Tuesday, December 27, 2022

शिक्षा और ज्ञान 386 (राहुल सांकृत्यायन)

 एक मित्र ने राहुल सांकृत्यायन के बारे में पूछा कि इन्होंने क्या किया है? और यह कि उन्हें इनकी किसी किताब के बारे में नहीं मालुम। और यह कि विद्वान होने के लिए अच्छा इंसान होना जरूरी है क्या? उस पर -


अच्छा लेखक, अच्छा शिक्षक, अच्छा बाप ..... कुछ भी अच्छा होने की पूर्व शर्त है अच्छा इंसान होना, इन्होंने इतना लिखा है कि हम-आप जैसे अपने पूरे जीवनकाल में उतना पढ़ नहीं सकते। आपको अगर इनकी कोई किताब नहीं मालुम तो आपको अपनी पढ़ाई की गुणवत्ता पर पुनर्विचार करना चाहिए। गूगल सर्च कीजिए। वैसे एक किताब आपको जरूर पढ़ना चाहिए जिसमें 20 कहानियों को माध्यम से मानव विकास का पूरा इतिहास समझा दिया है -- 'वोल्गा से गंगा'। बाभन से इंसान बनने के लिए 'तुम्हारी क्षय' पढ़ लें तथा उत्तर वैदिक गणतंत्रों के बारे में जानने के लिए , 'सिंह सेनापति'। आजमगढ़ जिले में पैदा हुए राहुल जी का बचपन का नाम केदार पांडेय था। महा पंडित राहुल सांकृत्यायन को शत शत नमन।

Monday, December 26, 2022

शिक्षा और ज्ञान 385 (अस्मिता की राजनीति)

 अस्मिता की राजनीति धूर्तता ही है, चाहे वह धार्मिक अस्मिता की हो या जातीय अस्मिता की। जातिवाद भारतीय समाज का नासूर है, इसीलिए अंबेडकर उसका विनाश जरूरी समझते थे। लेकिन वे यह नहीं समझते थे कि क्रांति के बिना जाति का विनाश नहीं हो सकता और जाति के विनाश के बिना क्रांति नहीं। इसीलिए जातिवाद विरोधी आंदोलन और क्रांतिकारी अभियानों के मिलन की जरूरत है, जिसका नारा होगा जय भीम लाल सलाम।

Sunday, December 25, 2022

शिक्षा और ज्ञान 384 (मूल निवासी)

 अनादि काल से मनुष्य एक जगह से दूसरी जगह आते-जाते बसते रहे हैं इस लिए मूलनिवासी और बाहरी का राग अलापना अनैतिहासिक, अप्राकृतिक और अमानवीय है। जो भी जिस भूभाग में पर रहता है वह वहां का निवासी है। धरती के उपहारों पर सभी का समान अधिकार है, स्वयं धरती पर किसी का नहीं। जो कहीं थोड़ा पहले पहुंच गया, वह अज्ञान ओर मिथ्या चेतना के चलते थोड़ा बाद में आने वालों को बाहरी मानते और बताते हैं। अमेरिकी महाद्वीपों में नगण्य संख्या में बचे वहां के आदिवासियों ( रेड इंडियन) के अलावा सारे ही लोग 1492 में कोलंबस की तथाकथित खोज के बाद के बासिंदे हैं, लेकिन थोड़ा पहले पहुंचे गोरे बाकियों को बाहरी मानते हैं । वहां के आदिवासियों के भी विभिन्न समूह कभी-न-कभी कहीं-न-कहीं से आए होंगे। धरती पर रहने वाला हर व्यक्ति धरती का एकसमाम निवासी है और भारत में रहने वाला हर व्यक्ति एकसमान भारतवासी है।

Monday, December 19, 2022

मार्क्सवाद 279 (समानता)

 समानता एक गुणात्मक अवधारणा है, माात्रात्मक इकाई नहीं. विभिन्नता असमानता नहीं है। लेकिन असमानता के पैरोकार शातिराना तरीके से विभिन्नता को असमानता के रूप में परिभाषित करते हैं और फिर गोलमटोल कुतर्क का इस्तेमाल करते हुए उसी परिभाषा से असमानता प्रमाणित करते हैं। अब जब मौका मिला है तो स्त्रियां हर क्षेत्र में पुरुषों से आगे निकल रही हैं, जो मर्दवादी मानसिकता वालों की तिलमिलाहट का कारण बन गयी है। हम पुरुषों को चाहिए कि स्व के स्वार्थबोध पर स्व के परमार्थबोध को तरजीह दें और स्त्रियों के समानता/स्वायत्तता के संघर्ष का सम्मान करें। जीववैज्ञानिक भिन्नता प्राकृतिक है और स्त्री-पुरुष भेदभाव मनुष्य निर्मित कृतिम। (Sex is natural, gender is socially constructed, artificial. )

समर्पण भाव

 भक्तिभाव की ही तरह समर्पणभाव भी

प्रकारांतर से दास मानसिकता की अभिव्यक्ति है

न पूजा करो न पूजा की वस्तु बनो
लड़ो जनतांत्रिक इंसानी समानता के लिए
स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी के रथ की सारथी बनो
मर्दवाद के दुर्गद्वार पर निरंतर प्रहार करो
स्त्री अस्मिता में ढूंढ़े जो दोष
जलाकर उसे रचो नया शब्दकोश
दे जो समानता और स्वतंत्रता का संदेश
तोड़ दो सदियों पुरानी बेड़ियां
और कर्मकांडों के सोने के पिजड़े
स्वतंत्रत्रता, समानता औक सौहार्द के नारे बुलंद करो
और इस तरह, मानवमुक्ति का पथप्रशस्त करो।
(ईमि: 13.12.2022)

किताबों के बियाबान में होता है उनमें लिखी बातों से तवार्रुफ

 किताबों के बियाबान में होता है उनमें लिखी बातों से तवार्रुफ

लेकिन ज्ञान से तवार्रुफ होता है उन बातों पर सवाल करने से।

मार्क्सवाद 278 (विचारक)

 विवेक की प्रजाति विशिष्ट प्रवृत्ति के चलते हर मनुष्य में विचारक बनने की संभावना होती है लेकिन विचारक वही बन पाते हैं जो विरासत में मिले पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर, रटाया भजन गाना छोड़कर घटनाओं-परिघटनाओं; रीति-रिवाजों के विश्लेषण में विवेक का इस्तेमाल करते हैं।

मार्क्सवाद 277 (साम्यवाद)

 मार्क्सवाद दुनिया को समझने का विज्ञान है और उसे बदलने की विचारधारा जो श्रमजीवियों द्वारा परजीवियों के शासन को समाप्त कर एक वर्गविहीन और फलस्वरूप राज्यविहीन समाज स्थापित करना चाहती है। जैसे सामंतवाद का विकल्प पूंजीीवाद बना वैसे ही पूंजीवाद का विकल्प अंततः साम्यवाद वनेगा, जिसमें हर कोई अपनी क्षमता के अनुसार काम (श्रम) करेगा और हर किसी को जरूरत के अनुसार फल मिलेगा। सामंतवाद से पूंजी वाद में संक्रमण एक वर्ग समाज से दूसरे वर्ग समाज में संक्रमण है जो कि पिछले 600 सालों से चल रहा है लेकिन अभी तक पूरा नहीं हुआ, भारत जैसे देशों में वर्णाश्रमी सामंतवाद (एसियाटिक मोड) के अवशेष अभी भी मौजूदसही नहीं हैं, बल्कि सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के रास्ते की रुकावटें बने हुए हैं। यूरोप की तरह यहां कोई नवजागरण और प्रबोधन (एनलाइटेनमेंट) की तरह सामाजिक क्रांति नहीं हुई जिससे समाज का जन्म आधारित विभाजन समाप्त नहीं हुआ जिसे अब जयभीम - लालसलाम नारे के साथ आर्थिक क्रांति से जोड़ने की जरूरत है। पूंजीवाद से साम्यवाद का संक्रमण गुणात्मक रूप से भिन्न, एक वर्ग समाज से वर्गविहीन समाज में संक्रमण होगा इसलिए जटिल। यदि रूसी क्रांति को शुरुआती विंदु माना जाए तो यह प्रक्रिया मुश्किल से 100 साल पुरानी है और प्रतिक्रांतिकारी ताकतों के हमले झेल रहीी है। साम्यवाद भविष्य का समाज है, इसलिए मार्क्सवाद का मर्सिया पढ़ने वालों को अपने इतिहासबोध पर सवाल करना चाहिए। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का एक नियम है कि जिसका भी अस्तित्व है उसका अंत निश्चित है, पूंजीवाद इसका अपवाद नहीं है, न ही वर्णाश्रमवाद या मर्दवाद। निरंतर चल रहे क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन परिपक्व होकर क्रांतिकारी गुणात्मक परिवर्तन में तब्दील होंगे। आज बड़ा-से-बड़ा जातिवादी भी खुलकर नहीं कह सकता कि वह जातीय भेदभाव को मानता है, उसी तरह जैसे बड़ा-से-बड़ा मर्दवादी यह नहीं कह सकता कि वह बेटा-बेटी में फर्क करता है, एक बेटे के लिए 5 बेटियां भले पैदा कर ले। यह जाति उन्मूलन की विचारधारा और स्त्रीवाद की सैद्धांतिक जीत है, जिसकी व्यवहार में तब्दीली समय का मामला है। अन्याय के विरुद्ध हर संघर्ष जारी वर्ग संघर्ष का ही हिस्सा है।

जय भीम लाल सलाम।
इंकिलाब जिंदाबाद।

नवब्राह्मणवाद 36 (आरक्षण)

 जातिवाद को समाप्त करने हेतु जातिवादी भेदभाव की वंचना की आंशिक भरपाई के लिए संविधान निर्माताओं ने सामाजिक न्याय के प्रावधान बनाए। आरक्षण के प्रावधान आर्थिक नहीं सामाजिक न्याय के प्रावधान हैं। वैसे भी आर्थिक रूप से संपन्न मझली शूद्र जातियां आरक्षण के दायरे से बाहर हैं और अब तो सवर्णों के लिए भी आरक्षण के प्रावधान बन गए हैं। हम जातिविहीन समाज के पक्षधर हैं इसीलिए जातीय श्रेष्ठताबेध के विरोधी जिसकी आवश्यक परिहार्यता के तौर पर, स्व के स्वार्थबोध जातीय श्रेष्ठतावाद से ऊपर उठकर स्व के परमार्थबोध के तहत बाभन से इंसान बन गया। आप भी स्व के जातिवादी स्वार्थबोध से ऊपर उठकर ठाकुर से इंसान बन जाएं तो समझ पाएंगे कि सामाजिक न्याय के प्रवधान जातिविहान समाज का पथप्रशस्त करने के लिए बने हैं। कुछ असवर्ण जवाबी जातिवाद में उलझकर जातिवादी ताकतों के सहयोगी बन जाते हैं। जवाबी जातिवाद (नवब्राह्मणवाद) जातिवाद (ब्राह्मणवाद) जितना ही खतरनाक है।

सत्योत्तर युग का सत्य

 Kuldeep Kumar भाई की सुंदर कविता

·
तोड़ो मत जोड़ो पर मेरा तुकबंदी में कमेंट। कविता नीचे कमेंट बॉक्स में।

बहुत ही सुंदर कविता है यह
और मानवता की सेवा को समर्पित हैं इसकी भावनाएं
सच है मदांध सत्ता और जनशक्ति के टकराव में
टूटती है मदांध सत्ता
लेकिन सत्योत्तर युग (पोस्ट ट्रुथ एरा) में
सत्य का मतलब बदल गया है
जोड़ने का मतलब तोड़ना हो गया है
जनशक्ति नए अर्थ के जोड़ने वाले के साथ है
क्योंकि सत्योत्तर युग के पहले के गांधी और राम-कृष्ण के सत्य
असत्य बन गए हैं और जोड़ने वाले को
तोड़ने वाला समझा जा रहा है
इंतजार है नए उत्तर-सत्योत्तर युग का
जब सत्य का मतलब दुबारा बदलेगा
और जनशक्ति उस नए सत्य के साथ होगी।

(ईमि: 17.12.2022

Sunday, December 11, 2022

अनुपस्थित की उपस्थिति का शाश्वत एहसास

 अनुपस्थित की उपस्थिति का शाश्वत एहसास

देता है द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का आभास

1905 में औपनिवेशिक शासकों ने जब बांटा था बंगाल

 1905 में औपनिवेशिक शासकों ने जब बांटा था बंगाल

बुनियाद रख दी थी अपने शासन के अंत की शुरुआत की
आज के फिरकापरस्त शासक जब बांट रहे हैं हिंदुस्तान
बुनियाद रख रहे हैं फिरकापरस्ती या इंसानियत के अंत की?

