Wednesday, August 17, 2022

मार्क्सवाद 273 (बहुजन विमर्श 1)

 प्रिय प्रमोद जी, 

बहुत दिनों से बौद्धिक जड़ता में जकड़े होने के चलते आपसे भी संपर्क कटा रहा। अभिजन के विपरीत बहुजन विमर्श की अवधारणा प्रशंसनीय है तथा दलित विमर्श को व्यापक फलक देती है। आपने सही कहा है कि ऐतिहासिक रूप  ब्राह्मणवादी बौद्धिक विमर्श के समानांतर लोकायत और बौद्ध आदि बौद्धिक धाराएं प्रगतिशील, वैज्ञानिक, भौतिकवादी धाराएं रही हैं जो ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति की पौराणिक बौद्धिक धारा के वर्चस्व में दब गई थीं। शिक्षा की सैद्धांतिक सार्वभौमिक सुलभता औपनिवेशिक शिक्षा नीति का सकारात्मक उपपरिणाम रहा है जिससे 'ज्ञान' पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती मिलने लगी और जिसके संरक्षण के लिए उसने हिंदुत्व का चोला धारण कर लिया। मैंने फारवर्ड प्रेस के एक लेख में लिखा था कि हिंदुत्व ब्राह्मणवाद की राजनैतिक अभिव्यक्ति है। खैर मुख्य मुद्दे पर आते हैं। वह यह है कि मार्क्सवाद के जन की अवधारणा की अनिश्चितता और अस्पष्टता भारत के संदर्भ में उसके व्याख्याताओं की नासमझी के चलते रही है जिन्होंने मार्क्सवाद को यहां की विशिष्ट परिस्थियों में यहां के समाज को समझने-बदलने के विज्ञान के रूप में न अपनाकर मॉडल के रूप में अपना लिया। विज्ञान जड़ नहीं गतिशील होता है। 1853-54 में सामग्री की सीमित उपलब्धता के बावजूद मार्क्स ने जब भारत पर लिखना शुरू किया तो पाया कि यहां का ऐतिहासिक विकास क्रम यूरोप के ऐतिहासिक विकास क्रम के अध्ययन के आधार पर प्रतिपादित ऐतिहासिक भौतिकवाद के सैद्धांतिक खांचे में पूर्णतः फिट नहीं होता तथा इसके लिए एशियाटिक उत्पादन प्रणाली (मोड ऑफ प्रोडक्सन) की अवधारणा प्रतिपादित किया, जिस पर मुझे याद नहीं है कि यहां की कम्युनिस्ट पार्टियों या उनके बुद्धिजीवियों ने कभी कोई गंभीर विमर्श चलाया हो। यूरोप में नवजागरण और प्रबोधन (एनलाइटनमेंट)  क्रांतियों ने जन्माधारित सामाजिक विभाजन समाप्त कर दिया था लेकिन भारत में उसके समतुल्य कोई क्रांति नहीं हुई तथा अपूर्ण सामाजिक क्रांति का मुद्दा भी कम्युनिस्ट पार्टियों का प्रमुख एजेंडा होना चाहिए था जो उन्होंने नहीं किया। भारत के ऐतिहासिक संदर्भ में अस्मितावादियों और मार्क्सवादियों दोनों को समझना चाहिए/होगा कि आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण के चलते शासक जातियां ही शासक वर्ग रहे हैं।  मुझे लगता है कि 19वीं-20वीं शताब्दी की क्रांतियों का युग समाप्त हो चुका है तथा जातीय अस्मितावादी राजनीति अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा चुकी है। दोनों की धाराओं को पुनर्विचार की जरूरत है जिससे वे सामाजिक चेतना के जनवादीकरण में सार्थक साझी भूमिका निभा सकें, जय भीम लाल सलाम का नारा जिसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। मकसद प्रतिस्पर्धी जातिवाद नहीं, जातिवाद का उन्मूलन है। 

जय भीम -- लाल सलाम
ईश मिश्र

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