प्रिय प्रमोद
जी,
सिद्धांततः “बहुजन” नामकरण से मुझे कोई विरोध नहीं है, दरअसल
मार्क्सवाद दुनिया के कामगरों (बहुजन) के हित का ही विमर्श है क्योंकि ऐतिहासिक
रूप से दुनिया में व्यापक बहुमत श्रमजीवियों (मजदूरों) यानि बहुजन का ही रहा है
तथा परजीवी शासक वर्ग हमेशा ही सूक्ष्म अल्पसंख्यक रहे हैं। इसीलिए मार्क्सवाद
सर्वहारा की मुक्ति को मानव-मुक्ति मानता है। सही है कि मार्क्स-एंगेल्स ने
कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो की रचना, यूरोप की 1848 की क्रांतिकारी लहर में की लेकिन
सभी रचनाएं समकालिक होती हैं और महान, कालजयी रचनाएं सर्वकालिक हो जाती हैं। सही
कह रहे हैं कि मार्क्स-एंगेल्स की रचनाएं वेद की तरह ब्रह्मवाक्य के रूप में नहीं
ली जा सकतीं, ऐसा करना अमार्क्सवादी कृत्य होगा क्योंकि मार्क्सवाद दुनिया की
अनेकरूपों में व्याख्या करने का नहीं बल्कि उसे समझने और बदलने का विज्ञान तथा
दर्शन है। रूढ़िवादी मार्क्सवादियों को लक्षित कर ही मार्क्स ने परिहास किया था,
“शुक्र है खुदा का कि मैं मार्क्वादी नहीं हूं। एंगेल्स ने 1891 के आस-पास टिप्पणी
की थी कि मार्क्सवादी वह नहीं जो मार्क्स के या उनके लेखन से उद्धरण दे बल्कि वह
है जो किसी विशिष्ट परिस्थिति में वैसा ही करे जैसा मार्क्स करते। वर्गचेतना से
लैश, संगठित सर्वहारा द्वारा मानव-मुक्ति की मूल प्रस्थापना तो मानव-मुक्ति तक
अपरिवर्तित रहेगी लेकिन विशिष्ट संदर्भ में संघर्ष की प्रक्रिया वहां की विशिष्ट
परिस्थियों के अनुसार बदलती रहेंगी। मार्क्स ने खुद अपने जीवनकाल में ही अपनी
प्रस्थापनाओं में कई परिवर्तन किए। 1848 के कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो और 1867 के
फर्स्ट इंटरनेसनल के उद्बोधन के तेवर और जोर में फर्क देखा जा सकता है। भारत के
बारे में 1853 के और 1857-58 के लेखों में उनकी राय में परिवर्तन देखा जा सकता है।
जैसाकि मैं निरंतर कहता आया हूं कि हमारे यहां, ऐतिहासिक कारणों से,
जन्मगत सामाजिक विभाजन के उन्मूलन की नवजागरण तथा प्रबोधन जैसी क्रांतियां नहीं
हुईं, जिसकी जिम्मेदारी भी मार्क्सवाद को अपना वैचारिक आधार मानने वालों पर थी।
इसीलिए भारत के विशिष्ट संदर्भ में बहुजन विमर्श मार्क्सवाद के ही एक आयाम की तरह
है। इस पर विस्तार से फिर लिखूंगा, अभी इतना ही कहना चाहूंगा कि शब्द और अवधारणाएं
संदर्भ और प्रयोग से अर्थ ग्रहण करते हैं तथा ‘बहुजन’ शब्द हिंदी क्षेत्र में
अस्मितावादी अर्थ ग्रहण कर चुका है तथा सामाजिक न्याय के संघर्ष का पर्याय बन चुका
है, जो कि सही है। लेकिन अब सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के संघर्ष के बाद
आर्थिक न्याय के संघर्ष का वक्त बीत चुका है तथा जरूरत दोनों संघर्षों की
द्वद्वात्मक एकता की है। जिसके लिए जरूरी है सामाजिक चेतना का जनवादीकरण क्योंकि
जाति के विनाश के बिना क्रांति नहीं और क्रांति के बिना जाति का विनाश नहीं।
सादर
जय भीम – लाल
सलाम।
पुनश्च
शीघ्र ही पूरा लेख पढ़ूंगा।
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