Friday, December 9, 2022

सत्योत्तर युग में शब्दों के मायने बदल गए हैं

 सत्योत्तर युग में शब्दों के मायने बदल गए हैं

बेईमानी का मतलब हो गया है ईमानदारी
बड़ा कवि समय के साथ चलता है
पाने को सत्ता का समुचित प्रसाद
सत्य की नई परिभाषा लिखता है
जिसका मृदंगमीडिया पर भजन गाता है
धीरे धीरे सत्योत्तर युग का असत्य
नए भारत का नया सत्य बन जाता है
क्योंकि खाकर प्रसाद बड़ा कवि
ईमानदारी की नई परिभाषा को
जनगणमन की भावना बताता है
(ईमि:08.12.2022)

इतिहास की गाड़ी में नहीं होता रिवर्स गीयर

 इतिहास की गाड़ी में नहीं होता रिवर्स गीयर

वह आगे ही बढ़ता जाता है
देखते हुए पीछे तय की गयी दूरी
अतीत को जोड़ता है वर्तमान से
और बनाता है नियम भविष्य के गतिविज्ञान का
जब हम आदिमयुग की सादगी की बात करते हैं
तो नहीं चाहते वापसी आदिम युग में
जब नहीं हुआ था अन्वेषणआजीविका के उत्पादन के साधनों का
संकेतों और ध्वनियों की भाषा में बात करते थे हमारे पूर्वज
तथा वाह्य खतरों से आत्म रक्षा के लिए
मिलते थे आपस में यदा-कदा सहज प्रवृत्ति से
भाषा का अन्वेषण एक क्तिरांतिकारी था
मानव विकास के इतिहास के गतिविज्ञान का
उसी तरह जब हम बात करते हैं
पूंजीवादी व्यक्तिवाद के प्रचलन से
सामंती सामुदायिकता के विघटन का
नहीं चाहते वापसी सामंती व्यवस्था का
द्वंद्वात्मक बदलाव नियम है इतिहास के गतिविज्ञान का
और अस्तित्व है जिसका भी
अवश्यंभावी है अंत उसका
नहीं है इसका अपवाद पूंजीवादी व्यक्तिवाद
शुरू होगी जिसके बाद निर्माण की प्रक्रिया
एक समतामूलक नई जनतांत्रिक सामुदायिकता का
और समाज मानव-मक्ति का।
(ईमि: 08.12.2022)

शहर के बढ़ने की आवश्यक शर्त है गांव का वीरान होना

 शहर के बढ़ने की आवश्यक शर्त है गांव का वीरान होना

शहर के बढ़ने की आवश्यक शर्त है गांव का वीरान होना

धीरे धीरे शहर की चका-चौंध गांव की साजगी को लील लेती है

पढ़ी-दर-पीढी चली आई पारंपरिक आपसी सहयोग की सहकारिता

व्यापारिक उपभोक्तावाद के कभी न भरने वाले मड़ार में समा जाती है।
(ईमि: 08.12.2022) 

Monday, November 14, 2022

तलाशेमाश

 
 इलाहाबाद छोड़ने के बाद कई साल तक दिल्ली से घर (शाहगंज रेलवे स्टेसन से उतरकर आजमगढ़ जिले में पवई के पास अपने गांव) जाते हुए इलाबाद होते हुए जाता था। 1984 में पोलिटिकल डिपार्टमेंट में लेक्चरर का इंटरविव देने गया। बहुत अच्छा हुआ, बाहर निकलकर अपनी बारी का इंतजार करते लोगों में से किसी को आश्चर्य के लहजे में कहते सुना "बाप रे! 1 घंटा 28 मिनट? मैं भी काफी आशान्वित हो गया और सोचने लगा कि गंगा के उस पार नये बस रहे झूसी में घर लिया जाए या इस पार तेलियरगंज में? उसके 2 साल बाद तत्कालीन वीसी (आरपी मिश्र) से दिवि के दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स (डी स्कूल) में मुलाकात हुई तो उन्होंने बताया कि वे मेरे इंटरविव से इतने प्रभावित हुए थे कि मेरा नाम पैनल में सातवें स्थान पर रखवाने में सफल रहे। मैंने कहा था कि 6 पद थे तो मेरा नाम सातवें पर रखते या सत्तरवें पर क्या फर्क पड़ता?


Monday, November 7, 2022

पहली नजर में इश्क

 

पहली नजर में इश्क

राणा शफवी

 

    यह एक अलग किस्म की प्रेम कहानी है, एक ऐसे राजकुमार की, जिसकी छवि एक निर्मम, हठी, और धार्मिक कट्टरवादी की है, जिसका प्यार-मुहब्बत से 36 का आंकड़ा है। यह मुगल सम्राट औरंगजेब की पहली नजर के इश्क की कहानी है। 

    1836 में औरंगजेब दकन का सूबेदार था। दिल्ली से औरंगाबाद जाते हुए वह रास्ते में अपनी खाला (मौसी) से मिलने के लिए बुड़हानपुर रुका। उसके मामा, सैफ खां वहां के सूबेदार थे। उसके बाद की कहानी के बारे में कई कहावतें हैं लेकिन सबका लब्बोलुबाब यही है कि उसे अपनी मौसी के हरम की एक औरत से पहली ही नजर में इश्क हो गया। उसका नाम था हीराबाई। 

    नवाब शम्सुद्दौला और उनके बेटे अब्दुल हई खान द्वारा 18वीं शताब्दी में लिखे  ग्रंथ, ‘मा असिर अल-उमरा’ में इस प्रकरण का विस्तृत विवरण मिलता है।

    एक दिन शाहजादा हरम की स्त्रियों के साथ ज़ैनाबाद बुड़हानपुर के अहू-खाना (हिरण उद्यान) नामक बगीचे में सैर के दौरान अपने चुनंदा साथियों के साथ चहलकदमी कर रहा था। हीरा बाई, खूबसूरती में बेजोड़ तथा अपनी संगीत के कौशल से होश उड़ा देने वाली, जैनाबादी खान-ए-ज़मां की पत्नी (शहजादे की ग़जल खाला) के साथ आई थी। फलों से लदे आम के पेड़ को देखकर, शाहजादे की उपस्थिति से  बेपरवाह हर्षोल्लास में, वह उछल-उछल कर आम तोड़ने लगी। उसकी इस अदा पर शाहजादा दीवाना हो गया।

    अपनी अडिग (कट्टर) धार्मिकता के बावजूद औरंगजेब संगीत का पारखी तथा कुशल वीणावादक था। हीराबाई की खूबसूरती और संगीत कौशल ने शाहजादे को दीवाना बना दिया। कहा जाता है कि वह उस पर इस कदर मोहित हो गया कि उसने उसकी शराब पीने की बात मान ली। लेकिन जैसे वह शराब का प्याला होठों से लगाने को हुआ, हीराबाई ने उसे यह कह कर रोक दिया कि वह तो उनके प्यार की परीक्षा ले रही थी। 

    एक कट्टर धार्मिक शहजादे का शराब पीने के लिए राजी हो जाना उसके लिए उसकी बेइम्तहां चाहत बयान करता है। 

    अकबर ने हरम के सुचारु संचालन के लिए हरम की औरतों के नाम उस जगह के नाम पर रखने का आदेश दिया था जहां से वे आई थीं, जो आगे चलकर मुगल हरम का रिवाज बन गया। इसलिए औरंगजेब के हरम में आने के बाद हीराबाई का नाम ज़ैनाबादी पड़ गया। 

एकांत में मातम  

    1640 में लिखे गए अहकाम-ए-औरंगजेब में औरंगजेब के जीवनीकार हमीदुद्दीन निमचाह, बुडहानपुर प्रकरण का अलग किस्सा बताते हैं। उनके अनुसार,यह मुलाकात तब हुई थी जब शाहजादे  बिना बताए हरम में चले गए। हीराबाई को देखते ही उनके होश उड़ गए। मौसी के पूछने पर उसने अपने दर्द-ए-दिल का बयान किया और इलाज पूछा। उसके हरम की एक औरत के बदले उसे हीराबाई भेंट की गयी। उसके बाद के जज्बात और सम्मोहन का वर्णन इसमें भी वैसा ही दिया हुआ है। मा’असिर उमरा में बताया गया है कि औरंगजेब की प्रेम कहानी इतना आगे बढ़ गयी कि इसकी भनक शाहजहां के कानों तक पहुंच गयी। कहा जाता है कि उसके प्रतिद्वंद्वी, भाई, दारा शिकोह ने अपने पिता शाहजहां से शिकायती लहजे में कहा था, “पवित्रता और संयम का पाखंड करने वाले इस धूर्त की करतूत देखिए, मौसी की हवेली की एक लड़की के लिए इसका यह काला कारनामा देखिए।” 

    लेकिन हीराई ज्यादा दिन साथ नहीं रही, जल्दी ही उसकी मौत हो गयी। उसकी मौत से शाहजादा गम के समंदर में डूब गया। उसे औरंगाबाद में दफनाया गया। मा’असिर अल-उमरा में बताया गया है कि अपनी प्रेमिका की मौत के गम से वह इतना बेचैन हो गया कि महल छोड़ कर शिकार पर निकल गया। जब कवि मीर अक्सरी (अकील खां) ने गम में अपनी जान जोखिम डालने का उलाहना दिया तो शाहजादे ने कहा, “घर में बैठकर रोने से दिल का बोझ नहीं हल्का हो सकता, दिल का दर्द कम करने के लिए एकांत में ही जी भर कर रोया जा सकता है। अकील खां ने अपना एक शेर सुनाया,

“कितनी आसान लगती थी मुहब्बत, लेकिन अफशोस, है ये बहुत मुश्किल, 

बहुत घना है जुदाई का गम, मगर इससे महबूबा को तो कुछ न मिला! 

    शाहजादे के आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। कवि का नाम याद करने की नाकाम कोशिसों के बाद उसने इस कविता की पंक्तियां कंठस्थ कर ली। 

अधूरा वर्णन

 रंगजेब के जीवन के इस दौर का वर्णन इतलवी यात्री और लेखक,  निकोलाओ मनुक्की (1639-1717) ने भी किया है: 

    “अपने हरम की एक नर्तकी पर औरंगजेब इतना मुग्ध हो गया कि कुछ समय तक वह  नमाज और अन्य धार्मिक अनुष्ठान भूल कर संगीत और नृत्य में खोया रहा। इतना ही नहीं,  उस नर्तकी के कहने पर वह शराब में खुशी तलाशने लगा। नर्तकी की मौत के बाद औरंगजेब ने शराब और संगीत से दूर रहने  की कसम खा ली। बाद के दिनों में वह कहता  रहता था कि ईश्वर ने उस नर्तकी को अपने पास बुलाकर उस पर बहुत मेहरबानी की थी। उसी के कारण वह भोग-विलास में लिप्त होकर अधर्म के रास्ते पर चल पड़ा था और दुराचार  पर कभी नियंत्रण न कर पाने के खतरे  में फंस गया था।” 

    आइए इस वेलेंटाइन दिवस पर कुरान पढ़ने वाले तथा सादगी से रहने वाले कट्टर धार्मिक, औरंगजेब की छवि में एक अपवाद जोड़ दें कि एक बार जवानी की भावुकता में बहकर उसने अपने प्रेम पर सारी दुनिया निछावर कर दिया था। 

अंग्रेजी से अनुवाद : ईश मिश्र

 

   






 

 

 

Tuesday, November 1, 2022

मार्क्सवाद 276 (अस्मितावाद)

 Ajay Patel आपके अंतिम बात से बिल्कुल सहमत हूं। पूर्वाग्रहों से मुक्ति निरंतर प्रतिक्रिया है। हम कई बाते प्रतिक्रिया में तैस में कह जाते है फिर अफशोस होता है। हमारे बचपन में हमारे गांव में जातिवाद (जाति आधारित भेदभाव) कायम था। लेकिन उसकी विद्रूपताओं और उसकी पीड़ा की मेरी समझ भोगे हुए यथार्थ पर नहीं देखे हुए यथार्थ पर आधारित है तो शायद उतना प्रामाणिक न हो। प्रतिक्रिया में जातिवाद की दलित प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान में एक प्रगतिशील भूमिका रही है। लेकिन मुझे लगता है कि अस्मितावादी राजनीति अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा चुकी है, अब उसके जनवादीकरण की जरूरत है, वर्ग चेतना के प्रसार के अभियान को नेतृत्व प्रदान करने की। दलित प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान के फलस्वरूप, आज कोई खुलकर जातिआधारित भेदभाव का समर्थन नहीं कर सकता, इसे मैं ऐंटी-कास्टिज्म की सैद्धांतिक विजय मानता हूं । मैं गलत हो सकता हूं, फिलहाल मुझे ऐसा ही लगता है। इस सैद्धांतिक विजय को जमीन पर उतारने के लिए अब अस्मितावादी चेतना को आगे बढ़ना चाहिए।


