ही कष्ट देने की. खारिज करने के पहले यथास्थिति की ऐतिहासिक समझ जरूरी है अौर विकल्प की रूपरेखा भी. मुख्य समस्या जनचेतना का है.दलित प्रज्ञा एवं दावेदारी तथा नारीवादी प्रज्ञा अौर दावेदारी के क्षेत्र में पिछ्ले 3-4 दशको में उल्लेनीय प्रगति हुई है, किंतु यह प्रगति अभी मात्रात्मक ही है, जो गुणात्मक, क्रांतिकारी परिवर्तन की बुनियाद है. साम्प्रदायिकता और जातिवाद की ही तरह मर्दवाद भी जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति न होकर विचारधारा (मिथ्या चेतना) है जो उत्पीड़क के साथ पीडित को भी प्रभावित करती है. इसीलिए मौजूदा वक्त की जरूरत निरंतर सांस्कृतिक क्रांति की है, सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की.
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