Thursday, October 16, 2014

फूटनोट २१ (राजेश विवेक से दिल्ली में पहली मुलाकात))

इलाहाबाद में १/२  चाय या ३/५ चाय की भाषा प्रचलित थी. १९७६ में डीआईआर से छूटा था और मीसा में वांछित. आपातकाल के आतंक से बचने के लिए "भूमिगत" अस्तित्व की संभावनाएं तलाशता दिल्ली आया और इलाहाबाद के एक सीनियर (डीपी त्रिपाठी) को तलाशते जेयनयूं पहुँच गया वे तो जेल में थे एक और सीनियर से मुलाक़ात हो गयी और मैं बिना दाखिले के ही जेयनयुआइट हो गया. खैर यह परिहार्य लम्बी भूमिका इसलिए हो गयी कि अक्सर जेयनयु बस से लंच के बाद मंडी हाउस आ जाते थे. साहित्य अकेडमी और सप्रू हाउस के पुस्तकालयों (गर-सदस्य भी पढ़ने की अनुमति पा जाते थे) और  इर्द-गिर्द(श्रीराम सेंटर/त्रिवेणी/बहावलपुर हाउस) के चायखानों में वक़्त बिता/खर्च कर साम की बस से वापस चला जाता था. कोइ नाटक चल रहा हो तो सुपर बाज़ार जाकर ६२० से डाउन कैम्पस और अरावली की पगादंदियों से वापस अप कैम्पस. एक दिन बहावलपुर हाउस के कोने के पार्क के फव्वारे की जगत पर ३ लोग (२ दाढ़ी वाले) और एक इन लोगों से जूनियर दिखने वाला लड़का सामने खडा था. मैं चाय बोलने वाला था तभी एक गगनचुम्बी अट्टहास  सुनायी दिया और कुछ ही दिन पहले पुराने किले में देखे "अंधायुग" में अश्वत्थामा की याद आ गयी. मुड़कर देखा तो एक चेहरा कुछ परिचित सा दिखा, जौनपुर के मेरे एक बहुत सीनियर सहपाठी, राजेश उपाध्याय सा -- मैं हाई स्कूल में था और वे बीए में. एक ही मनेजमेंट का होने के नाते इन्टर और दीगरे कॉलेज के कई कार्यक्रम संयुक्त होते थे और हास्टल भीसाझे थे). उस साल उन्हें "बेस्ट बाडी बिल्डर" की पुरस्कार मिला था.  मैंने हिम्मत जुटाकर"उपाध्याय जे नमस्कार" बोल दिया. उधर से कड़क हंसी के साथ आवाज आयी, "कस में जउनपुर के हो का भैया?" मैं पुलकित हुआ कि मुझे इन्होने पहचान लिया और चहक कर बोला , "पहचान लिया आपने"? वे बोले, "अरे नहीं! इहाँ हम्में राजेश उपाद्याय के नाम से कोई नहीं जानत, यहाँ मैं राजेश विवेक हूँ". चाय वाले को आवाज दिया, "अरे भाई ३५ चाय भेजो, हमारे शहर क लड़का मिल गया है". मैं सकपकाया, ३५ चाय? और पूछ ही दिया, "३५?". अब हंसने की बारी  बिना दधी वाले की थी. तब पता चला ३/५ यहाँ ३५ थी. इसी को कहते हैं बतूडी. अंतिम २ वाक्य कहने के लिए बहुत वाक्यों की भूमिका और अब फूटनोट भी देना ही पड़ेगा. मैंने जब अश्वत्थामा के हँसे का ज़िक्र दूसरे दा  जब मैंने अश्वत्थामा की हंसी का जीकेर किया तो हंसने की बारी दूसरे दाढ़ी वाले की थी जनका परिचय नसीरुद्दीन और बिना दाढ़ी वाले का ओम शिवपुरी(दिवंगत) के रूप में कराया.

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