मैं आपके-अपने जन्म की बात नहीं कर रहा, एक प्रवृत्ति की बात कर रहा था, शायद ढंग से नहीं कह पाया, आपको ऐसा लगा तो कहने के तरीके के लिए माफी। उपरोक्त कमेंट लिखने के पहले एक और पोस्ट पर कुछ लोग मेरी बात पर नहीं, मेरे नाम के पुछल्ले पर ही बात कर रहे थे और वह कमेंट संचित पीड़ा की प्रतिक्रिया थी। माफी चाहता हूं। साथी कोई अंतिम सत्य नहीं होता, सार्थक संवाद से ही सापेक्ष सत्य की समझ बन सकती है।
02.11.2018

अगले जन्म में मुलाकात

दशकों पहले
परीक्षा के बाद जब हम आखिरी बार मिले थे
हीरा हलवाई की दुकान पर
उसने कहा था चाय की चुस्कियों के साथ
कि अब हम शायद अगले जन्म में ही मिलें
लेकिन किसी का भी अगला जन्म तो होता ही नहीं
सही कह रही हो इस जन्म में कभी टकरा भी गए
तो शायद ही पहचान पाएं एक दूसरे को
इतनी लंबी अपरिचित मुद्दत के बाद
और अब तो 50 साल हो गए
कभी टकराए नहीं।
01,11,2022

मार्क्सवाद 275 (वर्ग-वर्ण)

 वर्ण विभाजन भी उत्पादन संबंधों के ही आधार पर शुरू हुआ, उत्पादन के संसाधनों पर आधिपत्य वाला वर्ण ही शासक वर्ग बना तथा कालातंर में शासक वर्गों (वर्णों) ने इसे रूढ़िगत-परंपरागत कर दिया। जाति का विनाश शेखचिल्ली समाजवाद की अवधारणा नहीं है बल्कि वैज्ञानिक समाजवाद का पूर्वकथ्य है। यूरोप में नवजागरण और प्रबोधन क्रांतियों के दौरान जन्म आधारित सामाजिक विभाजन समाप्त हो गया और मार्क्स-एंगेल्स ने लिखा कि पूंजीवाद ने सामाजिक विभाजन को सरल बना दिया तथा समाज पूंजीवाद वर्ग और सर्वहारा वर्ग के खेमों में बंट गया। भारत में ऐसी कोई सफल सामाजिक क्रांति हुई नहीं और अब सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के संघर्षों की द्वंद्वात्मक एकता की आवश्यकता है। इसीलिए जय भीम-लाल सलाम का नारा प्रासंगिक है।

Sunday, October 23, 2022

Atheism

 On an old post (2018) on religion in general someone commented that I should read Islamic history to know Islam. I told him that I don't need to read or know the history of Islam or any other religion. Then he accused me of abusing Islam without knowing it and got fits of left paralleling Hindutva rightists. To that:


I am an atheist but don't abuse anyone's faith/devotion. Islam is also a religion created by human beings according to historical needs of their context. My question is very simple was/were there God/Gods before the advent of Islam? Are the Gods of those not following Islam different and inferior? Are the Gods of Shia and Sunni the same? If so, what is the conflict about? Similar arguments are given by Hindu fanatics. Discuss communism on a separate thread. All kinds of fundamentalists get fits of communism.

Thursday, October 20, 2022

फुटनोट 368 (भाजपा)

 डॉ. उमर खालिद को जमानत नहीं मिली क्योंकि उसने इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाए थे। 14 साल की कैद के दौरान दर्जनों बार महीनों के पेरोल पर रहते हुए गवाहों को डराने धमकाने और स्त्रियों के साथ दुराचार के 'अच्छे आचरण' के चलते गुजरात नरसंहार के दौरान सामूहिक बलात्कार और हत्या के दोषियों को आजीवन कारावास से क्षमादान मिल गया और विश्व हिंदू परिषद (भाजपा) के नेताओं द्वारा लड्डू खिलाकर तथा माला पहनाकर उनका स्वागत किया गया। हत्या के दोषी राम रहीम को पोरोल मिल जाती है, अभी पेरोल पर छूटे रामरहीम सार्वजनिक सत्संग आयोजित कर रहा है और भाजपा नेता चुनावी सफलता के लिए उसका आशिर्वाद ले रहे हैं।भाजपा बिल्कुल अलग चाल-चलन की पार्टी है, सांप्रदायिक रक्तपात और हिंसा बलात्कार के कर्णधारों को सम्मानित किया जाता है।

Tuesday, October 11, 2022

फुटनोट 367 (एबीवीपी)

 मैंने 1972 में इंटर केबाद बीएचयू और इलाहाबाद दोनो जगह फॉर्म भरा और दोनों जगह प्रवेश मिल गया। बनारस थोड़ नजदीक था और यातायात की दृष्टि से सुविधाजनक और इलाहाबाद आईीएएस/पीसीएस के लिए मशहूर। बहुत आगे-पीछे करने के बाद बनारस जाने का कहकर घर से निकला। जौनपुर के रोडवेज बस अड्डे पर बनारस की बस की तरफ पैर बढ़ाया ही था कि मन बदल गया तथा आईएएस/पीसीएस की चकाचौध मन पर हावी हो गया तथा बनारस की बजाय इलाहाबाद की बस पकड़ ली। इलाहाबाद विवि में फर्स्ट यीयर में विभाग की विभागीय सोसाइटी में सहसचिव का चुनाव लड़ गया और जीत गया। छात्रसंघ के महासचिव बृजेश से मुलाकात हुई और वे मुझे यनिवर्सिटी रोड चौराहे पर, य़ाकुर की पान की दुकान के ऊपर एबीवीपी के कार्यालय में ले गए तथा मुझे भर्ती कर जिला प्रकाशन मंत्री बना दिया गया।

Monday, October 10, 2022

शिक्षा और ज्ञान 383 (शिक्षा)

 दिल्ली विवि के शिक्षकों के एक ग्रुप में भारी संख्या में एढॉक शिक्षकों की नौकरी से बेदखली और विवि शिक्षकसंघ (डूटा) की चुप्पी पर किसी ने एक पोस्ट में अपनी नाराजगी शेयर किया । सिद्धांततः एढॉक नियुक्ति 4-6 महीने की होती है लेकिन यहां लोग 5 से 25 सालों से एढॉक पढ़ा रहे हैं, ऐसे में इंटरविव द्वारा उनकी छटनी नौकरी न देना न होकर नौकरी से निकालना हुआ। डूटा का नेतृत्व इस समय आरएसएस के अनुषांगिक संठन, एनडीटीएफ के हाथ में है। उस पर कमेंट:


कहा जाता है, "जैसा राजा, वैसी प्रजा" लेकिन 'जनतंत्र' में कहावत उल्टी हो गयी है, "जैसी प्रजा वैसा राजा"। चुनावी जनतंत्र दरअसल संख्यातंत्र है जिसमें सत्ता संख्याबल से निर्धारित होती है, दुर्भाग्य से अधोगामी चेतना के चलते उच्च शिक्षा के बावजूद शिक्षकों का झुंड खुद को संख्याबल से जनबल में तब्दील करने में असफल रहा है। वैसे शिक्षित जाहिलों का प्रतिशत अशिक्षित जाहिलों से अधिक है।यदि व्यक्ति जन्म के जीववैज्ञानिक संयोग की अस्मिता से ऊपर उठकर विवेकसम्मत इंसान नहीं बन सकता तो वह उच्चतम शिक्षा (पीएचडी) के बावजूद जाहिल ही रह जाता है। शिक्षा और समाज के लिए यह चिंताजनक बात है कि इतनी भारी संख्या में शिक्षक जाति (जातिवाद) और धर्म (सांप्रदायिकता) की मिथ्या चेतना से ऊपर उठने (बाभन से इंसान बनने) में असमर्थ है। शिक्षक होने का महत्व समझें और आगे बढ़ें।

Sunday, October 9, 2022

Marxism 52 (Culture)

 With changes in the economic (base) structurer, changes in the political and legal (super) structures readily follow, as they are essential to hold the economic changes but the cultural (super) structure takes much longer to change, as we internalize the cultural values as the final truth during our growing up socialization. For the cultural changes, i.e. for the disillusionment with the values inherited as the legacy one needs to wage continuous internal struggles. In doing so one needs to derive an equilibrium between right to the freedom of desires and social conscientiousness.

Friday, October 7, 2022

बेतरतीब 137 (नास्तिकता)

 मैं नास्तिक हूं और मेरी पत्नी बहुत धार्मिक हैं, भगवान के साथ अपने संबंध के अनुष्ठानों में वे मुझे बिल्कुल नहीं शामिल करतीं। प्रसाद जरूर देती हैं। कॉलेज के घर में रहते थे तो कभी कभी फूल तोड़ने में पेड़ की डाली लटकाकर उनकी मदद करता था। घर में एक छोटा कमरा (स्टोररूम) भगवान का घर बन गया था, जिसमें मेरा प्रवेश वर्जित था। अपने भक्त के जरिए व्यक्त भगवान की यह असहनशीलता मैं सहर्ष सहन करता था। मेरे नाम से एलॉट घर में उनके घर के निर्माण में तो मैंने यथासंभव मदद किया था लेकिन बन जाने के बाद उसमें मेरा प्रवेश वर्जित था। पत्नी को लगता था कि मैं बिना नहाए-धोए या बिना जूता-चप्पल उतारे मंदिर में जाकर उसे अपवित्र कर सकता था। हमारे बचपन में गांव में गुड़ बनाने की प्रक्रिया में गन्ना काटने, कोल्हू में पेरने, गुलउर (भट्ठी) में पकाने और भंडारण पात्र में रखने का काम (दलित जाति का) मजदूर करता था। लेकिन उसके बाद वह उसे नहीं छू सकता था। मैं सिगरेट जलाने के लिए लाइटर रखता था क्योंकि माचिस गायब होने का संदेह मुझ पर ही जाता। न उनकी धार्मिकता मेरी नास्तिकता में बाधक है और न मेरी नास्तिकता उनकी धार्मिकता में। दरअसल किसी की धार्मिकता से किसी को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए लेकिन धर्म का राजनैतिक इस्तेमाल यानि धर्मोंमादी राजनैतिक लामबंदी व्यक्ति, समाज, देश और मानवता, सबके लिए खतरनाक है। सांप्रदायिकता धार्मिक विचारधारा नहीं है, धर्मोंमादी लामबंदी की राजैनिक विचारधारा है।

मैंने एक पोस्ट में लिखा कि मैं और मेरी पत्नी एक दूसरे की क्रमशः नास्तिकता और धार्मिकता के प्रति सहनशीलता दिखाते हुए सहअस्तित्व के सिद्धांत का पालन करते हैं। एक सज्जन ने इसे ब्राह्मण कम्युनिस्ट का अवसरवादी प्रवृत्ति कहा और एक अन्य मित्र ने कहा कि जब अपनी पत्नी को नहीं बदल सकता तो बदलाव के लिए औरों को कैसे प्रभावित करूंगा? एक और मित्र ने इसे उच्चजातीय प्रपंचबताया। उस पर --

मेरा विवाह उस उम्र में हो गया था जब मैं ठीक से विवाह का मतलब भी नहीं समझता था, हमारे गांव के सांस्कृतिक परिवेश में बाल विवाह आम प्रचलन था। आधुनिक शिक्षा की पहली पीढ़ी के रूप में हाई स्कूल इंटर की पढ़ाई (1967-71) शहर (जौनपुर जो सांस्कृतिक रूप से 1960-70 के दशक तक गांव का ही विस्तृत संस्करण थ) में करते हुए चेतना का स्तर इतना हो चुका था कि इतनी कम उम्र में विवाह नहीं होना चाहिए तथा इंटर की परीक्षा के बाद घर पहुंचने पर अपनी शादी का कार्ड छपा देखकर विद्रोह का विगुल बजा दिया लेकिन भावनात्मक दबाव के आगे झुक गया और विद्रोह अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका। एक बार किसी ने पूछा कि सबके चुनाव की आजादी के अधिकार की बात करता हूं तो क्या शादी भी अपनी मर्जी से किया था? मैंने कहा, शादी तो अपनी मर्जी से नहीं किया था (शादी के समय और उसके 3 साल बाद गवना आनेतक मैंने अपनी पत्नी को देखा ही नहीं था), लेकिन शादी निभाने का फैसला अपनी मर्जी से किया था। यदि यह शादी मेरी मर्जी से नहीं हुई थी तो पत्नी की भी मर्जी से नहीं हुई थी, लड़कियों से तो मर्जी पूछने का सवाल ही नहीं होता था। उस समय हमारे गांवों में लड़कियों के पढ़ने का रिवाज नहीं था। उन्होंने गांव के स्कूल से प्राइमरी तक पढ़ लिया था। लड़कियों की छोड़िए, विश्वविद्यालय पढ़ने जाने वाला अपने गांव का मैं पहला लड़का था। 1982 में 8वीं के बाद अपनी बहन की पढ़ाई के लिए मुझे पूरे खानदान से महाभारत करना पड़ा था तथा अड़कर मैंने उसका राजस्थान में लड़कियों के स्कूल/विवि वनस्थली विद्यापीठ में एडमिसन कराया, वह अलग कहानी है। भूमिका लंबी हो गयी। बाकी बातें अगले कमेंट में। यह कमेंट दो घटनाओं से खत्म करता हूं। पहली घटना 1980-81 के आसपास की है एक संभ्रांत क्रांतिकारी जोएनयू की सहपाठी को मुझसे कुछ राजनैतिक डीलिंग करनी थी। हम दोनों अलग अलग वाम संगठनों में थे। राजनैतिक बातचीत की भावुक भावना के तौर पर उन्होंने कहा कि बाल विवाह के चलते मुझे, आसानी से तलाक मिल सकता था। मेरा माथा ठनका। मैंने पूछा कॉमरेड आपका क्या इंटरेस्ट है? कोई गांव का शादीशुदा लड़का अकेले हॉस्टल में रह रहा हो तो कई लोग शायद यह मानते हो कि वह शादी से छुटकारा चाहता होगा। मैंने कहा था, "If there are two victims of some regressive social custom, one co-victim should not further victimize the more co-victim and in patriarchy the woman is more co-victim." दूसरी घटना मेरे कॉलेज की है। एक सहकर्मी से वैज्ञानिकता और धार्मिकता पर बहस हो रही थी, तर्कहीन होने पर उन्होंने कहा कि वे मेरी कोई बात तब मानेंगे जब मैं अपनी पत्नी को नास्तिक बना दूं। मैंने कहा कि इतने दिनों में जब मैं आपको भूमिहार से इंसान न बना सका जबकि आपतो पीएचडी किए है और इतने सीनियर प्रोफेसर है, मेरी पत्नी तो प्राइमरी तक पढ़ी गांव की स्त्री हैं। बाकी फिऱ।

Wednesday, September 28, 2022

बेतरतीब 137 (कैंपस का घर)

 कैंपस में अंतिम मॉर्निंग वॉक से लौटा हूं, कल हरे-भरे परिवेश के कैंपस के इस घर में अंतिम दिन था, रात गेस्ट हाउस में सोया क्योंकि सामान कल ही पैक हो गया था। सोचा था कियह घर छोड़ने के पहले यहां रहने के अनुभवों पर एक लंबा लेख लिखूंगा, लेकिन सोची हर बात हो ही जाए तो क्या बात! दर-असल यथास्थिति को स्थाईभाव से जीना मनुष्य की प्रवृत्ति है, और अच्छी प्रवृत्ति है, आज आनंद से जिओ, कल की कल देखी जाएगी।

लोग दूर-दूर से कारों से विवि कैंपस की हरियाली और बगल के रिज में सुबह सुबह घूमने आते हैं लेकिन मैं पिछले लगभग 14 साल से यहां रहते हुए जीवन-चर्या के दौरान जो घूमना हो जाता था बस वही, या शाम को कभी एक पड़ोसी सहकर्मी से गप्पे करते हुए। दिसंबर, 2018 में दिल के दौरे के बाद अस्पताल से लौटकर मेडिकल परामर्श के चलते रोज सुबह डेढ़-दो किमी घूमने लगा और लगा यह पहले से ही करना था। अब कल से कैंपस की हरियाली की बजाय नोएडा के कांक्रीट जंगलों में सुबह की सैर होगी।

वैसे तो 2020 जून में 65 का होऊंगा लेकिन प्राइमरी जल्दी पास कर लेने से हाई स्कूल परीक्षा की न्यूनतम उम्रसीमा के लिए सर्टीफिकेट में दर्ज उम्र से फरवरी में ही 65 होकर रिटायर हो गया। अब तक की आधी उम्र कैंपसों में बीती 5 साल जौनपुर में स्कूल (इंटर कॉलेज) के तथा प्राइवेट हॉस्टल मिलाकर जौनपुर में; 4 साल इलाहाबाद विवि में वैध-अवैध 10 साल जेएनयू में छात्र के रूप में और लगभग 14 साल दिवि कैंपस में। कैंपस में रहने का सुख अनुभव तो किया जा सकता है उन अनुभवों को सटीक ढंग से शब्दों में नहीं उतारा जा सकता। 1989 में दिवि की एक साल की अस्थाई नौकरी के लिए इग्नू की नौकरी छोड़ने की मूर्खता न करता तो कैंपस में रहने का अनुभव लगभग 15 साल बढ़ जाता। वह सुविचारित फैसला था इसलिए अफशोस नहीं है, लेकिन फैसला गलत था, जिस गलती का खामियाजा 5 साल की अतिरिक्त बेरोजगारी से चुकाया। मैं जानता नहीं था कि क्रांतिकारी प्रोफेसर भी अपने 'बड़े आदमियों के प्रतिभाशाली बेटे' चेलों की गॉडफादरी की कमीनगी में प्रतिक्रियावादी गॉडफादरों को भी मात दे देगा।

कैंपस के इस घर के अनुभवों के बारे में अब यह घर आज ही छोड़ने के बाद ही लिख पाऊंगा। प्रशासनिक दक्षता के आत्मविश्वास की कल्पित कमी न होती तो 7-8 साल और कैंपस में रहता। 1999 में और फिर 2003 में हॉस्टल का वार्डन बनने के अवसरों को इसलिए टाल गया। 2006 में जब वार्डन बना तो मैंने अपने अंदर एक अद्भुत प्रशासक का अन्वेषण किया। वार्डन के रूप में एक अलग ही तरीके से पढ़ाने का अनुभव हुआ। दर-असल शैक्षणिक संस्थाएं, जेएनयू की तरह पूर्णतः आवासीय होनी चाहिए।ज्ञानार्जन की दृष्टि से कैंपस की दिन की जिंदगी जितनी ही महत्वपूर्ण रात की भी जिंदगी होती है। जेएनयू की जनतांत्रिक शैक्षणिक संस्कृति में रात्रि-भोजन के उपरांत की जिंदगी का उल्लेखनीय योगदान है। जेएनयू छोड़ने के बाद बहुत दिनों तक भोजनोपरांत कार्यक्रमों के लिए मयूरविहार से बाइक से जाता रहा।

इस घर में यानि कैंपस में रहने के अनुभवों के बारे में अब यहां से शिफ्ट होने के बाद विस्तार से लिखूंगा, जिसमें सबसे खूबसूरत दिन थे 3 साल हॉस्टल के वार्डन के रूप में, बच्चेभी उन दिनों को बहुत प्यार से याद करते हैं।

29.09.2019

शिक्षा और ज्ञान 382 (ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति)

 किसी ने कहा कि बुद्ध के अहिंसा के उपदेश ने हिंदुओं को कायर बना दिया जिससे मुगल से लेकर अंग्रेज आक्रामक आकर यहां राज कर सके। उस पर:


भारत में बौद्ध विरोधी हिंसक अभियान दूसरी शताब्दी ईशा पूर्व (पिष्यमित्र शुंग) से शुरू होकर 8 वीं शताब्दी (शंकराचार्य) तक अपनी तार्किक परिणति तक पहुंच गया। मुगल 16वीं शताब्दी में आए और अंग्रेज 18वीं में। इतने लंबे समय तक हिंसक समुदाय बुद्ध के अहिंसक प्रभाव से नहीं उबर पाया और कायर बना रहा कि नादिरशाह जैसा चरवाहा 2000 घुड़सवारों के साथ पेशावर से बंगाल तक रौंदकर लूट-मार कर वापस चला जाता था? 2-4 हजार सैनिकों के साथ इंगलैंड के बनियों की एक कंपनी आई और इस विशाल मुल्क को 200 साल गुलाम बनाकर लूटती रही। 1857 में किसानों और सैनिकों के विद्रोह को हिंसक तरीके से कुचलने के प्रयास को भारत के अधिकांश रजवाड़ों ने हिंसक सहयोग दिया। आज देश का शासक वर्ग साम्राज्यवादी भूंडलीय पूंजी के सामने नतमस्तक है। जापान लगभग संपूर्ण रूप से बौद्ध देश है उसे कोई औपनिवेशिक ताकत गुलाम नहीं बना पायी न चीन को। जो समुदाय आत्मचिंतन और आत्मावलोकन नहीं करता अपनी पराजय का ठीकरा दूसरों पर फोड़ता रहता है, वह गुलाम बनने को अभिशप्त है, जिसकी सूक्ष्म मिशाल फेसबुक पर देखने के मिलती है। कई सवर्णवादी सामाजिक सरोकार के विषयों पर तार्किक विमर्श करने की बजाय वाम और लव जेहाद जैसे रटे भजन गाने में मगन रहते हैं। वैसे भी जिस संस्कृति में शस्त्र और शास्त्र का अधिकार चंद हाथों में सीमित हो तथा आबादी के बड़े हिस्से के पास कोई अधिकार ही न हों, उसे पराजित करना अपेक्षाकृत आसान था।

29.09.2020

शिक्षा और ज्ञान 381 (शिक्षा)

 मोदी जी को चोर मत कहिए, उनके अपढ़ होने का फायदा उठाकर अंबानी अडानी उन्हें उल्लू बनाकर देश लूट रहे हैं, मोदी जी राष्ट्र के प्रधानमंत्री हैं, 2002 गुजरात युद्ध के सेनापति रहे हैं जिसमें दुश्मनों की लाशें बिछा दी और उनकी औरतों की इज्जत खाक में मिला दी। मोदी जी तो अपने उपसेनापति जावेडकर के सहारे देश को विश्व गुरु बनाना चाहते हैं, उनके अपढ़ होने का फायदा उठाकर जावेडकर सार्वजनिक विश्वविद्यालयों का सत्यानाश करने पर तुला है। वैसे भी मैकाले से मिलकर नेहरू ने शिक्षा की गौरवशाली गुरुकुल परंपरा को नष्टकर विदेशी शिक्षा पद्धति लागू कर ब्रह्मा और गरिमामय वैदिक परंपरा का अपमान किया, जिसने ब्रह्मा के सीने से नीचे के नीच अंगों से पैदा हुए अपात्रों को भी शिक्षा का अधिकार मिल गया। मोदीजी तो दलित-ओबीसी के हित के हिमायती हैं, लेकिन देश को विश्वगुरू बनाने के लिए सुपात्रों के ही शिक्षित होने की जरूरत है, खेती और हलवाही-चरवाही के पात्र वेद पढ़ेंगे तो अनर्थ हो जाएगा। अब नेहरू की देश के विदेशीकरण की साजिश को सीधे तो खत्म नहीं किया जा सकता लेकिन विश्वविद्यालयों को अनुदान बंदकर उन्हें धनपशुओं को सौंपकर, शिक्षा को मंहगी बनाकर इसे अपात्रों की पहुंच से बाहर करके क्षति की आंशिक भरपाई कर कुछ सुधार किया जा सकता है। अब दलित-आदिवासी अपने दुर्भाग्य तथा ब्रह्मा के प्रकोप तथा पिछले जन्मों के कर्मों से निधन भी हैं तो मोदी जी क्आया कर सकते हैं? वैसे दलितों का दुर्दिभाग्य विश्वगुरु के मकसद तथा राष्ट्र का सौभाग्य है। अब पैसे वाले सुपात्र ही उच्च शिक्षा ले पाएंगे। कुछ देश द्रोही अर्बन नक्सल इसे ब्राह्मणवादी साजिश बताएंगे, उन्हें महाराष्ट्र पुलिस ठीक कर देगी। हमारे ब्राह्मण ऋषि-मुनियों ने ही तो गौरव का निर्माण किया था जिसे मुसलमान आक्रांताों ने हमारे शूरवीरों की सहिष्णुता का नाजायज फायदा उठाकर नष्ट कर दिया। मोदी जी को चोर मत कहिए चोर तो अबानी है, जिसने हमारे सीधे-सादे प्रधानमंत्री को अपने जाल में फंसा लिया। वैसे भी प्रधानमंत्री को चोर कहना राष्ट्रीय गोपनीयता का उल्लंघन है।

28.09.2018

Monday, September 26, 2022

शिक्षा और ज्ञान 380 ( राज्य का बौद्ध सिद्दांत)

 बुद्ध का ईश्वर के अस्तित्व को नकारने और इंद्रियबोध से सत्य के ज्ञानयह विमर्श दीघ (दीर्घ) निकाय (संकलन) के 27 वें सूत्त अग्गना सूत्त से 5-6 सूत्त पहले किसी सूत्त में है, लाइब्रेरी खुलने के बाद ठीक-ठीक बता सकूंगा। राज्य की उत्पत्ति के बौद्ध (सामाजिक संविदा) सिद्धांत पर एक अध्याय लिखने के लिए अग्गना सूत्त पढ़ते हुए उक्त विमर्श पर निगाह पड़ी थी। अग्गना सूत्त में दो ब्राह्मण (भारद्वाज और वशेट्ठा) घर और कुल छोड़कर संघ के सदस्य बनने आए हैं और तमाम अन्य बातों के बाद विमर्श राज्य की उत्पत्ति पर केंद्रित हो जाती है। बुद्ध उन्हे बताते हैं कि कैसे कुछ बुरे लोगों के चलते प्रकृति (स्टेट ऑफ नेचर) का सामंजस्य टूट जाता है और दोषी को दंडित कर व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक सार्वजनिक शक्ति की आवश्यकता पड़ी। लोगों ने अपने में सबसे योग्य के साथ अनुबंध कर उसे महासम्मत (the great elect) चुना। उसे राजा भी कहा जाता था। राज्य की उत्पत्ति का बौद्ध सिद्धांत राज्य की उत्पत्ति के प्राचीनतम सिद्धांतों में से है। उससे पहले सामाजिक अनुबंध का सिद्धांत ऐत्रेय ब्राह्मण में मिलता है लेकिन वह पौराणिकता के लबादे में ढका है। अवश्यंभावी सुर-असुर युद्ध के लिए देवता (सुर) अपने में सबसे बलशाली एवं युद्ध में निपुण इंद्र से युद्ध के नेतृत्व का अनुबंध करते हैं। किताब सेज ने छापा है, कॉपीराइट की झंझट का पता कर शेयर करूंंगा।

24.09.2020

Wednesday, September 21, 2022

शिक्षा और ज्ञान 379 (हिजाब)

 इरान में स्त्रियां हिजाब के विरुद्ध प्रदर्शन कर रही हैं और हिंदुस्तान की कुछ स्त्रियां हिजाब पर पाबंदी के विरुद्ध। हर किसी को खाने-पहनने की रुचि की आजादी का अधिकार होना चाहिए, चाहे वह हिजाब पहने या हॉट पैंट। महान स्त्रीवादी दार्शनिक सिमन द बुआ से एक बार एक पत्रकार ने पूछा कि जब स्त्रियां अपने पारंपरिक जीवन (पितृसत्तात्मक समाज की रीतियों में रहते हुए) से खुश हैं तो वे उनपर अपने विचार क्यों थोपना चाहती हैं? उन्होंने जवाब दिया था कि वे किसी पर कुछ भी थोपना नहीं चाहतीं बल्कि वे उन्हें जीवन के और रास्तों से परिचित करना चाहती हैं, क्योंकि वे पारंपरिक रीति-रिवाजों के जीवन में इसलिए खुश हैं कि वे जीवन के और रीति-रिवाजों के बारे में नहीं जानती। इरान और हिंदुस्तान की लड़कियां/स्त्रियां सभी तरह के पहनावे से वाकिफ हैं, इरान की लड़कियों का हिजाब न पहनने के अधिकार की लड़ाई उतनी ही वाजिब है, जितनी हिंदुस्तान की कुछ लड़कियों का हिजाब पहनने के अधिकार की। दुनिया के हर स्त्री-पुरुष को पहनावे के चुनाव की आजादी होनी चाहिए।

शिक्षा और ज्ञान 378 (सांप्रदायिकता और चुनाव)

असगर भाई ( Asghar Wajahat) ने श्रीलंका की एक अदालत द्वारा पूर्व राष्ट्रपति श्रीसेना को नोटस जारी करने की एक खबर शेयर किया है कि उन्होंने एक आत्मघाती, आतंकी हमले की खुफिया जानकारी होने के बावजूद उसे रोकने या विफल करने का कोई प्रयास नहीं किया। इस आत्मघाती विस्फोट में 270 लोग मारे गए थे जिसकी प्रतिक्रिया में वहां भीषण जनसंहार हुआ था और जिसके बाद के चुनाव में श्रीसेना की विशाल बहुमत से विजय हुई। सांप्रदायिक हिंसा/जनसंहार चुनाव के साधन बन गए हैं। गौरतलब है कि 1984 में दिल्ली में सिख-जनसंहार के बाद चुनाव में कांग्रेस को विशाल बहुमत मिला; 1990 में अडवाणी की रथयात्रा की पृष्ठभूमि हुई सांप्रदायिक हिंसा के उंमाद से भाजपा ने पहली बार उत्तर प्रदेश में बहुमत पाकर सरकार बनाया, जिसने बाबरी मस्जिद ध्वस्त करवाने का उल्लेखनीय काम किया। सर्वविदित है कि गोधरा और उसके बाद के अभूतपूर्व जनसंहार के बाद गुजरात में ऐसा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ कि भाजपा का स्थाई चुनावी जनाधार बन गया और गांधीनगर से चला चुनावी विजयरथ मुजफ्फरनगर की संप्रदायिक हिंसा और विस्थापन जैसी छोटी-मोटी अमानवीयताओं की मदद से 12 सालों में दिल्ली पहुंच गया।

सवाल हिटलर द्वारा यहूदियों के जनसंहार का तो है ही लेकिन उससे बड़ा सवाल शिक्षा के चरित्र का है कि विशाल शिक्षित जनसमूह यहूदियों के जनसंहार का समर्थक/प्रशंसक था।

Sunday, September 18, 2022

शिक्षा और ज्ञान 377 (राम टका)

 अंधभक्त उच्च शिक्षा के बावजूद जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता (हिंदू-मुसलमान; बाभन-भमिहार....) से ऊपर उठकर इंसान तो बन नहीं पाते, उनसे वस्तुनिष्ठ इतिहासबोध की उम्मीद करना व्यर्थ है। समाज में नफरत फैलाने वाले और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की सियासत के भरोसे मुल्क की संपदा अपने धनपशु आकाओं के सुपुर्द करने वाले हिंदुस्तान और पाकिस्तान के सारे फिरकापरस्त राजनैतिक नेता और उनके जाहिल अंधभक्त हिंदू-मुसलमान नरेटिव से ही धर्म की दुकानदारी करके मानवता को शर्मसार करते हैं। अपने शासनकाल की स्वर्णजयंती (50वे साल) के उपलक्ष्य में, राम-सीता की तस्वीर वाले अकबर द्वारा जारी सोने और चांदी के सिक्के राष्ट्रीय संग्रहालय में आज भी संग्रहित हैं। जहां तक भारत को तोड़कर पाकिस्तान बनाने की बात है तो यह बांटो-राज करो की नीति के तहत औपनिवेशिक परियोजना थी जिसे कार्यरूप देने में औपनिवेशिक शासन के हिंदू-मुस्लिम कारिंदों (हिंदू महासभा-मुस्लिम लीग; आरएसएस-जमाते इस्लामी) ने निर्णायक भूमिका निभाया। दो-राष्ट्र का प्रस्ताव सावरकर के नेतृत्व में हिंदू महासभा ने 1937 में पारित किया और मुस्लिम लीग ने 1940 में। उसके बाद 1942 में जब मुल्क 'भारत छोड़ो', राष्ट्रीय आंदोलन में मशगूल था तब दोनो औपनिवेशिक कारिंदे (मुस्लिम लीग-हिंदू महा सभा) अपने औपनिवेशिक आकाओं की शह पर सिंध, उत्तर-पश्चिम प्रांत और बंगाल में साझा सरकारें चला रहे थे। भारतीय जनसंघ के पहले अध्यक्ष, श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल की मुस्लिमलीग-हिंदू महासभा की मिली-जुली सरकार में उप मुख्य मंत्री थे। सांप्रदायिक दुराग्रह तथा अफवाहजन्य इतिहासबोध से ऊपर उठकर वस्तुनिष्ठ इतिहासबोध से इतिहास पढ़ेंगे तो हिंदू-मुस्लिम नरेटिव से समाज को फिरकापरस्ती के जहर से प्रदूषित करना बंद कर मानवता की सेवा करेंगे। सादर।

Thursday, September 8, 2022

शिक्षा और ज्ञान 376 (पहाड़ा)

 एक मित्र ने पूछा कि बड़े अंकों का पहाड़ा कैसे याद किया जा सकता है?

याद किया तो भूल सकता है, समझा हुआ नहीं।

1से 10 तक के अंकों का जोड़ सीख लें अभ्यास के बाद मन में बैठ जाता है, जैसे 9+6=15 और जोड़ के माध्यम से 1 से 10 तक गुणा (पहाड़ा) सीखें। अब यदि 33 का पहाड़ा पढ़ना है तो 3 के पहाड़े में शून्य बढ़ाकर 10 गुना करते जाएं तथा उसमें 3 के अगले गुणकजोड़ते जाएं । 33X7 = 30x7+3x7 = 210+21 =231 या 76 के पहाड़े के लिए 7 के पहाड़े में शून्य बढ़ाकर (10 का गुणा करके) 6 के गुणक जाड़ते जाएं। 76x9 = 7x9x10+6x9 =63x10+54 = 630+54=684. थोड़ा अभ्यास के बाद पूरी प्रक्रिया मन में ही तेजी से होती रहती है। इसी प्रक्रिया से 20 से ऊपर का पहाड़ा सुनाने से प्रोमोट होकर गदहिया गोल (प्री प्राइमरी) से कक्षा 1 में पहुंच गया था। डिप्टी साहब (एसडीआई) के मुआयने के दौरान अंक गणित के ही किसी मौखिक सवाल के फौरी जवाब से कक्षा 4 से 5 में और इस तरह 9 साल में ही प्राइमरी पास कर लिया। उस समय हाई स्कूल की परीक्षा के लिए न्यूनतम आयु 15 वर्ष थी जिसके लिए टीसी बनाते समय हमारे प्रधानाचाय ने उम्र 1 साल 4 महीने अधिक लिख दिया।

Sunday, September 4, 2022

बेतरतीब 136 (बचपन में छुआछूत से मोहभंग)

 

बेतरतीब 136

 बचपन में छुआछूत से मोहभंग

ईश मिश्र

मेरा बचपन पूर्व-आधुनिक, ग्रामीण, वर्णाश्रमी, सामंती परिवेश में बीता, हल्की-फुल्की दरारों के बावजूद वर्णाश्रम प्रणाली व्यवहार में थी। सभी पारंपरिक, खासकर ग्रामीण, समाजों में पारस्परिक सहयोग की सामूहिकता की संस्थाएं होती थीं। हमारे गांव में भी पारस्परिक सहयोग और सहकारिता की कई संस्थाएं/रीतियां थीं। वैसे तो हर युग में सभी सामाजिक, सांस्कृतिक तथा बौद्धिक संरचनाओं का मूल अर्थ ही रहा है। उपभोक्तावाद और व्यापारिकता गांवों गहरी पैठ नहीं बना पाई थी। आज की तरह टेंट हाउस या बारात घर का प्रचलन नहीं था। शादी व्याह तथा अन्य काम-काजों में दूह, दही का प्रबंध पारस्परिक सहयोग से होता था। हर घर में एकाध खाट, दरी, चदरा और तकिया पर घर के किसी (प्रायः मुखिया) का नाम लिखा था जिससे शादी व्याह में इकट्ठा करने और लौटाने में सहूलियत रहे। जाजिम और भोजन पकाने के हंडा, कडाह जैसे बड़े बर्तन कुछ ही लोगों के पास होते थे लेकिन काम सबके आते थे। सभी को सुलभ बैल से चलने वाली आंटा की चक्की गांव में एकाध लोगों के पास होती थी। उपभोक्ता संस्कृति और व्यापारीकरण ने पारस्परिक सहयोग की सामूहिकता को नष्ट कर दिया। गांव में लगभग सभी के पास छप्पर (छान्ह) के मड़ई-मड़हा होते थे। छान्ह की छवाई तो खुद तथा मजदूर-मिस्त्री से करवा (छवा) लिया जाता था लेकिन उसे मुड़ेर पर रखने (उठाने) के ले कई लोगों की जरूरत पड़ती थी। लोग मिलकर एक दूसरे की छान्ह उठाते थे। खैर भूमिका लंबी न खींच कर मुख्य  मुद्दे पर आते हैं। यहां मैं गन्ने से गुड़ बनाने की प्रक्रिया में पारस्परिक सहयोग के सामूहिकता की बात करना चाहता हूं और यह कि यह छुआ-छूत और पवित्रता-अपवित्रता से मेरे मोह भंग  कैसे निमित्त बना।

 हमारे बचपन में गांव में गुड़ बनाने के लिए गन्ना पेरने का कोल्हू सबके पास नहीं होता था, वैसे भी अकेल-अकेले, अपना-अपना गन्ना काटना-पेरना और गुड़ पकाना अव्यवहारिक था। या तो किसी अपेक्षाकृत संपन्न व्यक्ति के पास कोल्हू होता था और पास-पड़ोस के कई लोग उसमें साझा होते या साझीदार चंदा करके कोल्हू खरीदते थे। सब साझीदार आपसी सहमति से तय कर लेते थे कि किस दिन किसका गन्ना कटेगा। सभी मिलकर गन्ना काटते गन्ने का ऊपरी हिस्सा (गेंड़ा) पशुओं के चारे के रूप में सब अपने घर ले जाते और निचला हिस्से (ऊख्खुड, ऊख या गन्ने) का बोझ कोल्हू पर। जिसका गन्ना होता वह या उसके घर का कोई कोल्हू में गन्ना लगाता और जिसका बोझ होता वह अपने बैल से पेरता। कोल्हूके पास ही छप्पर में गुड़ बनाने की भट्ठी गुलउर (मिट्टी के 2 बड़े-छोटे विशालकाय चूल्हों में अंदर के बड़े चूल्हे पर लोहे का बड़ा कड़ाह और बाहर के अपेक्षाकृत छोटे चूल्हे पर छोटा कड़ाह। बड़े चूल्हे के नीचे ईंधन  झोकने का गौंखा (छेद) होता और छोटे से धुंआ बाहर निकलने का। ईंधन पेड़ों को सूखे पत्तो और गन्ने के सूखे पत्तियों पाती तता खोइया (पेरने [रस निकालने] के बाद कोल्हू से निकले गन्ने के अवशेष को धूपमें सुखाकर खोइया बनाया जाता था) का होता। ये बातें इसलिए विस्तार से लिख रहा हूं कि ये अब इतिहास बन चुकी हैं।

    जिसका गन्ना होता वह या उसका मजदूर हौदी से बाल्टी में रस निकालकर कड़ाह में डालता। और कड़ाह भर जाने पर गुलउर में ईंधन झोंकता। तीन तरह के गुड बनते थे। चकरा (चकला) में बहुत अधिक औंटाकर डाला जाता जिसका लड्डू (भेली) बनता जिसे आम तौर पर हम गुड़ कहते हैं। दूसरे तरह के गुड़ को राब (शक्कर) कहते थे जो थोड़ा-थोड़ी गीला और दानेदार होता था, जिसका इस्तेमाल शरबत तथा खीर वगैरह बनाने और रोटी के साथ खाने में होता था और तीसरा चोटा होता था जिसके लिए रस को इतना पकाया जाता था कि वह गाढ़ा द्रव बन जाए। चोडा का प्रमुख इस्तेमाल रस और शरबत, ठेकुआ (मीठी पूड़ी) तथा चोटही जलेबी आदि बनाने में होता था। मजदूरों को नाश्ते (खरमिटाव) में कुछ चबैना/घुघुनी आदि के साथ गुड़(चोटे) का रस दिया जाता था। छोटी सी कहानी की भूमिका बहुत लंबी हो गयी कि अब कहानी बता ही देनी चाहिए।

   मैं 8-10 साल का रहा हूंगा जब इस बात पर मेरा ध्यान गया कि गुड़ बनाने और भंडारण के लिए उसे रखने में जब तक श्रम की जरूरत होती थी तब तक पवित्रता/अपवित्रता और छुआ-छूत का विचार नहीं होता था। मजदूर प्रायः दलित जाति के होते थे। हमारे घर दो हलवाहे थे, लिलई चाचा और खेलावन चाचा। हम बच्चे उन्हें इज्जत से बुलाते थे और वे लोग भी हमें बहुत प्यार करते थे। लेकिन तब की सामान्य बात (नॉर्मल) यह थी कि वे हमारे बर्तन नहीं छू सकते थे। उनके अपने बर्तन थे जिनमें खाने के बाद धोकर वे पशुओं के चारा बालने/रखने के मड़हे रखते। हलवाहे केवल हल ही नहीं जोतते बल्कि खेती और पशुओं (गाय-भैंस-बैल) की देखभाल के और भी सब काम करते। जिस बाल्टी/गगरे से वे पशुओं के नाद में पानी डालते, उनसे हम नहा नहीं सकते थे। खेत में उनके लिए हम नाश्ता (कमिटाव) लेकर जाते तो रस/शरबत/मट्ठा ऊपर से उनके बर्तन में डालते।

लेकिन गन्ना बनने की प्रक्रिया में गन्ना काटकर, छिलकर, बोझ बांधकर ढोकर कोल्हू तक वे ले आते तथा बैलों को हांकर कोल्हू में गन्ना पेरते और नाद (हौदी) से बाल्टी में रस निकालकर कड़ाह में उड़ेलते, गुलउर झोंकर गुड़ पकाते और कड़ाह से निकाल कर भेली के लिए चकले में डालते तथा जब राब या चोटा बनता तो बाल्टी से कूंडा (बड़ा घड़ा) में डालते। तब तक पवित्रता-अपवित्रता का सवाल नहीं विचारित होता था। यानि उत्पादन प्रक्रिया में जब तक श्रम करने की जरूरत होती थी तब तक छुआ-छूत की कोई बात नहीं थी लेकिन एक बार तैयार माल का भंडारण हो जाने के बाद वे उसे नहीं छू सकते थे।

      यह देखकर ब्राह्मणीय पवित्रतावादी मान्यता और बर्तन के छुआछूत के प्रचलन से मेरा मोहभंग हो गया। खेत में हलवाहों को खमिटाव (नाश्ता) लेकर जाता तो निकालकर खाने-पीने के लिए उनके मना करने पर भी वर्तन उन्हें देकर एक और वर्जना तोड़ता हल चलाने लगता। ब्राह्मण बालक को हल चलाना वर्जित था। हलवाहे मजाक में बाबा से बताने की धमकी देते थे।   

05.09.2022                       

   

 

 

 

Saturday, September 3, 2022

बेतरतीब 135 (पारस्परिक सहयोग के प्रचलन)

 शादी-व्याह या अन्य समारोहों में आजकल उत्तर भारतीयों में ताम-झाम और खर्चीले दिखावे का प्रचलन दक्षिण भारतीयों की सादगी का विलोम लगता है। लेकिन उत्तर भारत के गांवों और कस्बों में अहंकार और प्रदर्शन की यह प्रवृत्ति पारंपरिक नहीं बल्कि नई है, खासकर भूमंडलीकरण के बाद के दौर की जब नवउदारवादी, व्यापारिक, उपभोक्ता संस्कृति और राजनीति वर्णाश्रमी सामंतवाद के विरुद्ध नही, उसके सहयोग से अपनी जड़ों के विस्तार को व्यापकता प्रदान कर रही है। सभी पारंपरिक समाजों की ही तरह हिंदी क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग और सामूहिकता की संस्कृति प्रचलित थी। टेंट हाउस और कैटरिंग की संस्कृति अपरिचित थी। शादी-व्याह में चारपाई-विस्तर वगैरह का प्रबंध एक दूसरे के सहयोग से होता था। मुझे याद है सभी घरों में एकाध खाट और दरी-चादर-तकिया पर घर के किसी सदस्य का नाम लिखा होता था जिससे वापस पहुंचाने में सुविधा रहे। यहां तक कि भोजन पकाने के बड़े बर्तन भी किसी-किसी के पास (या पंचायती) होते थे जिनका उपयोग काम-काज भी सभी को सुलभ था। दूध-दही भी खरीदी नहीं जाती थी बल्कि जिनके पास भी गाय-भैंस होती वे सब काम-काज के घरों में पहुंचा जाते थे। हर गांव या इलाके में 2-4 लोग भोजन पकाने के विशेषज्ञ होते थे। बहुत से पुरुष आंटा गूंथते थे और स्त्रियां रोटी/पूड़ी बेलतीं। दक्षिण भारत में केले के पत्ते की पत्तल में भोज होता है, हमारे यहां ढाक के पत्तल-दोने और मिट्टी के कटोरे-कुल्हण में पांत में होता था।

Monday, August 29, 2022

शिक्षा और ज्ञान 376 (महाबली)

 कल सुबह की सैर से लौटते हुए ज्ञान की उत्कंठा से ओतप्रोत मित्र Raj K Mishra से टेलीफोन पर बातचीत में असगर वजाहत के व्यास समामान से पुरस्कृत नाटक 'महाबली' पर चर्चा के दौरान कबीर और तुलसी की तपलनात्मक क्रांतिकारिता पर बात हुई जिसके आधार पर उन्होंने एक लेख पोस्ट किया। उस पर कमेंट में एक अन्य युवा मित्र DS Mani Tripathi ने मेरे द्वारा तुलसी को क्रांतिकारी कहने पर आश्चर्य व्यक्त किया, उस पर :


तुलसीदास की क्रांति समझने के लिए उन्हें उनके ऐतिहासिक संदर्भ में रखकर पढ़ना होगा। भाषा ज्ञान की कुंजी है, ज्ञान पर वर्स्व के लिए उसे अभिजन की भाषा में कैद रखा जाता था, तुलसी ने उसे आमजन की भाषा में लिखकर रामकथा को जन जन तक पहुंचाया। यह सर्वविदित है कि अवधी में राम कथा लिखने के लिए तुलसी को यथास्थितिवादी ज्ञानियों के उग्र विरोध के चलते ही उन्होंने लिखा "मांग के खैबो, मसीत को सोइबो, लेबो को एक नू, दोबो को दोऊ"।

नाटक (महाबली) का एक पात्र पं. चंद्रकांत तुलसी को फटकारते हुए कहता है, "कुतर्क न करो तुलसी.. तुम अपने को रामभक्त कहते हो और राम को घूरे पर पहुंचाना चाहते हो.... हम जानते हैं अवधी में न वह शब्द भंडार है, न वह प्रतीक और बिंब, न वह छंद और अलंकार है, न वहलगरिमा और गंभीरता है. न सुंदरता और आकर्षण है, जो संस्कृत में है ..... अवधी में राम का अपमान और अनर्थ हो जाएगा"

इसी लिए पोस्ट में कहा गया है कि तुलसी की क्रांति व्यवस्था को तोड़ने या चुनौती देने की नहीं बल्कि उसकेके अंदर से ( from within the paradigm without quashing it) । कबीर की क्रांति व्यवस्था को चुनौती देती है और उसे तोड़ती है। challenges and quashes he paradigm) ज्ञान की उत्कंठा से ओतप्रोत, युवा मित्र Raj K Mishra को साधुवाद कि टेलीफोन पर छोटे से वार्तालाप को इतने सुंदर ढंग से लिपिबद्ध किया तथा थॉमस कुन की puzzle solving and revolutionary invention से तुलना कर समझाया कि आइंस्टाइन के पहले के वैज्ञानिक अन्वेषण within Newtonian paradigm थे आइंस्टाइन ने Newtonian paradigm को quash करके नए paradigm की स्थापना की। यही फर्क तुलसी और कबीर में है।

Saturday, August 20, 2022

मार्क्सवाद 274 (बहुजन विमर्श 2)

 

प्रिय प्रमोद जी,

सिद्धांततः “बहुजन” नामकरण से मुझे कोई विरोध नहीं है, दरअसल मार्क्सवाद दुनिया के कामगरों (बहुजन) के हित का ही विमर्श है क्योंकि ऐतिहासिक रूप से दुनिया में व्यापक बहुमत श्रमजीवियों (मजदूरों) यानि बहुजन का ही रहा है तथा परजीवी शासक वर्ग हमेशा ही सूक्ष्म अल्पसंख्यक रहे हैं। इसीलिए मार्क्सवाद सर्वहारा की मुक्ति को मानव-मुक्ति मानता है। सही है कि मार्क्स-एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो की रचना, यूरोप की 1848 की क्रांतिकारी लहर में की लेकिन सभी रचनाएं समकालिक होती हैं और महान, कालजयी रचनाएं सर्वकालिक हो जाती हैं। सही कह रहे हैं कि मार्क्स-एंगेल्स की रचनाएं वेद की तरह ब्रह्मवाक्य के रूप में नहीं ली जा सकतीं, ऐसा करना अमार्क्सवादी कृत्य होगा क्योंकि मार्क्सवाद दुनिया की अनेकरूपों में व्याख्या करने का नहीं बल्कि उसे समझने और बदलने का विज्ञान तथा दर्शन है। रूढ़िवादी मार्क्सवादियों को लक्षित कर ही मार्क्स ने परिहास किया था, “शुक्र है खुदा का कि मैं मार्क्वादी नहीं हूं। एंगेल्स ने 1891 के आस-पास टिप्पणी की थी कि मार्क्सवादी वह नहीं जो मार्क्स के या उनके लेखन से उद्धरण दे बल्कि वह है जो किसी विशिष्ट परिस्थिति में वैसा ही करे जैसा मार्क्स करते। वर्गचेतना से लैश, संगठित सर्वहारा द्वारा मानव-मुक्ति की मूल प्रस्थापना तो मानव-मुक्ति तक अपरिवर्तित रहेगी लेकिन विशिष्ट संदर्भ में संघर्ष की प्रक्रिया वहां की विशिष्ट परिस्थियों के अनुसार बदलती रहेंगी। मार्क्स ने खुद अपने जीवनकाल में ही अपनी प्रस्थापनाओं में कई परिवर्तन किए। 1848 के कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो और 1867 के फर्स्ट इंटरनेसनल के उद्बोधन के तेवर और जोर में फर्क देखा जा सकता है। भारत के बारे में 1853 के और 1857-58 के लेखों में उनकी राय में परिवर्तन देखा जा सकता है।

 

जैसाकि मैं निरंतर कहता आया हूं कि हमारे यहां, ऐतिहासिक कारणों से, जन्मगत सामाजिक विभाजन के उन्मूलन की नवजागरण तथा प्रबोधन जैसी क्रांतियां नहीं हुईं, जिसकी जिम्मेदारी भी मार्क्सवाद को अपना वैचारिक आधार मानने वालों पर थी। इसीलिए भारत के विशिष्ट संदर्भ में बहुजन विमर्श मार्क्सवाद के ही एक आयाम की तरह है। इस पर विस्तार से फिर लिखूंगा, अभी इतना ही कहना चाहूंगा कि शब्द और अवधारणाएं संदर्भ और प्रयोग से अर्थ ग्रहण करते हैं तथा ‘बहुजन’ शब्द हिंदी क्षेत्र में अस्मितावादी अर्थ ग्रहण कर चुका है तथा सामाजिक न्याय के संघर्ष का पर्याय बन चुका है, जो कि सही है। लेकिन अब सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के संघर्ष के बाद आर्थिक न्याय के संघर्ष का वक्त बीत चुका है तथा जरूरत दोनों संघर्षों की द्वद्वात्मक एकता की है। जिसके लिए जरूरी है सामाजिक चेतना का जनवादीकरण क्योंकि जाति के विनाश के बिना क्रांति नहीं और क्रांति के बिना जाति का विनाश नहीं।
सादर

जय भीम – लाल सलाम।

पुनश्च
शीघ्र ही पूरा लेख पढ़ूंगा।
   

 

 

Wednesday, August 17, 2022

मार्क्सवाद 273 (बहुजन विमर्श 1)

 प्रिय प्रमोद जी, 

बहुत दिनों से बौद्धिक जड़ता में जकड़े होने के चलते आपसे भी संपर्क कटा रहा। अभिजन के विपरीत बहुजन विमर्श की अवधारणा प्रशंसनीय है तथा दलित विमर्श को व्यापक फलक देती है। आपने सही कहा है कि ऐतिहासिक रूप  ब्राह्मणवादी बौद्धिक विमर्श के समानांतर लोकायत और बौद्ध आदि बौद्धिक धाराएं प्रगतिशील, वैज्ञानिक, भौतिकवादी धाराएं रही हैं जो ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति की पौराणिक बौद्धिक धारा के वर्चस्व में दब गई थीं। शिक्षा की सैद्धांतिक सार्वभौमिक सुलभता औपनिवेशिक शिक्षा नीति का सकारात्मक उपपरिणाम रहा है जिससे 'ज्ञान' पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती मिलने लगी और जिसके संरक्षण के लिए उसने हिंदुत्व का चोला धारण कर लिया। मैंने फारवर्ड प्रेस के एक लेख में लिखा था कि हिंदुत्व ब्राह्मणवाद की राजनैतिक अभिव्यक्ति है। खैर मुख्य मुद्दे पर आते हैं। वह यह है कि मार्क्सवाद के जन की अवधारणा की अनिश्चितता और अस्पष्टता भारत के संदर्भ में उसके व्याख्याताओं की नासमझी के चलते रही है जिन्होंने मार्क्सवाद को यहां की विशिष्ट परिस्थियों में यहां के समाज को समझने-बदलने के विज्ञान के रूप में न अपनाकर मॉडल के रूप में अपना लिया। विज्ञान जड़ नहीं गतिशील होता है। 1853-54 में सामग्री की सीमित उपलब्धता के बावजूद मार्क्स ने जब भारत पर लिखना शुरू किया तो पाया कि यहां का ऐतिहासिक विकास क्रम यूरोप के ऐतिहासिक विकास क्रम के अध्ययन के आधार पर प्रतिपादित ऐतिहासिक भौतिकवाद के सैद्धांतिक खांचे में पूर्णतः फिट नहीं होता तथा इसके लिए एशियाटिक उत्पादन प्रणाली (मोड ऑफ प्रोडक्सन) की अवधारणा प्रतिपादित किया, जिस पर मुझे याद नहीं है कि यहां की कम्युनिस्ट पार्टियों या उनके बुद्धिजीवियों ने कभी कोई गंभीर विमर्श चलाया हो। यूरोप में नवजागरण और प्रबोधन (एनलाइटनमेंट)  क्रांतियों ने जन्माधारित सामाजिक विभाजन समाप्त कर दिया था लेकिन भारत में उसके समतुल्य कोई क्रांति नहीं हुई तथा अपूर्ण सामाजिक क्रांति का मुद्दा भी कम्युनिस्ट पार्टियों का प्रमुख एजेंडा होना चाहिए था जो उन्होंने नहीं किया। भारत के ऐतिहासिक संदर्भ में अस्मितावादियों और मार्क्सवादियों दोनों को समझना चाहिए/होगा कि आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण के चलते शासक जातियां ही शासक वर्ग रहे हैं।  मुझे लगता है कि 19वीं-20वीं शताब्दी की क्रांतियों का युग समाप्त हो चुका है तथा जातीय अस्मितावादी राजनीति अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा चुकी है। दोनों की धाराओं को पुनर्विचार की जरूरत है जिससे वे सामाजिक चेतना के जनवादीकरण में सार्थक साझी भूमिका निभा सकें, जय भीम लाल सलाम का नारा जिसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। मकसद प्रतिस्पर्धी जातिवाद नहीं, जातिवाद का उन्मूलन है। 

जय भीम -- लाल सलाम
ईश मिश्र

Saturday, August 13, 2022

शिक्षा और ज्ञान 375 (कपिल मुनि और पाइथागोरस)

 पाइथागोरस की जीवनी और दर्शन जुड़े हुए हैं कपिल मुनि के सांख्यशास्त्र और पाइथागोरस के संख्याशास्त्र में कोई संबंध नहीं है। कपिल मुनि का सांख्यशास्त्र श्रृष्टि का उद्भव विकासवादी प्रक्रिया में स्थापित करता है। वे एक अनीश्वरवादी तथा भौतिकवादी थे। पाइथागोरस ईश्वरवादी था तथा अंधविश्वासों में विश्वास रखता था। कपिल मुनि को पहला विकासवादी माना जाता है, उनके जन्म के स्थान तथा समय के बारे में कई कहानियां हैं, उनका संभावित समय 700 ईशापूर्व यानि पाइथागोरस से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले का माना जाता है।

14.08.2020

Thursday, July 21, 2022

फुटनोट 366 (सांस पर टैक्स)

 कल सुबह की सैर में पार्क में एक मध्य वर्गीय दिखने वाले युवा दंपति की बातचीत सुनने को मिली।

पत्नी: गैस का दाम तो बढ़ा ही था, सब्जियों के दाम आसमान छू रहे हैं, रोटी-दाल-छाछ पर भी सरकार ने टैक्स लगाकर गरीबों का जीना दूभर कर दिया है।

पति: तुम क्यों गरीबों की रहनुमा बन रही हो? महीने में खाने-पीने के खर्च में हजार-दो हजार बढ़ जाने से हमें क्या फर्क पड़ता है। सरकार को देश पर खर्चने के लिए भी तो पैसे चाहिए। कितना तो विश्बैंक और आईएमएफ से कर्ज ले चुकी है। रूपए की औकात घटने के साथ देनदारी भी तो बढ़ गयी है।

पत्नी: कर्ज का भार भी तो गरीबों पर ही पड़ेगा।

पति: ज्यादा मत बोलो नहीं तो देश द्रोह में बंद हो जाओगी, तुम्हारे साथ मुझ पर भी मुसीबत आएगी। देखती नहीं हो, फिल्म निर्माता अविनाश दास को गुजरात पुलिस मुंबई से पकड़कर ले गयी, उसने शाह जी के साथ झारखंड की घूसखोर अधिकारी की तस्वीर सोसल मीडिया पर शेयर किया था। शाह जी तब फोटो तब की है जब वह घऊसखोरी में पकड़ी नहीं गयी थी।

पत्नी: इस बात का दाल-रोटी-छाछ पर टैक्स से क्या मतलब?

पति: किसी भी बात का किसी भी बात से मतलब हो सकता है. कुल मिलाकर टैक्स की बात भी तो सरकार की बुराई ही है।

पत्नी: सही कह रहे हो। चलो खुली हवा में सांस लेने पर तो अभी टैक्स नहीं लगा।

पति: जोर से मत बोलो नहीं तो बड़े-बड़े पार्कों की तरह इसमें भी घुसने का टिकट लग जाएगा।

पत्नी: बड़े-बड़े पार्कों में घूमने का टैक्स लगता है?

पति: हां और बेच पर बैठने का अलग से। एकपार्क के बेंचों पर कीलें निकली रहती हैं, उनमें डिब्बे होते हैं जिनमें सिक्के डालने से कुछ समय के लिए कीलें अंदर चली जाती हैं और समय खत्म होते ही ऊपर निकल आती हैं।

पति-पत्नी की बातचीत में दखलअंदाजी करना वाजिब नहीं समझा नहीं तो उस पार्क का पता पूछता।

Wednesday, July 20, 2022

मार्क्सवाद 272 (आर्थिक संकट)

  1930 के दशक के आर्थिक संकट का कारण था over production and under consumption, जिसका कारण था लोगों की क्रयशक्ति का अभाव, जिसका कारण था अधिकतम निजी मुनाफे के एडम स्मिथ सिद्धांत पर आधारित उत्पादन साधनों पर निजी स्वामित्व कि बुनियाद पर टिकी पूंजीवादी प्रणाली। इस आर्थिक संकट से पूंजीवाद ध्वस्त होने के कगारपर पहुंच गया तथा तबाही से पीड़ित उत्पादक (मजदूर) तबाही से राहत के लिए हाहाकार मचाने लगा। पूंजीवाद को ध्वस्त होने से बचाने और मजदूरों के हाहाकार को शांत करने के लिए एडम स्मिथ के अहस्तक्षेपीय के राज्य सिद्धांत की जगह केंस के अर्थ व्यवस्था पर राज्य के नियंत्रण पर आधारित हस्तक्षपीय, कल्याणकारी (वेल्फेयर) राज्य के सिद्धांत को लागू किया गया जिसके तहत विशाल सार्वजनिक आर्थिक उपक्रम तथा कल्याणकारी संल्थान स्थापित किए गए। भारत में पूंजी वाद था ही नहीं तो ध्वस्त होने से बचाने का सवाल ही नहीं था, तो यहां कल्याणकारी राज्य की स्थापना पूंजीवाद की स्थापना के लिए हुई, क्योंकि 1847 में औपनिवेशिक शासक अर्थव्यवस्था को तबाही की जिस हालत में छोड़ गए उसमें औद्योगिक योगदान 6.3% था, जब कि 19वीं शताब्दी की शुरुआत तक भारत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के प्रमुख खिलाड़ियों में था। देशी पूंजीपतियों का उदय तो हो चुका था, जिनमें ज्यादातर के आदिम संचय अफीम युद्ध के दौरान अफीम 'के व्यापार पर आधारित था, लेकिन विशाल औद्योगिक अधिरचना में निवेश की न तो उनकी क्षमता था न ही इच्छाशक्ति। इसलिए जनता के पैसे के राजकीय निवेश की बुनियाद पर पूंजीवाद की स्थापना हुई। सार्वजनिक क्षेत्र की भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन से तबाही से उत्पन्न का इलाज निजीकरण खोजा गया। रोग कभी इलाज बन नहीं सकता और संकट के दौर आते रहेंगे जब तक कि इसमें आमूल-चूल परिवर्तन से नयी प्रणाली की स्थापना नहीं होती।

Tuesday, July 19, 2022

शिक्षा और ज्ञान 374 (वैज्ञानिकता)

 इतिहास की गाड़ी में रिवर्स गीयर नहीं होता (कभी कभी छोटा-बड़ा यू टर्न जरूर ले सकती है) तथा मस्तिष्क के विकास की दृष्टि से हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनुभव सीमा (exposure)का फलक बढ़ता जाता है। पाषाणयुग के हमारे पूर्वज कितने भी उन्नत क्यों न रहे हों, अपने साइबर युग के पिछड़े वंशजों से भी पीछे ही रहेंगे। बौद्धिक तथा आर्थिक-सााजिक उन्नयन समानुपातिक होते हैं, दोनों में करण-कारण का दोतरफा संबंध हैं। वैदिक, यूनानी तथा चीनी सभ्यताएं , ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से उन्नत सभ्यताएं थीं। पश्चिम का उन्नयन 14वीं-15वीं शताब्दी से शुरू होता है और ज्ञान-विज्ञान की उन्नति के ही अनुपात में वे आर्थिक-सामाजिक तथा सामरिक शक्ति के रूप में भी आगे बढ़े। मैं दुनिया पर यूरोपीय वर्चस्व को उचित नहीं बता रहा हूं बल्कि उसे ज्ञान-विज्ञान से उपजी तकनीकी उपलब्धियों का अमानवीय इस्तेमाल मानता हूं, लेकिन यह तो अब इतिहास बन चुका है। मध्य युग यूरोप-भारत समेत तमाम दुनिया के लिए अंधा युग था। यूरोप नवजागरण और प्रबोधन (enlightenment) क्रांतियों को जरिए इससे उबर कर आगे बढ़ गया। हम ऐसी किन्ही नवजागरण क्रांतियों के अभाव में मध्ययुगीन अंधे युग को और गहन बनाते जा रहे हैं। वैज्ञानिक चेतना विकसित करने की बजाय हम इतिहास के पुनर्मिथकीकरण में लगे हैं। एक सज्जन ने 28 लाख से से भी पहले उन्नत धातुओं की मूर्तियों का अन्वेषण कर लिया जबकि लाखों साल के पाषाणयुग के अंत की शुरुआत 7000 साल पहले मानी जाती है। वैज्ञानिक चेतना आर्थिक-सामाजिक उन्नति की पूर्व शर्त है और उसका मूल मंत्र है, 'सत्य वही जो प्रमाणित किया जा सके'।


जहां तक 2000 सालों से आक्रमणों के चलते हमारे वैज्ञानिक अन्वेषणों की प्रगति के बाधित होने की बात है तो आक्रमण या युद्ध से वैज्ञानिक अन्वेषण या ज्ञान-विज्ञान की प्रगति से सीधा रिश्ता नहीं है। प्राचीन वैदिक कुटुंब और उत्तरवैदिक राज्य आपस में लड़ते रहते थे। प्राचीन यूनानी नगर राज्य आपस में और विदेशियों से लगातार लड़ते रहते थे। आधुनिक (15वीं-16वीं शताब्दी के बाद) यूरोपीय इतिहास युद्धों का इतिहास है। दरअसल ऐतिहासिक रूप से वैज्ञानिक अन्वेषण से निकली तकनीक (टेक्नॉलजी) का उपयोग पहले हथियार बनाने में होता है फिर औजार। लोहे की खोज का इस्तेमाल पहले तलवार-तीर बनाने में हुआ फिर फावड़ा और हथौड़ा बनाने में, बारूद का अनवेषण पहले अग्नेयास्त्र बनाने में हुआ फिर ऊर्जा उत्पादन में। वैज्ञानिक अन्वेषण के लिए वैज्ञानिक सोच जरूरी है, जिसके लिए जरूरी है अंधविश्वासों की मिथ्या चेतना से मुक्ति।

हर पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों को सहेजती है और आगे बढ़ाती है, अतीत से वर्तमान जुड़ा होता है और वर्तमान से भविष्य. तभी तो मानव पाषाणयुग से साइबर युगतक पहुंचा है। हर पीढ़ी अगली पीढ़ी को कमतर आंकती है। हम अपने बच्चों से वही बातें कहते हैं जो हमारी पिछली पीढ़ी हमसे कहती थी।

Monday, July 18, 2022

Hindu Pakistan

 . British colonialists' project was to divide the country in collaboration of its Indian Hindu and Muslim (communal) agents under the divide and rule policy and a Muslim Pakistan was carved out of India in its eastern and western frontier areas. The religion based concept of nation is so fallacious that the Bangladesh on the principle of linguistic nationalism was carved out of Muslim Pakistan. Linguistic nationalism too is equally fallacious and would not hold for very long. Owing to the scientific vision and sensible world view of the leading personalities of the national movement that the formation of Hindu Pakistan could be then avoided but now it seems to be eventuality. Now there would be two competing (Hindu & Muslim) Pakistans. I hope, eventually, some time India (Hindustan) shall be restored on the ruins of the two Pakistans,

लड़ने से जीत भी मिल सकती है

लड़ने से जीत भी मिल सकती है

लड़ने से जीत भी मिल सकती है

न लड़ने से तो हार सुनिश्चित ही है

लड़ाई सिर्फ हार-जीत की नहीं होती
इतिहास में प्रतिरोध दर्ज करने की भी होती है
खुद के जिंदा होने की आश्वस्ति की भी
इसलिए भी लड़ना है कि देना पड़ेगा
जवाब अपनी नतिनियों के सवालों का
कि क्या कर रहे थे हम
जब रौंदी जा रही थी मानवता
फासीवादी बूटों के तले
इसलिए हम मानेंगें शहीद पाश की सलाह
और लड़ेंगे साथी
कम-से-कम अपना प्रतिरोध दर्ज करने के लिए
फासीवाद के विरुद्ध असहमति जताने के लिए
इतिहास की नीरसता तोड़ने के लिए
भगत सिंह के सपनों को जिंदा रखने के लिए
हम लड़ेंगे साथी
क्योंकि अंधेयुग में लड़ने की जरूरतें बढ़ती जाती हैं
(
कलम बहुत दिन बाद आवारा हुआ)
(
ईमि/18.07.2022)

 

 


Saturday, July 16, 2022

मार्क्सवाद 271 (द्वंद्वात्मकता)

 बिल्कुल सही कह रहे हैं सभी प्रक्रियाएं द्वंद्वात्मक होती है और मैंने पहले ही कहा है कि मेरी बात को निंदा नहीं आत्मालोचना समझा जाए क्योंकि बहुत दिनों से किसी पार्टी में हुए बिना भी मैं खुद को भी व्यापकता में कम्युनिस्ट आंदोलन का हिस्सा मानता हूं। आपकी इस बात से भी सहमत हूं कि आत्मावलोकन तथा आत्मालोचना का काम धीरज और वस्तुनिष्ठ ऐतिहासिक सच्चाई को स्वीकारने की मांग करता है जिसके बाद ही भविष्य के कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाई जा सकती है। आज सामाजिक चेतना के जनवादीकरण (वर्गचेतना के संचार-प्रसार) के रास्ते के तीन बड़े गतिरोधक हैं -- सांप्रदायिकता; जातिवाद (ब्रह्मणवाद) तथा जवाबी जातिवाद (नवब्रह्मणवाद) तथा इन सब का एक ही जवाब है इंकिलाब जिंदाबाद। जिसके लिए जरूरी है सामाजिक चेतना का जनवादीकरण, जिसकी पूर्व शर्त है सांप्रदायिक तथा जातिवादी मिथ्या चेतनाओं से मुक्ति। हिंदुत्व सांप्रदायिकता ब्राह्मणवाद की ही राजनैतिक अभिव्यक्ति है। विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है लेकिन एक बात निश्चित है कि भावी आंदोलन सामाडिक न्याय और आर्थिक न्याय के संघर्षों की द्वंद्वात्मक एकता की मांग करता है जिसका प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व रोहित बेमुला की शहादत के प्रतिरोध में शुरू हुए जेएनयू आंदोलन से निकला नारा, "जय भीम लाल सलाम" करता है।

Friday, July 15, 2022

मार्क्सवाद 270 (कम्युनिस्ट आंदोलन)

 Jogendra Sharma जी, वामपंथ की भूमिका और जिम्मेदारी पर आप के लेख की प्रतीक्षा रहेगी। कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर 1950 के दशक में चुनाव में भागीदारी की शुरुआती बहस में मुख्य तर्क चुनावी मंचों का इस्तेमाल जनवादी चेतना के प्रसार के माध्यम के रूप में करने का था, लेकिन व्यवहार में साधन ही साध्य बन गया। पश्चिम बंगाल सरकार के चरित्र और अन्य सरकारों के चरित्र में कोई गुणात्मक फर्क नहीं रह गया था। जनवादी चेतना का प्रसार ऐसा हुआ कि सीपीएम/वाम गठबंधन का संख्याबल भाजपा का संख्याबल बन गया। वही हाल हिंदी क्षेत्र के वाम संसदीय समर्थन आधार (संख्या बल) का हुआ। कम्युनिस्ट पार्टी का मुख्य काम राजनैतिक शिक्षा के द्वारा सामादिकचेतना के जनवादीकरण (वर्गचेतना के संचार) से चुनावी संख्याबल को जनबल में तब्दील करना था जिसमें वह नाकाम रही और संख्याबल को पार्टी लाइन के भक्तिभाव से हांकती रही, जिसे भाजपा अब धर्मोंमाद के भक्तिभाव से हांक रही है। मुझे याद नहीं है कि पिछले 40 सालों में सीपीैआई/सीपीएम ने किसी व्यापक जनांदोलन का नेतृत्व किया हो। (स्थानीय पार्टी नेतृत्व द्वारा पॉस्को के विरुद्ध विस्थापन विरोधी आंदोलन जैसे अपवादों को छोड़कर)। 1962 की सीपीआई की संसदीय शक्ति की तुलना में आज तीनों संसदीय पार्टियों की सम्मिलित संसदीय शक्ति उसका दशमांश भी नहीं है। सूचनाओं के अभाव में मार्क्स-एंगेल्स की एसियाटिक मोड की थियरी गलत हो सकती है लेकिन पार्टी गठन के 100 वर्षों में इस पर कोई समीक्षात्मक बहस हुई क्या? 1991 में राममंदिर के धर्मोंमादी आंदोलन के दौर में भी फैजाबाद से चुनाव जीतने वाले मित्रसेन यादव जैसे लोग जातिवादी संगठनों में क्यों चले गए? यूरोपीय संदर्भों से तुलना न भी की जाए तो सामाजिक चेतना के जनवादीकरण (वर्गचेतना के संचार) के लिए जाति/धर्म की जन्मजात अस्मिता की प्रवृत्तियों पर आधारित जातिवादी/सांप्रदायिक मिथ्या चेतनाओं से मुक्ति जरूरी है। मार्क्सवाद की एक प्रमुख अवधारणा है जिसे कम्युनिस्ट पार्टियों ने फ्रेम करवाकर फूल-माला चढ़ाने के लिए अपने दफ्तरों में टांग दिया है। भूमंडलीय राजनैतिक क्षितिज के हाशिओं पर सिमट गईं सभी देशों के कम्युनिस्ट नेतृत्व को अपने अपने ऐतिहासिक संदर्भों में मार्क्सवाद के पुनर्पाठ; वृहद् आत्मावलोकन तथा निर्मम आत्मालोचना की जरूरत है। कृपया इसे निंदा नहीं आत्मालोचना समझें।